अद्धयात्मदस्तक-विशेष

सभी को सिद्धी प्रदान करने वाला कुम्भ

हिन्दू धर्मावलम्बी तीर्थयात्री के लिए कुम्भ एक सर्वाधिक पवित्र पर्व है। करोड़ों महिलायें, पुरुष, आध्यात्मिक साधकगण और पर्यटक आस्था एवं विश्वास की दृष्टि से शामिल होते हैं। यह विद्वानों के लिये शोध का विषय है कि कब कुंभ के बारे में जनश्रुति आरम्भ हुई थी और इसने श्रद्धालुओं को आकर्षित करना आरम्भ किया किन्तु यह एक स्थापित सत्य है कि प्रयाग कुम्भ का केन्द्र बिन्दु रहा है और ऐसे विस्तृत पटल पर एक घटना एक दिन में घटित नहीं होती है बल्कि धीरे-धीरे एक कालावधि में विकसित होती है। ऐतिहासिक साक्ष्य कालनिर्धारण के रूप में राजा हर्षवर्धन का शासन काल (664 ईसा पूर्व) के प्रति संकेत करते हैं जब कुम्भ मेले को विभिन्न भौगोलिक स्थितियों के मध्य व्यापक मान्यता प्राप्त हो गयी थी। प्रसिद्ध यात्री ह्वेनसांग ने अपनी यात्रा वृत्तांत में कुम्भ मेले की महानता का उल्लेख किया है। यात्री का उल्लेख राजा हर्षवर्धन की दानवीरता का सार संक्षेपण भी करती है। राजा हर्ष रेत पर एक महान पंचवर्षीय सम्मेलन का आयोजन करते थे, जहां पवित्र नदियों का संगम होता है और अपनी सम्पत्ति कोष को सभी वर्गों के गरीब एवं धार्मिक लोगों में बाँट देते थे। इस व्यवहार का अनुसरण उनकी आने वाली पीढ़ियों द्वारा किया जाता रहा। प्रयागराज कुम्भ मेले को ज्ञान एवं प्रकाश के स्रोत के रूप में सभी कुम्भ पर्वों में व्यापक रूप से सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है।

एक बार फिर तीर्थराज प्रयाग में आस्था की डुबकी लगने वाली है। आस्था, विश्वास, सौहार्द एवं संस्कृतियों के मिलनसारिता के पर्व “कुम्भ” की तैयारियां पूरी हो चुकी हैं। अब प्रतीक्षा है श्रद्धालुओं की जो पुण्य कमाने यहां पहुंचने वाले हैं। ज्ञान, चेतना और उसका परस्पर मंथन कुम्भ मेले का वो आयाम है जो आदि काल से ही हिन्दू धर्मावलम्बियों की जागृत चेतना को बिना किसी आमन्त्रण के खींच कर ले आता है। यह