शहर सुरसा के मुंह में समाते गांव
ऊंची-ऊंची बिल्डिंगों को बनाने की चाहत रखने वाले बिल्डरों के प्रवेश से हरियाली घट रही है। गांव का शहरीकरण हो रहा है। बड़ी-बड़ी कारों में घूमते भू-माफिया वह जगह तलाश रहे है, जहां वे निर्माण कर हरियाली को सदा के लिए समाप्त कर दें। पहले जब गांव से शहर के लिए चलता था, तब रास्ते में गायें दिखती थी, बैलों को हांकने की आवाजें आती थीं, बकरियां चरती थीं, लेकिन अब बड़़ी-बड़ी गाड़ियां दिखती हैं, मोटरसाइकिलें दिखती हैं, लगता है साइकिलों के लिए समापन युग चल रहा है। जिन गांवों की हवा पाक साफ थी, वहां प्रदूषण का बोल-बाला है। यह विकास परेशान करता है।
बात 2015 से शुरू करूं.. पंचायत चुनाव चल रहे थे। गांव-गांव प्रचार का दौर जारी था। कल्पना यही थी कि प्रत्याशी अपना प्रचार उसी घिसे-पिटे अंदाज से कर रहे होंगे, जैसे कभी किया करते थे। जीतेगा भाई जीतेगा… मेरा भाई जीतेगा के नारे लग रहे होंगे। प्रचार के लिए पर्चे बंट रहे होंगे। चुनावों को देखने समझने के लिए गांव का दौरा कर रहा था। लोकसभा और विधानसभा चुनाव के प्रचार में सोशल मीडिया का जमकर उपयोग होता है, लेकिन पंचायत के चुनाव पंचायत के ठहरे। कैसा सोशल मीडिया, क्या जाने गांव वाले, लेकिन जब गांव में चुनाव प्रचार की शैली देखी तब पता चला कि विकास की गाथायें अब कहीं ज्यादा गांव तक पहुंची हैं। यह अलग बात है कि जो विकास अब गांवों में हो रहा है, वह वास्तव में विकास है या नहीं इस पर बहस जरूरी है। इस बात पर भी विवाद हो सकता है कि आखिर विकास की यह किरणें हमारी ग्रामीण संस्कृति को और गांवों को बर्बाद तो नहीं कर रही, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले 20 वर्षों में शहर अब गांव की तरफ भाग रहे हैं। क्या यह विडम्बना नहीं है कि पहले गांव वाले अपने परिवार व बच्चों के भविष्य को संवारने की बात कहकर शहरों में आते थे और वही शहर अब गांव की तरफ पलायन कर रहा है, लेकिन क्या यह वास्तव में शहरों का गांवों की ओर पलायन है। सच यही है कि विकास की उल्टी गंगा बह रही है। गांव वालों के शहरों की ओर पलायन से शहर सुरसा की तरह विराट रूप लेते जा रहे हैं। इस विराटता में गांव दम तोड़ रहे हैं। क्या किसी को इस बात की चिंता नहीं होनी चाहिए कि हमारे गांव को अब शहर में तब्दील करने का अभियान चल रहा है। यह अभियान बेतरतीब व बेअंदाज ढंग से चलाया जा रहा है।
मुझे याद आ रहे है अपने बचपन के वे दिन जब लखनऊ से 22 किलोमीटर दूर स्थित अपने गांव से लखनऊ आने की तैयारी करता था। जो लोग भी सुबह अच्छे कपड़ों में दिख जाते थे, लोग यह जान जाते थे हो न हो यह शहर जा रहा है। कोई यह नहीं पूछता था कि क्या लखनऊ जा रहे हो। हर कोई एक ही सवाल पूछता था कि का शहर जा रहे हो। शहर इसलिए सम्पन्नता की निशानी थे क्योंकि वहां बड़ी-बड़ी दुकानें थी, हर जगह सड़कें थी, बसें थी, सुन्दर बाजार था, शिक्षा के साधन थे, चिकित्सा के लिए अच्छे अस्पताल थे और इसी तरह अन्य सुविधायें भी उपलब्ध थी।
गांव अभाव का प्रतीक थे, गांव में न चिकित्सा के साधन थे, न बड़े बाजार थे, न साफ पानी था, न चलने के लिए बेहतर सड़कें थी। दूसरों के लिए किसी के शहर जाने के प्रति एक ईष्र्या थी। यह स्वत: मन में आ जाता था कि शहर जा रहा है, तो हंसेगा, खेलेगा, घूमेगा, खरीदारी करेगा और सिनेमा का भी मजा लेगा। शहर जाने वाले की भी यही अकड़ थी और इसीलिए वह तन कर चलता था कि बच्चू आज मैं शहर जा रहा हूं। इसलिए आज मुझसे कोई टक्कर नहीं ले सकता, दिन भर मजा लूटेंगे। समय का बदलाव देखिये, गांव धीरे-धीरे शहर बनने लगे है। अब जब कभी मुझे रात में गांव जाना होता है तो रास्ते में इंजीनियरिंग कॉलेज व अन्य फैक्ट्रियों की बिजली की जगमगाहट यह अहसास ही नहीं होने देते कि कहीं