दस्तक-विशेष

शाकाहार ही प्राकृतिक आहार

आहार : आचार्य गोपाल तिवारी

Aaharश्रीमद्भागवत महापुराण में कथा आती है राजा प्राचीन बर्हि की। राजा प्राचीन बर्हि बहुत ही कर्मकाण्डी राजा था। इसने अपने जीवनकाल में इतने यज्ञ किये थे कि पूरीधरती कुशों से पट गयी थी। तभी से इनका नाम प्राचीन बर्हि पड़ा था। ये बहुत बड़े-बड़े यज्ञ करता था और उन यज्ञों में पशुओं की बलि देता था। उसके हिंसाजीवी यज्ञों को देखकर नारद जी को दया आयी और उसे धर्म का मतलब समझाया। यज्ञ का तात्पर्य सभी के कल्याण से होता है, हिंसा करने कराने वाले यज्ञ से तो पाप लगता है। नारद जी ने प्राचीन बर्हि को ऊपर आकाश की ओर देखने को कहा। प्राचीन बर्हि ने जैसे ऊपर को मुख उठाकर देखा तो आकाश में हजारों पशु हिंसक रूप से लाल आंखें किये उसे घूर रहे थे। ये दृश्य देखकर वह डर गया, तब नारद जी ने उसे समझाया। यज्ञ में जो तुम निरीह, निरपराध पशुओं का वध करते हो, वही जीव अपना बदला लेने के लिए तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं, ये तुम्हारे खून के प्यासे हैं। तब प्राचीन बर्हि कांप गया। नारद जी ने समझाया- यज्ञ परोपकार के लिए है पर पीड़न के लिए नहीं। जब किसी जीव की हत्या की जाती है तो वह जीव मन में संकल्प करता है। आज तुम मुझे मार रहे तो किसी दिन मैं भी तुम्हें मारूंगा। अब भी समय है, इन हिंसायुक्त कर्मों को छोड़कर निष्काम यज्ञ एवं आत्मानुसंधान में लग जाओ। राजा प्राचीन बर्हि ने पश्चाताप किया और कभी जीव हत्या न करने का संकल्प लिया और मुक्त हो गये। ये तो हुई एक पुरातन इतिहास की बात लेकिन आज भी अनेक लोग जीव हिंसा में लगे हुए हैं और इनमें से अधिकांश मांसाहार के लिए जीव हत्या करते हैं।