कहा जा सकता है कि कुम्भ जैसा विशालतम मेला संस्कृतियों को एक सूत्र में बांधे रखने के लिए ही आयोजित होता है। इस बार 15 जनवरी 2019 से 04 मार्च 2019 तक यह अद्भुत आयोजन होने जा रहा है। मानव मात्र का कल्याण, सम्पूर्ण विश्व में सभी मानव प्रजाति के मध्य वसुधैव कुटुम्बकम के रूप में अच्छा सम्बन्ध बनाये रखने के साथ आदर्श विचारों एवं गूढ़ ज्ञान का आदान-प्रदान कुंभ का मूल तत्व और संदेश है जो कुंभ पर्व के दौरान प्रचलित है।
कुम्भ का शाब्दिक अर्थ है कलश और यहाँ ‘कलश’ का सम्बन्ध अमृत कलश से है। बात उस समय की है जब देवासुर संग्राम के बाद दोनों पक्ष समुद्र मंथन को राजी हुए थे। मथना था समुद्र तो मथनी और नेति भी उसी हिसाब की चाहिए थी। ऐसे में मंदराचल पर्वत मथनी बना और नाग वासुकी उसकी नेति। मंथन से चौदह रत्नों की प्राप्ति हुई जिन्हें परस्पर बाँट लिया गया परन्तु जब धन्वन्तरि ने अमृत कलश देवताओं को दे दिया तो फिर युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गई। तब भगवान् विष्णु ने स्वयं मोहिनी रूप धारण कर सबको अमृत-पान कराने की बात कही और अमृत कलश का दायित्व इंद्र-पुत्र जयंत को सौपा। अमृत-कलश को प्राप्त कर जब जयंत दानवों से अमृत की रक्षा हेतु भाग रहा था तभी इसी क्रम में अमृत की बूंदे पृथ्वी पर चार स्थानों पर गिरी-हरिद्वार, नासिक, उज्जैन और प्रयागराज। चूँकि विष्णु की आज्ञा से सूर्य, चन्द्र, शनि एवं बृहस्पति भी अमृत कलश की रक्षा कर रहे थे और विभिन्न राशियों (सिंह, कुम्भ एवं मेष) में विचरण के कारण ये सभी कुम्भ पर्व के द्योतक बन गये। इस प्रकार ग्रहों एवं राशियों की सहभागिता के कारण कुम्भ पर्व ज्योतिष का पर्व भी बन गया। जयंत को अमृत कलश को स्वर्ग ले जाने में 12 दिन का समय लगा था और माना जाता है कि देवताओं का एक दिन पृथ्वी के एक वर्ष के बराबर होता है। यही कारण है कि कालान्तर में वर्णित स्थानों पर ही ग्रह-राशियों के विशेष संयोग पर 12 वर्षों में कुम्भ मेले का आयोजन होता है।

