दस्तक-विशेष

शब्दों और सन्नाटों को बख़ूबी बुनते हैं आशुतोष

डॉ. सुमन सिंह

अत्यंत सहज, व्यवहार कुशल और बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न आशुतोष राणा की अभिनय के क्षेत्र में तो दक्षता सर्वविदित है ही, इनका वैचारिक फलक भी अत्यंत व्यापक और उन्नत है। साहित्य, समाज, राजनीति, आध्यात्म को व्याख्यायित करने की अपूर्व क्षमता और विद्वता से भरपूर हैं आशुतोष। जितना सामाजिक जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हैं उतना ही आध्यात्म की गहरी समझ भी। गुरु की प्रेरणा को आत्मसात करने वाले अद्भुत शख्सियत आशुतोष राणा के व्यक्तित्व के विविध पक्षों को उजागर करती दस्तक टाइम्स की साहित्य संपादक से उनकी बातचीत के प्रमुख अंश-

आप बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं, इस कारण समझ नहीं पा रही कि आपके व्यक्तित्व के किस पहलू पर चर्चा करें। इतने विविध आयाम हैं आपके चरित्र के कि भ्रम की स्थिति में हूँ कि पहले किस पक्ष पर बात करूँ?
(हँसते हुए ) मैंने पहले ही कहा था कि आपको मेरे बारे में बहुत कुछ लिखा हुआ मिल जायेगा, बोला हुआ मिल जायेगा….आप उन स्रोतों से भी मदद ले सकती हैं। मुझे ऐसा लगता है कि किसी के व्यक्तित्व के बारे में यदि हमें कुछ जानना है तो सबसे पहले उसके व्यक्तित्व का बिम्ब अपने दिमाग़ में निश्चित कर लेना चाहिए। ऐसा करने से उस व्यक्तित्व के बारे में जानना सहज हो जाता है। जहाँ तक मेरी बात है तो मुझे सदा ही ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ लोगों को गुरु कृपा से एक ही जीवन में कई आयाम मिल जाते हैं, तो हमें भी उन परम सौभाग्यशाली लोगों में से एक समझिये। या यूं भी कह सकते हैं कि हम छोटे शहरों के रहने वाले लोग अक्सर बड़े स्वप्न देखते हैं और जब बड़े स्वप्न देखते हैं तो अपनी क्षमताओं को विकसित करने का प्रयत्न भी करते हैं। परिणामस्वरूप उस दिशा में बढ़ते हुए व्यक्तित्व के कई सारे आयाम जो परमात्मा हर व्यक्ति में देता है, परिलक्षित होने लगते हैं और कुछ सौभाग्यशाली लोगों के आयाम फलित भी हो जाते हैं। (हँसकर) तो हमें भी उन्हीं भाग्यवान लोगों में से एक समझिये।

दक्षिण भारतीय फ़िल्मों में आप जीवा के रूप में प्रसिद्ध हैं, इसका कारण क्या है?
आशुतोष- ये जो जीवा का रूप है, जाने क्यों वहाँ प्रचलित है। मुझे आज तक इसका कारण पता नही चला, क्योंकि ऐसा कोई किरदार मैंने आज तक दक्षिण भारतीय फ़िल्मो में निभाया नहीं है।

तब ऐसा क्यों बोलते होंगे?
पता नहीं, शायद जीव का जीवा से सम्बन्ध होगा या कि (हँसते हुए) मुझ जैसे विकट जीव को उन्होंने देखा होगा और उन्हें लगा होगा कि इसे जीवा कहा जाना चाहिए। ऐसा सिर्फ़ अनुमान है मेरा, क्योंकि जीवा नाम का कोई किरदार मैंने अपने जीवन काल में नहीं किया है।

