संसार मधुमय हो, यही अभीप्सा है!
-हृदयनारायण दीक्षित
प्रकृति का अन्तस् मधुमय है लेकिन आधुनिक सभ्यता ‘मधु’ से भयभीत है। ‘चीनी कम’ ही आधुनिक सभ्यता है और शुगर फ्री उत्तर आधुनिकता। लेकिन केले, संतरे, आम, जामुन, सेब, अंगूर, महुआ के पेड़ आधुनिकता के साथ संगति नहीं करते। उनमें ग्लूकोज की खासी मात्रा है। फिर फलों का ग्लूकोज कोरी शक्कर नहीं होता। उसमें अन्य अनेक तत्व भी होते हैं। प्रकृति जो कुछ भी गढ़ती है, पूरे मन से गढ़ती है। वैज्ञानिकों ने फलों की शक्कर को ‘फ्रुक्टोज’ नाम दिया है। वनस्पतियां वैदिक ऋषियों की स्तुतियों को नहीं भूली। ऋषियों ने उनसे मधुमयता ही मांगी थी। वे मधुमय फल ही दे रही हैं। लेकिन वैज्ञानिक उन्हें भी ‘शुगर फ्री’ बनाने को बेताब हैं। वे ‘शुगर फ्री’ आलू बना चुके हैं। मैं भयभीत हूं कि मधुमेही आधुनिकता फलों का मधु भी छीन सकती है? गेंहू जौ भी मीठे हैं। इनकी भी खैर नहीं। सेब, अंगूर, अंजीर, गेंहू, जौ भी शुगर फ्री हो गये तो हमारी मधुप्रीति का क्या होगा? मधुमक्खियां गीत गाती हैं। ऋग्वेद के ऋषि ने उनके गायन की प्रशंसा की है। मधुरस में उनके गीत भी घुले रहते हैं। गीत काव्य वैसे भी मधुमय होते हैं। मधु से भयभीत आधुनिकता मधुगीतों की जगह ‘शुगर फ्री’ कविता और गीतों का उत्पादन प्रारम्भ कर चुकी है। नया मनुष्य ‘शुगर फ्री’ हो रहा है। मधुरसविहीन इस मनुष्य में मधुप्रीति है ही नहीं। आनंदरहित, मधुहीन, प्रीतिमुक्त सभ्यता का ही असली रूप नाम बाजार है।
गौओं का दूध मीठा है, भैस का दूध गाढ़ा है, लेकिन वह भी मीठा। बाजार ज्यादा दूध चूसने वाला इंजेक्शन लाया है। फलों सब्जियों को भी समय के पहले पका देने वाले रसायन बाजार में चालू हैं। समय चक्र उलट गया है। अब ‘कडुवा-कडुवा गप और मीठा थू’ का चलन है। मैं गौओं को नमस्कार करता हूं। वे वैदिक अनुभूति और भारतीय प्रतीति में माता हैं। वे हमारा पोषण करती हैं। लेकिन हम उनका पोषण नहीं करते। वे हम सबकी ओर टकीटकी लगाकर देख रही हैं। उनका उदास निहारना भीतर तक आहत करता है। उनके संरक्षण का प्रश्न शेषनाग की तरह फन फैलाए फुफकार रहा है – कैसे हो पोषण संवर्द्धन गायों का? पदार्थवादी निरे उपयोगितावादी कहेंगे- बूढ़ी गायों का उपयोग ही क्या है? बुढ़ाते सब हैं। पेड़, पौधे, वनस्पतियां और हम, आप भी तो क्या बूढ़ो को अपना जीवन चक्र आनंदमगन पूरा करने का अधिकार नहीं है? संविधान निर्माताओं ने गोवंश संरक्षण को राज्य का ‘नीति निर्देशक तत्व’ लिखा है।
मधुमयता मनुष्यता है। सृष्टि के कण-कण के प्रति आत्मीय संवेदनभाव से ही आनंदमयता है। शेर जैसे हिंसक जीवन मनुष्यभक्षी हैं। लेकिन मनुष्य ने उन्हें कैद किया है। स्वार्थी से स्वार्थी मनुष्य भी मनुष्य का मांस नहीं खाते। वे उसका अपने स्वार्थ में उपयोग या दुरुपयोग करते हैं। मनुष्य जानवरों का उपयोग करता आया है। पशुओं का उपयोग प्राचीन हैं। मनुष्य और पशुओं के सम्बंध प्राचीन काल से है, अनेक अन्य प्राणी भी हम सब पर भी निर्भर है। कुत्ते बिल्ली हमारे साथ प्रीति प्यार से रह सकते हैं? छिपकलियां कहां चली जाएं? गौरैय्या तितली आदि सभी जीव प्रकृृति की लयबद्धता-इकोलोजी से विकसित हुए हैं। लेकिन मनुष्य पशुओं का मांस खाता है। प्रकृति अनेक अन्नों फलों से भरीपूरी है। अन्न फल मधुऊर्जा का स्रोत हैं। इनसे प्राप्त पोषण में मधुमयप्रीति भी मिलती है लेकिन अनेक आधुनिक लोगों को जीवों का वध करते समय कोई कष्ट नहीं होता। क्या उनकी संवेदनशीलता मर गयी हैं? शाकाहार की उपयोगिता बताना हमारा लक्ष्य नहीं है। मूलप्रश्न प्रगाढ़ संवेदना का ही है।