ज्योतिष गणना के क्रम में कुम्भ का आयोजन चार प्रकार से माना गया है। बृहस्पति के कुम्भ राशि में तथा सूर्य के मेष राशि में प्रविष्ट होने पर हरिद्वार में गंगा-तट पर कुम्भ पर्व का आयोजन होता है। बृहस्पति के मेष राशि चक्र में प्रविष्ट होने तथा सूर्य और चन्द्र के मकर राशि में आने पर अमावस्या के दिन प्रयागराज में त्रिवेणी संगम तट पर कुम्भ पर्व का आयोजन होता है। बृहस्पति एवं सूर्य के सिंह राशि में प्रविष्ट होने पर नासिक में गोदावरी तट पर कुम्भ पर्व का आयोजन होता है। बृहस्पति के सिंह राशि में तथा सूर्य के मेष राशि में प्रविष्ट होने पर उज्जैन में शिप्रा तट पर कुम्भ पर्व का आयोजन होता है।

ज्योतिष गणना के क्रम में कुम्भ का आयोजन चार प्रकार से माना गया है। बृहस्पति के कुम्भ राशि में तथा सूर्य के मेष राशि में प्रविष्ट होने पर हरिद्वार में गंगा-तट पर कुम्भ पर्व का आयोजन होता है। बृहस्पति के मेष राशि चक्र में प्रविष्ट होने तथा सूर्य और चन्द्र के मकर राशि में आने पर अमावस्या के दिन प्रयागराज में त्रिवेणी संगम तट पर कुम्भ पर्व का आयोजन होता है। बृहस्पति एवं सूर्य के सिंह राशि में प्रविष्ट होने पर नासिक में गोदावरी तट पर कुम्भ पर्व का आयोजन होता है। बृहस्पति के सिंह राशि में तथा सूर्य के मेष राशि में प्रविष्ट होने पर उज्जैन में शिप्रा तट पर कुम्भ पर्व का आयोजन होता है। यह पर्व प्रकृति एवं जीव तत्व में सामंजस्य स्थापित कर उनमें जीवनदायी शक्तियों को समाविष्ट करता है। प्रकृति ही जीवन एवं मृत्यु का आधार है, ऐसे में प्रकृति से सामंजस्य अति-आवश्यक हो जाता है। कहा भी गया है ‘यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे’ अर्थात जो शरीर में है, वही ब्रह्माण्ड में है, इस लिए ब्रह्माण्ड की शक्तियों के साथ पिण्ड (शरीर) कैसे सामंजस्य स्थापित करे, उसे जीवनदायी शक्तियाँ कैसे मिले इसी रहस्य का पर्व है कुम्भ। कुम्भ मेलों के पीछे की कथा के अनुसार अमृत (अमरत्व का रस) का पवित्र कुंभ (कलश) पर सुर एवं असुरों में संघर्ष हुआ जिसे समुद्र मंथन के अंतिम रत्न के रूप में प्रस्तुत किया गया था। भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर अमृत जब्त कर लिया एवं असुरों से बचाव कर भागते समय भगवान विष्णु ने अमृत अपने वाहन गरुण को दे दिया, जारी संघर्ष में अमृत की कुछ बूंदे हरिद्वार, नासिक, उज्जैन और प्रयाग में गिरी। सम्बन्धित नदियों के प्रत्येक भूस्थैतिक गतिशीलता पर उस महत्वपूर्ण अमृत में बदल जाने का विश्वास किया जाता है जिससे तीर्थयात्री को पवित्रता, मांगलिकता और अमरत्व के भाव में स्नान करने का एक अवसर प्राप्त होता है। शब्द कुंभ पवित्र अमृत कलश से व्युत्पन्न हुआ है।

जिस समय अमृतपूर्ण कुम्भ को लेकर देवताओं एवं दैत्यों में संघर्ष हुआ उस समय चंद्रमा ने उस अमृत कुम्भ से अमृत के छलकने से रक्षा की और सूर्य ने उस अमृत कुम्भ के टूटने से रक्षा की। देवगुरू बृहस्पति ने दैत्यों से तथा शनि ने इंद्रपुत्र जयन्त से रक्षा की। इसी लिए उस देव दैत्य कलह में जिन-जिन स्थानों में (हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन, नासिक) जिस-जिस दिन सुधा कुम्भ छलका है उन्हीं-उन्हीं स्थलों में उन्हीं तिथियों में कुम्भपर्व होता है। इन देव दैत्यों का युद्ध सुधा कुम्भ को लेकर 12 दिन तक 12 स्थानों में चला और उन 12 स्थलों में सुधा कुम्भ से अमृत छलका जिनमें पूर्वोक्त चार स्थल मृत्युलोक में है शेष आठ इस मृत्युलोक में न होकर अन्य लोकों में (स्वर्ग आदि लोकों में) माने जाते हैं। 12 वर्ष के मान का देवताओं का बारह दिन होता है।

