शुरू से लेकर अंत तक सफलता देगा ये चमत्कारिक महाव्रत
मनुष्य हमेशा से द्वंद्वों में फंसा रहा है। अनादि काल से व्यक्ति सुख-दुख, प्रकाश-अंधकार, दिन-रात, लोक-परलोक के द्वंद्वों से जूझता रहा है। सनानत काल से ही मनुष्य की अकांक्षा इन द्वंद्वों से पार जाकर पूर्णता प्राप्त करने की रही है। इस्लाम और यहूदी समेत कई धर्म मानव को अंधकार से प्रकाश की तरफ जाने का संदेश देते रहे हैं और अंधकार को बुराई के रूप में देखते रहे हैं। वहीं सनातन धर्म अंधकार और प्रकाश, ज्ञान और अज्ञान, लोक-परलोक दोनों को बराबर का महत्व देता रहा है। एकादशी का व्रत इसी अपूर्णता और पूर्णता के द्वंद्व से मुक्त कराने का व्रत है।
कई धर्म चंद्रमा को महत्वपूर्ण मानकर अपने व्रतों की गणना करते हैं, तो कुछ धर्मों में सूर्य को ज्यादा महत्व दिया गया है। वहीं सनातन धर्म की वैष्णव परंपरा दोनों को ही बराबर महत्व देती रही है। तभी तो एक तरफ जहां विष्णु प्रकाश के स्वरूप 12 आदित्यों में सर्वोपरि माने गए हैं, तो दूसरी ओर वह रात्रि के अधिपति चंद्रमा की कलाओं में भी अधिष्ठित हैं, जहां राम सूर्यवंशी हैं और कृष्ण चंद्रवंशी।
एकादशी व्रत प्रत्येक पक्ष अर्थात कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष की ग्यारहवीं तिथि को पड़ता है। इस प्रकार वर्ष के बारह महीने में कुल 24 एकादशी होती हैं। 24 ही भगवान विष्णु के अवतारों की संख्या भी है। भगवान विष्णु के ये 24 अवतार उनकी खुद की यात्रा की भी कहानी है। एकादशी के ये 24 व्रत आपको भी एक सामान्य इंसान से पूर्ण पुरुष बनाने की यात्रा है। एकादशी की रात चाहे वो कृष्ण पक्ष की एकादशी हो या फिर शुक्ल पक्ष की, चंद्रमा का तीन चौथाई भाग ही प्रभाव में आता है।
शुक्ल पक्ष में तीन चौथाई भाग प्रकाशित होता है और कृष्ण पक्ष में चंद्रमा का तीन चौथाई भाग अंधकार में रहता है। मानव जीवन में भी इसी प्रकार के उतार-चढ़ाव होते रहते हैं। कभी जीवन में दुख का अंधकार ज्यादा होता है तो कभी सुख का प्रकाश ज्यादा होता है। इन दोनों अतियों से परे जाने का नाम है एकादशी। जिस प्रकार भगवान विष्णु के 24 अवतार उनके प्रारंभिक स्वरूप से लेकर उनके पूर्ण स्वरूप की यात्रा है, उसी प्रकार एकादशी के ये 24 व्रत एक सामान्य मानव के पूर्ण सजग महामानव बनने की यात्रा है। एकादशी का व्रत मनुष्य को ईश्वर के साथ एकाकार करने का व्रत भी है। जैसे एक और एक ग्यारह होते हैं उसी प्रकार एक ईश्वर और एक भक्त मिलकर 11 की रचना करते हैं और शायद इसीलिए 11वें दिन भगवान और भक्त के बीच सेतु बनाने के लिए यह व्रत किया जाता है।