मांस शब्द की संस्कृत भाषा में व्युत्पत्ति है। माम स भक्षयते यस्माद् भक्षयिष्ये तमप्यहम इतिमांस:।
अर्थात जिस पशु का वध किया जाता है वो सोचता है कि आज ये मुझे खाने के लिए मेरा वध कर रहे हैं, कभी मैं भी इन्हें खाऊंगा, यही मांस शब्द का तात्पर्य है।
मांसाहार किसी भी दृष्टि से अच्छा नहीं है चाहे वह आध्यात्मिक हो या सांसारिक। कितने निरीह पशुओं का तुम स्वाद के चक्कर में अपना शिकार बना डालते हो, इसके तो नुकसान ही नुकसान है। कुछ लोग तर्क देते हैं, कहते हैं कि मांस खाने से हमें प्रोटीन मिलता है, उतना प्रोटीन हमें शाकाहार से नहीं मिलता। केवल प्रोटीन के चक्कर में किसी की जान ले लेना बर्बरता नहीं तो क्या है? प्रोटीन तो शाकाहार में भी मिल सकता है, मांस में तो प्रोटीन की ही अधिकता है जबकि शाकाहार सम्पूर्ण भोजन है, अनेक अध्ययनों से यह प्रमाणित हो चुका है कि मांस खाने वाले लोग शाकाहारियों की तुलना में अधिक रोगी होते हैं एवं जल्द ही बूढ़े हो जाते हैं। कारण मनुष्य का शरीर प्राकृतिक तौर पर शाकाहार के लिए है न कि मांसाहार के लिए। प्रकृति ने मनुष्य की संरचना मांस खाने वाले जीव के रूप में नहीं की है। अगर ऐसा होता तो प्रकृति मनुष्य को भी शेर, चीता, कुत्ता, सियार जैसे पंजे और दाढ़े देता जिससे कि वो मांस को चीर-फाड़ कर सके लेकिन ऐसा नहीं। मनुष्य केवल स्वादवश अनाधिकार चेष्टा करता है। मांस भक्षण करना कहीं से भी उचित नहीं है। हमारे पेट में अग्नि होती है जिसे हम जठराग्नि बोलते हैं। जठर अर्थात पेट में रहने वाली अग्नि। हम देखते हैं कि अग्नि में औषधिक एवं शाकाहारी भोज्य पदार्थ घी आदि मिलाकर हवन किया जाता है और उसी अग्नि में मृत शरीर रखकर दहन कार्य अर्थात अंतिम संस्कार किया जाता है। अब ये विचार तो आपको ही करना है कि अपने पेट की अग्नि को मांसाकार करके चिता जलाने के काम लाना है या शाकाहार करके हवन यज्ञ करने के काम लाना है। कुरान शरीर में भी लिखा है कि हे लोगों, अपने पेट में पशुओं की कब्रें न बनाओ।
प्राय: लोग कहते हैं कि हमारे धर्म में मांस खाना वर्जित नहीं है तो कुरान में भी ये तो लिखा है कि जो किसी की आंख निकालेगा, उसे आंख निकलवानी पड़ेगी, जो किसी के कान काटेगा उसे अपने कान कटवाने पड़ेंगे, जो किसी के प्राण लेगा, उसे अपने प्राण देने पड़ेंगे। जब कोई धर्म-कर्म का प्रतिफल इतने अच्छे तरह से वर्णित कर रहा है तब वो जीव हिंसा की छूट कैसे देगा, इससे तो पाप ही लगेगा। हां, ये संभव है कि स्थान विशेष, परिस्थिति विशेष, समय विशेष के चलते तदनुसार जहां शाकाहार उपलब्ध ही न हो वहां मांस भक्षण करना कहीं तक मजबूरी भी कही जा सकती है। जीवन मात्र के लिए तो ऐसा शायद हो भी सकता है लेकिन केवल स्वादवश भारत जैसे भूभाग में जन्म लेने वाले भारतवासियों के लिए मांस भक्षण करना कहीं से भी श्रेयस्कर नहीं है।
अहिंसा परमो धर्म: का उपासक ये देश कभी भी किसी की हत्या कर स्वयं के लिए प्रोटीन अर्जित करने वाला नहीं हो सकता। ये तो स्वार्थपरता की पराकाष्ठा है। बहुतेरे लोग ये भी कहते सुने जाते हैं कि भगवान ने जो मुर्गे-मुर्गी-बकरे आदि बनाये हैं वो किसलिए बनाये हैं, खाने के लिए ही तो बनाये हैं और यदि हम उनको खायेंगे नहीं तो उनका क्या होगा। अब यदि इनका ये तर्क मान भी लिया जाये कि भेड़-बकरा-सुअर, मुर्गा मनुष्य के खाने के लिए ही बनाये गये हैं इसलिए हम उनको खा रहे हैं, अत: इसी आधार पर कोई शेर या चीते के सामने जाकर क्यों नहीं खड़ा हो जाता। आखिरकार परमात्मा ने तुम्हें भी तो उनका ग्रास बनने के लिए बनाया है। अब परमात्मा की इतनी ही मानते हो तो मरने के लिए इनके सामने क्यों नहीं चले जाते। तब कोई तैयार नहीं होगा। ये केवल स्वार्थपरक बाते हैं।