हिन्दू धर्मावलम्बी तीर्थयात्री के बीच कुम्भ एक सर्वाधिक पवित्र पर्व है। करोड़ों महिलायें, पुरुष, आध्यात्मिक साधकगण और पर्यटक आस्था एवं विश्वास की दृष्टि से शामिल होते हैं। यह विद्वानों के लिये शोध का विषय है कि कब कुंभ के बारे में जनश्रुति आरम्भ हुई थी और इसने श्रद्धालुओं को आकर्षित करना आरम्भ किया किन्तु यह एक स्थापित सत्य है कि प्रयाग कुम्भ का केन्द्र बिन्दु रहा है और ऐसे विस्तृत पटल पर एक घटना एक दिन में घटित नहीं होती है बल्कि धीरे-धीरे एक कालावधि में विकसित होती है। ऐतिहासिक साक्ष्य कालनिर्धारण के रूप में राजा हर्षवर्धन का शासन काल (664 ईसा पूर्व) के प्रति संकेत करते हैं जब कुंभ मेला को विभिन्न भौगोलिक स्थितियों के मध्य व्यापक मान्यता प्राप्त हो गयी थी। प्रसिद्ध यात्री ह्वेनसांग ने अपनी यात्रा वृत्तांत में कुंभ मेला की महानता का उल्लेख किया है। यात्री का उल्लेख राजा हर्षवर्धन की दानवीरता का सार संक्षेपण भी करती है। राजा हर्ष रेत पर एक महान पंचवर्षीय सम्मेलन का आयोजन करते थे, जहां पवित्र नदियों का संगम होता है और अपनी सम्पत्ति कोष को सभी वर्गों के गरीब एवं धार्मिक लोगों में बाँट देते थे। इस व्यवहार का अनुसरण उनकी आने वाली पीढ़ियों द्वारा किया जाता रहा। प्रयागराज में कुम्भ मेला को ज्ञान एवं प्रकाश के स्रोत के रूप में सभी कुम्भ पर्वों में व्यापक रूप से सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। सूर्य जो ज्ञान का प्रतीक है, इस त्योहार में उदित होता है। शास्त्रीय रूप से ब्रह्मा जी ने पवित्रतम नदी गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम पर दशाश्वमेघ घाट पर अश्वमेघ यज्ञ किया था और सृष्टि का सृजन किया था। कुम्भ का ज्योतिषीय महत्व भी कुछ कम नहीं है।

किसी उत्सव के आयोजन में अतिथियों को आमंत्रण प्रेषित किये जाने की आवश्यकता होती है, जबकि कुंभ विश्व में एक ऐसा पर्व है जहाँ कोई आमंत्रण अपेक्षित नहीं होता है तथापि करोड़ों तीर्थयात्री इस पवित्र पर्व को मनाने के लिये एकत्र होते हैं। प्राथमिक स्नान कर्म के अतिरिक्त पर्व का सामाजिक पक्ष विभिन्न यज्ञों, वेद मंत्रों का उच्चारण, प्रवचन, नृत्य, भक्ति भाव के गीतों, आध्यात्मिक कथानकों पर आधारित कार्यक्रमों, प्रार्थनाओं, धार्मिक सभाओं के चारो ओर घूमती हैं, जहाँ सिद्धांतों पर वाद-विवाद एवं विमर्श प्रसिद्ध संतों एवं साधुओं के द्वारा किया जाता है और मानकस्वरूप प्रदान किया जाता है। पर्व का एक महत्वपूर्ण भाग गरीबों एवं वंचितों को अन्न एवं वस्त्र का दान कर्म है और संतों को आध्यात्मिक भाव के साथ गाय एवं स्वर्ण दान किया जाता है।