आपकी परवरिश बेहद संस्कारी और सुरुचिसम्पन्न परिवेश में हुई जबकि ‘संघर्ष’ जैसी फिल्मों के किरदार एकदम आपके व्यक्तित्व से अलग हैं। ऐसे ‘खल’ चरित्र को निभाते समय आपको कोई असुविधा नहीं हुई?
आपके इस प्रश्न का उत्तर एक उदाहरण से स्पष्ट करना चाहूंगा। हमारे जीवन में अर्थ और व्यर्थ दोनों की ही समान और सहयोगी भूमिका है। अर्थ मतलब जिसे स्वीकार किया जा सके और व्यर्थ मतलब जिसे स्वीकार न किया जा सके। ये अर्थ और व्यर्थ एक दूसरे के साथ चलते हैं क्योंकि अर्थ को सृजित होने के लिए व्यर्थ के सहयोग की आवश्यकता पड़ती है। ऐसे ही हमारे किरदार हैं एक दूसरे से भिन्न लेकिन एक दूसरे पर आश्रित। अभिनय के क्षेत्र में विभिन्न भूमिकाओं को जीते हुए भी अपने मूल स्वरूप में बने रहना ही तो कला है न।

आजकल आपकी क्या व्यस्तता है?
आजकल दक्षिण भारत में हूँ और एक तेलुगू फ़िल्म की शूटिंग में व्यस्त हूँ। बाक़ी हिन्दी फिल्में तो बीच-बीच में करता ही रहता हूं।

तब तो आपको ढेर सारी प्रांतीय भाषाएँ आती होंगी?
जहां तक भाषा की बात है तो मेरे लिए भाषा भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम है। इसलिये मैं शब्दों की भाषा पर कम सन्नाटों की भाषा पर ज्यादा विश्वास रखता हूं और जहां तक भाषाओं में पारंगत होने की बात है तो मैं भाषाओं में पारंगत नहीं हूँ लेकिन निश्चित रूप से थोड़ी-थोड़ी मात्रा में कई सारी भाषाएं समझ लेता हूं।

राणा जी ,क्या कोई आसान उपाय है इतनी सारी भाषाओं को सीखने का?
(हँसकर) देखिये, जैसे कि भगवान के निराकार स्वरूप को हमने मूर्तियों के रूप में मंदिरों में प्रतिष्ठित किया हुआ है और उन मूर्तियों के पूजन द्वारा हम साकार से निराकार की यात्रा करते हैं वैसे ही भाव के साकार स्वरूप को हमने किताबों में अक्षरों के रूप में, शब्दों के रूप में प्रतिष्ठित किया हुआ है और इन्ही साकार शब्दों से हम निराकार भाव की यात्रा करते हैं। यहां कहने का मतलब यह है कि जब भावों की अभिव्यक्ति भाषा में होती हैं तब वे मूर्त हो जाते हैं। जहां तक मेरी बात है तो मैं माध्यम पर न जाकर मूल पर जाता हूँ। अगर आप किसी भी विचार के भाव को पकड़ते हैं तो उस विचार की अभिव्यक्ति किसी भाषा-विशेष में करना आपके लिए आसान हो जायेगा। भाषा अपने आप आपके दिमाग में केंद्रित होती चली जायेगी क्योंकि भाव अपनी अभिव्यक्ति का मार्ग स्वयं ढूँढ़ लेता है। फिर चाहे वह तमिल हो, तेलगू हो, कन्नड़ हो, बांग्ला हो ,मराठी हो या कोई अन्य भाषा हो, आपके लिए उसका अर्जन आसान हो जाता है।

इतनी परिष्कृत हिन्दी कैसे बोल लेते हैं आप,क्या एनएसडी का प्रभाव है?
इस मामले में हमारी परम पूज्य माता जी की बड़ी कृपा रही है हमारे ऊपर। जब हम छोटे थे तो हमारी मां कहा करती थीं कि बेटा यदि तुम भाषा को बिगाड़ोगे तो भाषा तुम्हें बिगाड़ देगी और अगर भाषा को उसकी गरिमा प्रदान करोगे तो वह तुम्हें अपनी गरिमा प्रदान करेगी। किसी भी भाषा को बोलो तो ध्यान रखो कि उसमें अशुद्धता नहीं होनी चाहिए, क्योंकि यदि भाषा अशुद्ध नहीं होगी तो भाव भी अशुद्ध नहीं होगा। यह जो शिक्षा थी या एक कि़स्म का आग्रह था मां का हम बच्चों के प्रति कि बच्चे अशुद्ध भाषा न बोलें, तो कहीं न कहीं इसी कारण भाषा के प्रति लगाव बढ़ा और भाषा की शुद्धता के प्रति रुझान हुआ। फिर उस चीज़ के हमें फल मिलने लगे। कह सकते हैं कि भाषा को जब हमने गरिमा प्रदान की तो भाषा ने अपनी गरिमा उठा करके आशुतोष राणा को प्रदान कर दी। तभी आज की तारीख़ में आशुतोष राणा की एक्टिंग के ऊपर आप प्रश्नचिन्ह लगा सकते हैं लेकिन भाषा के ऊपर प्रश्नचिन्ह आप नहीं लगा सकते। तो भाषा के बारे में जो मां ने कहा था वह हमारे साथ सिद्ध हुआ। मुझे ऐसा लगता है कि हर मां अपने संतान का श्रेष्ठ चाहती हैं और मैं इस मामले में परम सौभाग्यशाली हूँ कि मुझे ऐसी मां मिलीं जो मेरे लिए सदा श्रेष्ठ की आकांक्षी रहीं।