जिस प्रकार शाक-भाजी की खेती की जाती है वैसे ही मांसलोलुप लोग जानवरों की खेती करते हैं। कृत्रिम तरीके से गर्भाधान आदि के द्वारा अधिक संख्या में मांस के लिए इनका उत्पादन किया जाता है। यदि आप मांस खाना बंद कर दें तो ये खुद ही उसी स्थान पर शाक-भाजी आदि का उत्पादन करने लगेंगे। प्रकृति चक्र में कोई भूखा नहीं मरता। प्रकृति आवश्यकता के अनुसार हमेशा से सभी पर दया करती आयी है। हमारा आपका भोजन शाकाहार है, मांसाहार नहीं। अनेक शोधो से ये प्रमाणित हो चुका है कि मांसाहारी भोजन में कोलेस्ट्राल फैटीएसिड अधिक मात्रा में होता है जिससे अनेक रोग जैसे उच्च रक्तचाप, मोटापा, डायबिटीज, बवासीर, कब्ज, कैंसर आदि होने के अवसर अपेक्षाकृत ज्यादा होते हैं। मांस खाने से जो बीमारी जानवरों में होगी वही आप में भी आ सकती है। मांस के संक्रमित होने के भी अवसर अधिक रहते हैं। अनेक बैक्टीरिया जो दूषित मांस खाने वालों के अंदर फैलते रहते हैं, शाकाहार की अपेक्षा मांसाहार बहुत तेजी से सड़ता और विषाक्त होता है।
जैसे खाओगे अन्न, वैसा रहेगा मन- की कहावत की मानें तो मांस खाने वाले लोगों में क्रोध की प्रवृत्ति, भय, घबराहट, चिड़चिड़ापन, उदासीनता शाकाहारियो के मुकाबले बहुत अधिक होती है। इसके कई कारण हैं, जिनमें एक कारण यह भी है कि जब जानवरों के बाड़े में किसी जानवर को मारा जाता है तब उस जानवर की छटपटाहट, अकुलाहट, मृत्यु का भय, पीड़ा, दर्द सब उसके मुत्यु के पूर्व उसके रक्त में समाहित हो चुके होते हैं। एक जानवर का कत्ल हो रहा होता है, दूसरा इस कृत्य को देखता है उसे भी पता है कि कुछ देर में इसके बाद मेरा नम्बर है और मैं भी मारा जाऊंगा, ऐसा सोचकर वो भयभीत रहता है और उसके रक्त में ये भय और बेचैनी भी स्रवित होती है फिर जब कोई इस जानवर का मांस खायेगा तो उसके अंदर शांति या निर्भयता कैसे रह सकती है किसी उर्दू शायर का शेर है-
आह, का तीर खता हो कब मुमकिन है
किसी जालिम का भला हो कब मुमकिन है।
सदना, कसाई जो भगवान के भक्त हुए हैं, ये कसाई का कार्य अर्थात मांस बेचने का कार्य करते थे, एक बार रात्रि में बादशाह का नौकर इनके यहां बकरे का आधा शेर मांस लेने आया। सदना कसाई के यहां सारा मांस बिक चुका था। अब आधे सेर मांस के लिए बकरे की हत्या कर दे तो सुबह तक पूरा मांस खराब होने का भय और बादशाह का नौकर है, इसलिए मना कर नहीं सकता, फिर विचार कर उसने बकरे का अण्डकोष काटने का निश्चय किया और जैसे हाथ में छुरा ले कण्डकोष काटने चला बकरा हंसने लगा। बकरे को हंसते देखकर सदना कसाई को बड़ा आश्चर्य हुआ तब बकरा कहने लगा, कई बार तुमने मेरा गला काटा और कई बार मैंने तुम्हारा गला काटा। कई बार तुम कसाई बने और कई बार मैं। फिर आज ये अण्डकोष काटने का नया तरीका क्यों चालू कर दिया। जैसे ही बकरे के मुख से ये सुना सदना कसाई अवाक रह गया। उसने उसी दिन से मांस के व्यवसाय से तौबा कर लिया। ये जघन्य कृत्य मैं कभी नहीं करूंगा और भगवान का भक्त हो गया।
किये गये कर्म को जरूर भोगना पड़ता है, ये सनातन अटल सिद्धांत है। अत: ऐसा न हो कि बाद में पछताना पड़े। जीवन पेट में पशुओं की कब्रें बनाने के लिए नहीं है, ये जीवन हमें अपने आपको जानने के लिए मिला है, इसे यूं बर्बाद न करो। जीव हिंसा लोक-परलोक दोनों में ही निंदनीय है। वसुधैव कुटुम्बकम हमारी सनातन संस्कृति है, ईश्वर सर्वत्र है- बाइबिल कहती है- सब जगह परवर दिगार आलम है ये इस्लाम कहता है। एक नूर ते सब जग उपजा कौन भले कौन मन्दे। गुरु गं्रथ साहिब कहता है। मांस खाना न खाना हो सकता है किसी मजबूरी वश आपको खाना पड़ा हो या आप खाते हों ये अलग बात है। अपने स्वाद मात्र और प्रोटीन या स्वास्थ्य जैसी मिथक कल्पनाओं की पूर्ति के लिए मांसाहार अपनाना ये अत्यंत ही निंदनीय है।
न मांस भक्षणे दोषं, न मद्ये न च मैथुने। प्रवृत्ति एषा मनुष्याणां, निवृत्तिस्तु महाफलत।
अर्थात न मांस खाने में दोष है न मद्यपान में न मैथुन करने में, यह तो मनुष्यों की प्रवृत्ति है, सहज स्वभाव है लेकिन इसे दूर करना इससे निवृत्ति हमारे जीवन का उद्देश्य किसी अज्ञात कवि ने कहा है-
मांस खाना छोड़ दे जालिम, खुदा के वास्ते।
है ये हरकत नागवार एहले खुदा के वास्ते।
सब बनाये हैं उसी ने जिसने तुम्हें पैदा किया।
क्यूं सताते हो किसी को दो दिनो के वास्ते।
अपने स्वाद के लिए किसी बेजुबां पर अत्याचार न करो ये जीवन जीने के लिए है मरने मारने के लिए नहीं।
परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीड़नम दूसरों को कष्ट देने से बड़ा पाप कोई नहीं।
अपने नफा के वास्ते मत और का नुकसान कर।
तेरा भी नुकसां होयेगा इस बात का तू ध्यान कर।

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