कुम्भपर्व का मूलाधार पौराणिक आख्यानों से साथ-साथ खगोल विज्ञान ही है क्योंकि ग्रहों की विशेष स्थितियाँ ही कुम्भपर्व के काल का निर्धारण करती है। कुम्भपर्व एक ऐसा पर्व विशेष है जिसमें तिथि, ग्रह, मास आदि का अत्यन्त पवित्र योग होता है। कुम्भपर्व का योग सूर्य, चंद्रमा, गुरु और शनि के सम्बध में सुनिश्चित होता है। स्कन्द पुराण में लिखा गया है कि-
‘‘चन्द्र: प्रश्रवणाद्रक्षां सूर्यो विस्फोटनाद्दधौ। दैत्येभ्यश्र गुरु रक्षां सौरिर्देवेन्द्रजाद् भयात्।।
सूर्येन्दुगुरुसंयोगस्य यद्राशौ यत्र वत्सरे। सुधाकुम्भप्लवे भूमे कुम्भो भवति नान्यथा।।’’
अर्थात् जिस समय अमृतपूर्ण कुम्भ को लेकर देवताओं एवं दैत्यों में संघर्ष हुआ उस समय चंद्रमा ने उस अमृत कुम्भ से अमृत के छलकने से रक्षा की और सूर्य ने उस अमृत कुम्भ के टूटने से रक्षा की। देवगुरु बृहस्पति ने दैत्यों से तथा शनि ने इंद्रपुत्र जयन्त से रक्षा की। इसी लिए उस देव दैत्य कलह में जिन-जिन स्थानों में (हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन, नासिक) जिस-जिस दिन सुधा कुम्भ छलका है उन्हीं-उन्हीं स्थलों में उन्हीं तिथियों में कुम्भपर्व होता है। इन देव दैत्यों का युद्ध सुधा कुम्भ को लेकर 12 दिन तक 12 स्थानों में चला और उन 12 स्थलों में सुधा कुम्भ से अमृत छलका जिनमें पूर्वोक्त चार स्थल मृत्युलोक में है शेष आठ इस मृत्युलोक में न होकर अन्य लोकों में (स्वर्ग आदि लोकों में) माने जाते हैं। 12 वर्ष के मान का देवताओं का बारह दिन होता है। इसीलिए 12वें वर्ष ही सामान्यतया प्रत्येक स्थान में कुम्भपर्व की स्थिति बनती है। वृष राशि में गुरु मकर राशि में सूर्य तथा चंद्रमा माघ मास में अमावस्या के दिन कुम्भपर्व की स्थिति देखी गयी है।
कुम्भपर्वों का जो ग्रह योग प्राप्त होता है वह लगभग सभी जगह सामान्य रूप से बारहवें वर्ष प्राप्त होता है। परन्तु कभी-कभी ग्यारहवें वर्ष भी कुम्भपर्व की स्थिति देखी जाती है। यह विषय अत्यन्त विचारणीय हैं, सामान्यतया सूर्य चंद्र की स्थिति को प्रतिवर्ष चारों स्थलों में स्वत: बनती है। उसके लिए प्रयाग में कुम्भपर्व के समय वृष के गुरू रहते हैं जिनका स्वामी शुक्र है। शुक्रग्रह ऐश्वर्य भोग एवं स्नेह का सम्वर्धक है। गुरु ग्रह के इस राशि में स्थित होने से मानव के वैचारिक भावों में परम सात्विकता का संचार होता है जिससे स्नेह, भोग एवं ऐश्वर्य की सम्प्राप्ति के विचार में जो सात्विकता प्रवाहित होती है उससे उनके रजोगुणी दोष स्वत: विलीन होते हैं। तथैव मकर राशिगत सूर्य समस्त क्रियाओं में पटुता एवमेव मकर राशिस्थ चंद्र परम ऐश्वर्य को प्राप्त कराता है। फलत: ज्ञान एवं भक्ति की धारा स्वरूप गंगा एवं यमुना के इस पवित्र संगम क्षेत्र में चारो पुरुषार्थों की सिद्धि अल्पप्रयास में ही श्रद्धालु मानव के समीपस्थ दिखाई देती है। प्रत्येक ग्रह अपने-अपने राशि को एक सुनिश्चित समय में भोगता है जैसे सूर्य एक राशि को 30 दिन 26 घड़ी 17 पल 5 विपल का समय लेता है एवं चंद्रमा एक राशि का भाग लगभग 2.5 दिन में पूरा करता है तथैव बृहस्पति एक राशि का भोग 361 दिन 1 घड़ी 36 पल में करता है। स्थूल गणना के आधार पर वर्ष भर का काल बृहस्पति का मान लिया जाता है। किन्तु सौर वर्ष के अनुसार एक वर्ष में चार दिन 13 घड़ी एवं 55 पल का अन्तर बार्हस्पत्य वर्ष से होता है जो 12 वर्ष में 50 दिन 47 घड़ी का अन्तर पड़ता है और यही 84 वर्षों में 355 दिन 29 घड़ी का अन्तर बन जाता है। इसीलिए 50वें वर्ष जब कुम्भपर्व आता है तब वह 11वें वर्ष ही पड़ जाता है।