आपके व्यक्तित्व- विकास पर सबसे अधिक किसका प्रभाव पड़ा?
मेरे व्यक्तित्व निर्माण पर मेरे स्वजनों का प्रभाव तो पड़ा ही लेकिन जिनका सबसे अधिक प्रभाव पड़ा वे हैं मेरे प्रेरणास्रोत, मार्गदर्शक, आध्यात्मिक गुरु परमपूज्य श्री देवप्रभाकर शास्त्री जी। वे गृहस्थ संत हैं। हम सब उनको प्रेम से दद्दा जी कहते हैं। पूज्य दद्दा जी की बड़ी अद्भुत कृपा रही क्योंकि जिस वर्ष मां का देहांत हुआ हम बहुत छोटे थे और उसी वर्ष हमें हमारे पूज्य गुरु मिल गए। इस प्रकार हम मां की गोद से निकलकर महात्मा की गोद में आ गए। तो कहने का अर्थ यह है कि हमारे जीवन में, जिसे आप जीवन कह लें, जीविका कह लें या जीवन या जीविका के समुच्चय को कह लें, इन सब पर सर्वाधिक प्रभाव जिनका …यहां प्रभाव कह के भी उस भाव को छोटा कर रहा हूँ, क्योंकि प्रभाव में भी आपका अपना स्व बचा रहता है तो इस स्व को समाप्त करते हुए हम कहें कि हमारे जीवन के आधार ही पूज्य दद्दा जी हैं, हम उन्हीं के ऊपर खड़े हैं।

रेणुका जी कब आयीं आपके जीवन में?
रेणुका मेरे जीवन में आयीं 1998 में और 2001 में हमारा विवाह हुआ। पूज्य दद्दा जी के आदेश पर हम दोनों जो एकल थे, युगल हो गए।

रेणुका जी की मधुर मुस्कान और आपकी गंभीरता का सामन्जस्य आपके दाम्पत्य की प्रगाढ़ता में सहायक होगा न?
बिल्कुल… बिल्कुल। रेणुका जी हमारी परम मित्र भी हैं और संगिनी भी हैं। या ये कहें कि वे जितनी अच्छी पुत्री थीं, उतनी ही अच्छी वे प्रेमिका थीं। अब उतनी ही अच्छी वो पत्नी हैं और मां हैं। यह भी परम सौभाग्य का विषय है और यह भी गुरु कृपा से ही प्राप्त होता है क्योंकि स्त्री जीवन का आधार है। मेरा मानना है कि स्त्री आपको धारण करती है और जो धारण करता है वह सक्षम और सशक्त नहीं होता है तो निश्चित रूप से पुरुष असहाय व दुर्बल हो जायेगा क्योंकि मुझे लगता है कि पुरुष मूलत: एक कृति है, वह सर्जक नहीं है। मेरा यह परम सौभाग्य है कि रेणुका जी जैसा सर्जक जीवन में आया जिसने कहीं न कहीं आशुतोष राणा रूपी ऊर्जा को बहुत अच्छे से धारण किया या ये कहें कि पूज्य दद्दा जी की कृपा से उस ऊर्जा को धारण करने के लिए रेणुका जी जैसी सशक्त व सक्षम स्त्री मेरे जीवन में आयीं और जीवन को सही दिशा मिली।