कोई गांव भी है। सवाल यही उठता है कि क्या यह बदलाव सुखद नहीं है। जिस तरह से गांव में डिजिटल इंडिया की धमक सुनाई दे रही है, क्या वह चौंकाती नहीं है, लेकिन इस परिवर्तन में खतरे की जो आवाजें सुनाई दे रही है वह भी परेशान करती है। विकास जिस तरह से गांव में पहुंच रहा है, वह विनाश का संकेत है। गांव बदले हैं, लेकिन यह बदलाव सुखद भी है और खतरे की घंटी भी है। गांव के शहरीकरण का वर्तमान स्वरूप हमारी पूरी आर्थिक व्यवस्था और तंत्र को बर्बाद कर डालेगा। यह बदलाव हरियाली को समाप्त करने वाला है। ऊंची- ऊंची बिल्डिंगों को बनाने की चाहत रखने वाले बिल्डरों का प्रवेश क्या गांव के विकास को उल्टी दिशा में नहीं ले जा रहा। गांव में हरियाली घट रही है। गांव का शहरीकरण हो रहा है। बड़ी-बड़ी कारों में घूमते भू-माफिया वह जगह तलाश रहे है, जहां वे निर्माण कर हरियाली को सदा के लिए समाप्त कर दे। पहले जब गांव से शहर के लिए चलता था, तब रास्ते में गायें दिखती थी, बैलों को हांकने की आवाजें आती थीं, बकरियां चरती थीं, लेकिन अब बड़़ी बड़ी गाड़ियां दिखती हैं, मोटरसाइकिलें दिखती हैं, लगता है साइकिलों के लिए समापन युग चल रहा है। जिन गांवों की हवा पाक साफ थी, वहां प्रदूषण का बोल-बाला है। यह विकास परेशान करता है। यदि यही विकास है, और यही बदलाव है तो ऐसे बदलाव से चौकन्ना रहना होगा, लेकिन एक सुखद सूचना भी है कि गांव में अब सोशल मीडिया का प्रवेश हो चुका है हर हाथ में मोबाइल है। देश को समझने की उत्कंठा है, इस बदलाव के साथ चलने की तमन्ना है।
पिछले 15 वर्षों में बहुत कुछ बदला है। सन् 2000 की बात है। गांव में भी संचार क्रांति प्रवेश कर रही थी। ग्रामीण यह महसूस करने लगे थे कि अब दुनिया बदल रही है, लेकिन इतनी तेजी से सब कुछ बदलेगा, यह किसी ने नहीं सोचा था। जहां तक संचार क्रांति की बात है गांव कहीं ज्यादा तेजी से आगे जा रहे हैं।
गांव के प्रति हमारी जो पुरानी धारणा है वह नितान्त पिछड़ी हुई है। यह देखकर आश्चर्य हुआ कि कैसे प्रत्याशियों का पूरा प्रचार सोशल मीडिया के जरिये हो रहा है। एक-एक गली में प्रचार करते प्रत्याशियों के चित्र मिनट दर मिनट बदलते रहे, क्या यह आश्चर्य नहीं पैदा करता कि केवल बख्शी तालाब क्षेत्र में ही तीन दर्जन से अधिक वाट्सएप ग्रुप चल रहे हैं और सतर्कता इतनी ज्यादा कि कोई प्रमाणित खबर और तथ्य वाट्सएप के जरिये देश दुनिया तक पहुंचा देते हैं। वाट्सएप से ही योग सिखाया जा रहा है और लोगों को उसके लिए प्रेरित किया जाता है। गांव विकास के लिए चिंतित है।
सड़क निर्माण कराने के लिए संघर्ष की आवाजें उठती हैं, स्वास्थ्य सेवायें दुरुस्त हो इसकी मांग उठती हैं। किसानों के बच्चे भी उच्च शिक्षा पा रहे हैं। विकास की चर्चा में गांवों ने शहरों को पीछे छोड़ा है, लेकिन इस प्रगति के बीच चिंता बस यही है कि यह विकास बिल्डरों का बंधक नहीं होना चाहिए। इस विकास में हरियाली बढ़नी चाहिए, घटनी नहीं। खेतों को कंक्रीट में बदलने वालों के खिलाफ आवाजें उठनी ही चाहिए।
विकास का मतलब यह कदापि नहीं कि किसानों की जमीनें खरीद कर उनकी हरियाली समाप्त कर दी जाये। वक्त बदला है, लेकिन इस वक्त के साथ सतर्कता भी जरूरी है। पिछले 15 साल का समय उत्साह भी पैदा करता है और डराता भी है।
गांव में जब मिट्टी नहीं होगी तब तक उसकी सुगन्ध कैसे ले सकेंगे। पशु नहीं होंगे तो गांव की आत्मा मर जाएगी। हरियाली नहीं होगी, तो ठूठ गांव से क्या फायदा होगा। गांव विकास की ओर बढ़े हैं, लेकिन उसका नक्शा बदलना जरूरी है। सवाल यह उठ रहा है कि गांव की यह विकास यात्रा क्या चौमुखी है। क्या सरकारों ने इस यात्रा को तेज किया है, या गांव वालों ने ही इस यात्रा को गति दी। इस यात्रा की भागीदार सरकारें भी रहीं और गांव वाले भी।