संवेदनशील मन समूची सृष्टि के प्रति आत्मीय होता है। मैं जब कब टकटकी लगाकर तारों से भरी गंगा का दूधिया प्रकाश देखता हूं। धरती की गंगा का जल प्रदूषित हो गया है लेकिन आकाश गंगा वैसी ही धवल, दीप्तिमयी और मधुमयी हैं। मैं बचपन से ही आकाशगंगा को निहार रहा हूं, अनेक रातें बीत गयीं। सूर्य अैर चन्द्र के ढेर सारे रथचक्र गुजर गये। सोचता हूं आकाशगंगा का मधु कभी तो बरसेगा। हम सबके ऊपर। कभी तो कुचालक हुआ हमारा मन मधुवर्षा में भीगकर सुचालक होगा। आकाश की तारावली मुझे जब कब सुन्दर वन जैसी दिखाई पड़ती है। फूलो से भरा आकाश हमारे भीतर भर जाता है और चमकते तारे सुकुमार फूल जैसे। छोटे तारे अधखिली कली जैसे। मैं गहरी सांस लेता हूं। लेकिन आकाशीय फूलों की सुगंध नहीं मिलती। प्रतीक्षारत हूं कि आकाशीय फूलों की मधुगंध कभी-कभी न कभी हमारे नासापुटों के जरिए संसार को मधुगंध से भर देगी। हम मधुमय होंगे, जगती का कण-कण होगा। मधुगंध से आपूरित होगी मनुष्यता।
जीवन में तमाम अन्तर्विरोध हैं। लेकिन अमृत आनंद से भरापूरा है यह जीवन। जीवन विराट अस्तित्व की मधुमयता से जुड़ा हुआ है। अस्तित्व का हरेक अणु-परमाणु, तरंगे और प्रकाश किरणें परस्परावलम्बन में हैं। कोई भी स्वतंत्र नहीं है। अस्तित्व में द्वन्द्व का प्रश्न ही नहीं उठता। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद झांसा है। पूर्वजों ने इसी दृष्टिकोण को माया कहा। निष्कामता अस्तित्व की परिपूर्णता से जोड़ता है। निष्काम किया गया कोई छोटा सा कर्म भी अन्तस् में मधु-अनुभूति देता है। यों ही घर में बैठे हुए निरूद्देश्य कोई गीत गाना कितना सुखद प्रतीत होता है। अकारण प्रीतिपूर्ण क्षणों में अपनी कुर्सी या मेज को साफ करते हुए आनंदित होने में कोई श्रम नहीं करना पड़ता। यों ही सामने दिखाई पड़ने वाली किसी भी वस्तु, पौधे, फूल, या कुत्ते बिल्ली के प्रति मधुदृष्टि से भर जाना आनंद का नया सृजन करता है। इसमें किसी बौद्धिक कौशल की आवश्यकता नहीं होती। किसी शब्द या वाक्य विशेष के साथ खेलना, उससे यारी दोस्ती करना आनंददायी है।
मधुमयता बुद्धि कौशल से नहीं आती। यह सदा से है, समूचे अस्तित्व में है। भीतर है, बाहर है, ऊपर और नीचे है। फूलमोहक होते हैं। वे आकर्षित करते हैं। इनके आकर्षण का क्या कारण होगा? हमारा मन संस्कारी है। संस्कारी चित्त का सौन्दर्य बोध भी संस्कारी होता है। क्या फूल इसीलिए सुंदर लगते हैं या फिर इनके आकर्षण का कोई और भी कारण हो शायद? लेकिन फूलों की गंध अकारण है, पौधे निष्काम होकर ही फूल देते हैं और फूल निष्काम होकर गंध, रस और मधु। मधु निष्कामता का रस है और दिव्य गंध है निष्कामता से पैदा उमंग। मैं निष्काम नहीं हूं। अनेक कामनाएं हैं। मधु अभीप्सा भी एक कामना है। संसार मधुमय हो यही अभीप्सा है। दशों दिशाएं मधु आपूरित हों।