यह जो आपमें इतनी वैचारिक प्रखरता है, नि:संदेह वह गुरु -कृपा से ही आयी होगी?
निश्चित रूप से, मेरा ऐसा ही मानना है। चूंकि आप वाराणसी की हैं तो आध्यात्मिक परिवेश आपके रोम -रोम में बसा होगा और आप सहज अनुमान लगा सकती हैं कि गुरुकृपा का क्या महत्व है। आपने यदि संत ज्ञानेश्वर की कहानी पढ़ी हो तो पता होगा कि संत ज्ञानेश्वर ने एक भैंसे के ऊपर हाथ रख दिया तो भैंसा मंत्रोच्चार करने लगा। इसलिये मेरा मानना है कि गुरुओं की जो शक्ति होती है वह अपार होती है। तो मेरी स्थिति भी, मेरी कहानी भी आप बिल्कुल वैसी ही मान के चलिये। पूज्य दद्दा जी का समर्थ हाथ आशुतोष के सर पर रखा गया और आशुतोष जो शेष था वो विशेष हो गया। मैं तो यही मानकर चलता हूं कि परमात्मा का साकार स्वरूप गुरु होते हैं और गुरु का निराकार स्वरूप परमात्मा।

आपके क्षेत्र में इतने सारे विकल्प हैं, चुनौतियाँ और असफलताएं हैं। आप इनसे कैसे पार पाते हैं?
मैं अन्तद्र्वन्द्व को खुले मन से स्वीकारता हूं। मेरी जिंदगी में इंकार नाम की चीज नहीं है। जब आप अन्तद्र्वन्द्व को खुले मन से स्वीकारते हैं तो वह आपको निद्र्वन्द्व कर देता है। मेरा यह मानना है कि फैसले इंसान से बड़े नहीं होते इंसान फैसलों से बड़ा होता है। जब किसी फैसले को लेते समय आप उत्साह से भरे होते हैं तब उसके परिणाम चाहे सफलता हो या असफलता, उसका भावात्मक परिणाम सदैव आनंददायी ही होता है। हो सकता है कि मैं किसी फ़िल्म को पूरे मन प्राण से करूं और वह सुपरफ्लॉप हो जाय। लेकिन उसकी यह असफलता मेरे विषाद का कारण नहीं बनती …..।

लेकिन ज्यादातर मामलों में तो ऐसी स्थितियां हमारे विषाद का कारण ही बनती हैं न,तो आप कैसे खुद को उबारते हैं?
ऐसी विकट परिस्थितियों से खुद को उबारना मेरे लिए इसलिए सहज होता है, क्योंकि मुझे पता होता है कि मैंने अपनी क्षमता का सौ प्रतिशत उपयोग उस कार्य के लिए किया है। इस बात की तुष्टि हर्ष का कारण बनती है, विषाद का नहीं।

औरों की तरह आपने भी अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित किया होगा, क्या हमसे साझा करना चाहेंगे?
सबसे पहली बात तो यह है कि लक्ष्य और ध्येय में अंतर है लेकिन विडंबना यह है कि हमने लक्ष्य को ही ध्येय मान लिया है जबकि हमारे जीवन का लक्ष्य होता है और हमारे जन्म का ध्येय होता है। मेरा मानना है कि यह जो जीवन हमें मिला है वह ध्येय की पूर्ति के लिए मिला है और हम छोटे -छोटे लक्ष्यों से ही बड़े ध्येय की ओर पहुंचते हैं। आप देखती होंगी कि तमाम लोग सफल होने के बाद भी अशांत और अतृप्त रह जाते हैं क्योंकि उनके लक्ष्य की पूर्ति तो हो गयी होती है लेकिन ध्येय अपूरित ही रह जाता है। पूज्य दद्दा जी की कृपा से मैं लक्ष्य और ध्येय को लेकर भ्रमित नहीं हूँ। इसलिए निद्र्वन्द्व होकर छोटे-छोटे लक्ष्यों को माध्यम बनाकर अपने जन्म के ध्येय की ओर बढ़ रहा हूं। 

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