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शीला दीक्षित के कंधे पर एक बार फिर आया कांग्रेस को उबारने का बोझ

80 साल की अनुभवी दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री, केरल की पूर्व राज्यपाल शीला दीक्षित के कंधे पर एक बार राजधानी में कांग्रेस को उबारने का बोझ है। शीला दीक्षित के समय के विकास को दिल्ली वासी आज भी नहीं भूल पा रहे हैं। शीला दीक्षित के नेतृत्व में ही कांग्रेस ने 1998 में भाजपा को धूल चटाया था। 2013 तक वह दिल्ली की एक छत्र मुख्यमंत्री बनी रही और 2013 में शीला दीक्षित की सरकार को आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल ने चुनौती दी थी। दिलचस्प है कि वहीं अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं और कांग्रेस ने एक बार फिर शीला दीक्षित के कंधे पर पार्टी को ऊबारने का बोझ सौंप दिया है।

शीला दीक्षित के कंधे पर एक बार फिर आया कांग्रेस को उबारने का बोझ

शीला दीक्षित की कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं, नेताओं पर गहरी पकड़ है। दिल्ली में करारी हार के बाद कांग्रेस ने अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी अरविंदर सिंह लवली को सौंप दी थी। इस हार के बाद दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष जय प्रकाश अग्रवाल ने नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया था। लवली के बाद प्रदेश कांग्रेस की जिम्मेदारी पार्टी के युवा नेता, पूर्व केन्द्रीय मंत्री अजय माकन को सौंप दी गई, लेकिन 2013 से आज तक दिल्ली प्रदेश कांग्रेस का बूथ से लेकर राज्य स्तर तक जोरदार संगठन खड़ा नहीं हो सका। शीला भी जिला से लेकर राज्य स्तर का संगठन गठित किए जाने पर जोर देती रही। समझा जा रहा है कि इसी को ध्यान में रखकर कांग्रेस पार्टी ने एक बार फिर शीला दीक्षित के कंधे पर यह भार दिया है।

सबको साधकर चलती हैं

राजनीति के कौशल में शीला दीक्षित का जवाब नहीं है। जब वह दिल्ली सरकार में मुख्यमंत्री बनी थी, तो आंतरिक और वाह्य चुनौती चरम पर थी। भाजपा के मदन लाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा जैसे कद्दावर चेहरे थे। शीला दीक्षित को यह कुर्सी भाजपा की सुषमा स्वराज जैसी फायर ब्रांड नेता से मिली थी।  वहीं कांग्रेस के भीतर चौ. प्रेम सिंह जैसा कद्दावर व्यक्तित्व था। शीला दीक्षित पूर्व केन्द्रीय मंत्री उमाशंकर दीक्षित की बहू और प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे विनोद दीक्षित की पत्नी हैं। उ.प्र. के कानपुर क्षेत्र से आने वाले उमाशंकर दीक्षित के परिवार से होने के नाते शीला जहां बाहरी थी, वहीं 31 मार्च 1938 को पैदा हुई शीला दीक्षित की शिक्षा दिल्ली के कान्वेंट ऑफ जीसस एंड मैरी, मिरांडा हाऊस से की है। इस लिहाज से वह दिल्ली के लोगों के बीच दिल्ली की होकर अपना प्रभाव जमाने में सफल रही।

शीला की खासियत है कि उनके विरोधी को भी उनके सामने आने में परेशानी नहीं होती। यह बात अलग है कि शीला राजनीतिक विरोधियों को कभी अपने पैर पर खड़ा होने का ठीक से अवसर भी नहीं देती। शीला दीक्षित के राजनीति की अपनी एक अलग शैली है। उनकी राजनीति का अपना एक मॉडल है।

शीला की राजनीति

शीला दीक्षित की राजनीति में शुरू से दिलचस्पी थी। 1970 में यंग वोमन्स ेसोसियेशन की अध्यक्ष रहने के दौरान भी उन्होंने काफी किए ते। इंदिरा गांधी स्मारक ट्रस्ट की सचिव के तौर पर उनके काम की सराहना होती है। 1980 के दशक में शीला दीक्षित को केन्द्रीय मंत्रिमंडल में स्थान मिल गया था। 1984 में शीला ने उ.प्र. की कन्नौज लोकसभा सीट से चुनाव लड़कर जीता था। राजीव गांधी मंत्रिमंडल में वह 1986-89 तक संसदीय कार्य राज्यमंत्री और प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री थी।  1990 में शीला दीक्षित ने उ.प्र. में महिलाओं के विरुद्ध अत्याचार को लेकर आंदोलन छेड़ दिया था। 82 साथियों के साथ 23 दिन तक उन्होंने जेल यात्रा की थी। 1998 में कांग्रेस पार्टी ने उन्हें अहम जिम्मेदारी देकर दिल्ली प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया। शीला ने इस चुनौती को स्वीकार किया और भाजपा सरकार को चुनाव में सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया। 2008 के चुनाव में उनके नेतृत्व में पार्टी 43 सीट जीतकर सत्ता में बनी रही। शीला दीक्षित तीसरी बार मुख्यमंत्री बनी रही।

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