शुक्र कैसे बने दानवों के गुरु
ज्योतिष : शुक्र ग्रह पहले दानवों के गुरू थे। दैत्यों के गुरू शुक्र का वर्ण श्वेत हैं। उनके सिर पर सुंदर मुकुट तथा गले में माला हैं। वे श्वेत कमल के आसन पर विराजमान हैं। उनके चार हाथों में क्रमश:- दण्ड़, रूद्राक्ष की माला, पात्र तथा वरदमुद्रा सुशोभित रहती हैं। शुक्राचार्य योग के आचार्य हैं। अपने शिष्य दानवों पर इनकी कृपा सदैव बरसती है। इन्होंने भगवान शिव की कठोर तपस्या करके मृतसंजीवनी विधा प्राप्त की थी। उसके बल से ये युद्ध में दानवों को जिला कर देते हैं। मत्स्य पुराण के अनुसार शुक्रचार्य ने असुरों के कल्याण के लिए ऐसे कठोर व्रत का अनुष्ठान किया है। इस व्रत से इन्होंने देवाधिदेव को शंकर को प्रसन्न कर लिया शिव ने शुक्र को वरदान दिया कि तुम युद्ध में पराजित कर दोगे और तुम्हें कोई नहीं मार पायेगा। भगवान शिव ने शुक्र को धन का अध्यक्ष बना दिया। इसी वरदान के आधार पर शुक्राचार्य इस लोक और परलोकी की सारी सम्पत्तियों के स्वामी बन गये।
शुक्राचार्य औषधियों मंत्रों और रसों के भी स्वामी हैं। इनकी सामर्थ्य अद्भुत हैं। उन्होंने अपनी सम्पत्ति असुरों को दे दी और स्वयं तपस्वी जीवन स्वीकार किया। ब्रम्हा की प्रेरणा से शुक्राचार्य ग्रह बनकर तीनों लोकों के परित्राण करने लगे। कभी वृष्टी कभी अवृष्टी कभी अभय उत्पन्न ये प्राणियों के योग क्षेमका का कार्य पुरा करते हैं। ये ग्रह के रुप में ब्रम्हा की सभा में उपस्थित होते हैं। लोकों के लिए एक अनुकूल ग्रह हैं। वर्षा रोकने वाले ग्रहों को शान्त कर देते हैं। इनके अदिदेवता इंद्राणी तथा प्रतिदेवता इन्द्र हैं इनका वाहन रथ हैं। उसमें अग्रिके के समान आठ घोड़े जुते होते हैं। रथ पर ध्वजाएँ फहराती रहती हैं। इनका आयुध दण्ड हैं। शुक्र वृषभ और तुला राशि के स्वामी हैं। तथा इसकी महादयशा 20 वर्ष की हैं। शुक्र ग्रह की शान्ति के लिये गोपूजा करनी चाहिये। तथा हीरा धारण करना चाहिये।