ज्योतिष डेस्क : पुराणों के अनुसार यमलोक को मृत्युलोक के ऊपर दक्षिण में 86 हजार योजन दूरी पर माना गया है। एक लाख योजन में फैले यमपुरी या पितृलोक का उल्लेख गरूड़ पुराण और कठोपनिषद में मिलता है।
कहा जाता है कि मरने के बाद आत्माएं पितृलोक में 1 से लेकर 100 वर्ष तक मृत्यु और पुनर्जन्म के मध्य की स्थिति में रहती हैं। पितरों का निवास चन्द्रमा के उर्ध्व भाग में माना गया है। सूर्य की सहस्र किरणों में जो सबसे प्रमुख है उसका नाम ‘अमा’ है। उस अमा नामक प्रधान किरण के तेज से सूर्य त्रैलोक्य को प्रकाशमान करते हैं। उसी अमा में तिथि विशेष को वस्य अर्थात चन्द्र का भ्रमण होता है तब उक्त किरण के माध्यम से चन्द्रमा के उर्ध्वभाग से पितर धरती पर उतर आते हैं। इसीलिए श्राद्ध पक्ष की अमावस्या तिथि का महत्व भी है। अमावस्या के साथ मन्वादि तिथि, संक्रांतिकाल व्यतिपात, गजच्दाया, चन्द्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण इन समस्त तिथि-वारों में भी पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध किया जा सकता है। जैसे पशुओं का भोजन तृण और मनुष्यों का भोजन अन्न कहलाता है, वैसे ही देवता और पितरों का भोजन अन्न का सार तत्व है। सार तत्व अर्थात गंध, रस और ऊष्मा। देवता और पितर गंध तथा रस तत्व से तृप्त होते हैं। दोनों के लिए अलग-अलग तरह के गंध और रस तत्वों का निर्माण किया जाता है। विशेष वैदिक मंत्रों द्वारा विशेष प्रकार की गंध और रस तत्व ही पितरों तक पहुंच जाती है। एक जलते हुए कंडे पर गुड़ और घी डालकर गंध निर्मित की जाती है। उसी पर विशेष अन्न अर्पित किया जाता है। तिल, अक्षत, कुश और जल के साथ तर्पण और पिंडदान किया जाता है। अंगुलियों से देवता और अंगूठे से पितरों को जल अर्पण किया जाता है। पितरों और देवताओं की योनि ही ऐसी होती है कि वे दूर की कही हुई बातें सुन लेते हैं, दूर की पूजा-अन्न भी ग्रहण कर लेते हैं और दूर की स्तुति से भी संतुष्ट होते हैं। इसके सिवा ये भूत, भविष्य और वर्तमान सब कुछ जानते और सर्वत्र पहुंचते हैं। मृत्युलोक में किया हुआ श्राद्ध उन्हीं मानव पितरों को तृप्त करता है, जो पितृलोक की यात्रा पर हैं। वे तृप्त होकर श्राद्धकर्ता के पूर्वजों को जहां कहीं भी उनकी स्थिति हो, जाकर तृप्त करते हैं। अत: श्राद्धपक्ष में पितरों का पिंडदान और तर्पण कर अपनों को भोजन कराना चाहिए। श्राद्ध ग्रहण करने वाले नित्य पितर ही श्राद्धकर्ताओं को श्रेष्ठ वरदान देते हैं।