पद्म पुराण में महर्षि दत्तात्रेय ने कल्पवास की पूर्ण व्यवस्था का वर्णन किया है। उनके अनुसार कल्पवासी को इक्कीस नियमों का पालन करना चाहिए। ये नियम हैं-सत्यवचन, अहिंसा, इन्द्रियों का शमन, सभी प्राणियों पर दयाभाव, ब्रह्मचर्य का पालन, व्यसनों का त्याग, सूर्योदय से पूर्व शैय्या-त्याग, नित्य तीन बार सुरसरि-स्नान, त्रिकालसंध्या, पितरों का पिण्डदान, यथा-शक्ति दान, अन्तर्मुखी जप, सत्संग, क्षेत्र संन्यास अर्थात संकल्पित क्षेत्र के बाहर न जाना, परनिन्दा त्याग, साधु संयासियों की सेवा, जप एवं संकीर्तन, एक समय भोजन, भूमि शयन, अग्नि सेवन न करना। जिनमें से ब्रह्मचर्य, व्रत एवं उपवास, देव पूजन, सत्संग, दान का विशेष महत्व है। व्रत एवं उपवास कल्पवास का अति महत्वपूर्ण अंग हैं।

किसी उत्सव के आयोजन में अतिथियों को आमंत्रण प्रेषित किये जाने की आवश्यकता होती है, जबकि कुंभ विश्व में एक ऐसा पर्व है जहाँ कोई आमंत्रण अपेक्षित नहीं होता है तथापि करोड़ों तीर्थयात्री इस पवित्र पर्व को मनाने के लिये एकत्र होते हैं। प्राथमिक स्नान कर्म के अतिरिक्त पर्व का सामाजिक पक्ष विभिन्न यज्ञों, वेद मंत्रों का उच्चारण, प्रवचन, नृत्य, भक्ति भाव के गीतों, आध्यात्मिक कथानकों पर आधारित कार्यक्रमों, प्रार्थनाओं, धार्मिक सभाओं के चारो ओर धूमती हैं, जहाँ सिद्धांतों पर वाद-विवाद एवं विमर्श प्रसिद्ध संतों एवं साधुओं के द्वारा किया जाता है और मानकस्वरूप प्रदान किया जाता है। पर्व का एक महत्वपूर्ण भाग गरीबों एवं वंचितों को अन्न एवं वस्त्र का दान कर्म है और संतों को आध्यात्मिक भाव के साथ गाय एवं स्वर्ण दान किया जाता है।
कुम्भ के दौरान जुटने वाले श्रद्धालु कई कर्मकाण्डों को सम्पादित करते हैं। इसमें स्नान, आरती, कल्पवास, व्रत, दान, सत्संग, श्राद्ध, दीपदान आदि शामिल हैं। मुख्यरूप से सबसे अधिक चर्चा कल्पवास की होती है। वास्तव में कुम्भ मेले के दौरान संगम तट पर कल्पवास का विशेष महत्व है। पद्म पुराण एवं ब्रह्म पुराण के अनुसार कल्पवास की अवधि पौष मास के शुक्लपक्ष की एकादशी से प्रारंभ होकर माघ मास की एकादशी तक है। पद्म पुराण में महर्षि दत्तात्रेय ने कल्पवास की पूर्ण व्यवस्था का वर्णन किया है। उनके अनुसार कल्पवासी को इक्कीस नियमों का पालन करना चाहिए। ये नियम हैं-सत्यवचन, अहिंसा, इन्द्रियों का शमन, सभी प्राणियों पर दयाभाव, ब्रह्मचर्य का पालन, व्यसनों का त्याग, सूर्योदय से पूर्व शैय्या-त्याग, नित्य तीन बार सुरसरि-स्नान, त्रिकालसंध्या, पितरों का पिण्डदान, यथा-शक्ति दान, अन्तर्मुखी जप, सत्संग, क्षेत्र संन्यास अर्थात संकल्पित क्षेत्र के बाहर न जाना, परनिन्दा त्याग, साधु संयासियों की सेवा, जप एवं संकीर्तन, एक समय भोजन, भूमि शयन, अग्नि सेवन न करना। जिनमें से ब्रह्मचर्य, व्रत एवं उपवास, देव पूजन, सत्संग, दान का विशेष महत्व है। व्रत एवं उपवास कल्पवास का अति महत्वपूर्ण अंग हैं, कुम्भ के दौरान विशेष दिनों पर व्रत रखने का विधान किया गया है। व्रतों को दो कोटियों में विभाजित किया गया है। ‘नित्य एवं काम्य’ नित्य व्रत से तात्पर्य बिना किसी अभिलाषा के ईश्वर प्रेम में किये व्रतों से है, जिसकी प्रेरणा अध्यात्मिक उत्थान पे होती है। वहीं काम्य व्रत किसी अभीष्ट फल की प्राप्ति के लिए किये गये व्रत होते हैं। व्रत के दौरान धर्म के दसों अंगों का पूर्ण पालन किया जाना आवश्यक होता है। मनु के अनुसार ये दस धर्म हैं- धैर्य, क्षमा, स्वार्थपरता का त्याग, चोरी न करना, शारीरिक पवित्रता, इन्द्रियनिग्रह, बुद्धिमता, विद्या, सत्य वाचन एवं अहिंसा।

अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद् ही आपस में परामर्श कर पेशवाई के जुलूस और शाही स्नान के लिए तिथियों और समय का निर्धारण मेला आयोजन समिति, आयुक्त, जिलाधिकारी, मेलाधिकारी के साथ मिलकर करता है। आज इन अखाड़ों को बहुत ही श्रद्धा-भाव से देखा जाता है। सनातन धर्म की पताका हाथ में लिए यह अखाड़े धर्म का आलोक चहुँओर फैला रहे हैं। इनके प्रति आम जन-मानस में श्रद्धा का भाव शाही स्नान के अवसर पर देखा जा सकता है, जब वे जुलूस मार्ग के दोनों ओर इनके दर्शनार्थ एकत्र होते हैं तथा अत्यंत श्रद्धा से इनकी चरण-रज लेने का प्रयास करते हैं।

कुम्भ की चर्चा जब भी होती है तो कल्पवास के बाद ‘अखाड़ा’ शब्द लगभग सभी की जिव्हा पर रहता है। अखाड़ा शब्द को सुनते ही जो दृश्य मानस पटल पर उतरता है वह मल्ल युद्ध का है। किन्तु यहां भाव शब्द की अन्वति और वास्तविक अर्थ से संबोधित है। ‘अखाड़ा’ शब्द ‘अखण्ड’ शब्द का अपभ्रंश है जिसका अर्थ न विभाजित होने वाला है। आदि गुरु शंकराचार्य ने सनातन धर्म की रक्षा हेतु साधुओं के संघों को मिलाने का प्रयास किया था, उसी प्रयास के फलस्वरूप सनातन धर्म की रक्षा एवं मजबूती बनाये रखने एवं विभिन्न परम्पराओं व विश्वासों का अभ्यास करने वालों को एकजुट करने तथा धार्मिक परम्पराओं को अक्षुण रखने के लिए विभिन्न अखाड़ों की स्थापना हुई। अखाड़ों से सम्बन्धित साधु-सन्तों की विशेषता यह होती है कि इनके सदस्य शास्त्र और शस्त्र दोनों में पारंगत होते हैं। अखाड़ा सामाजिक व्यवस्था, एकता और संस्कृति तथा नैतिकता का प्रतीक है। समाज में आध्यात्मिक महत्व मूल्यों की स्थापना करना ही अखाड़ों का मुख्य उद्देश्य है। अखाड़ा मठों की सबसे बड़ी जिम्मेदारी सामाजिक जीवन में नैतिक मूल्यों की स्थापना करना है, इसीलिए धर्म गुरुओं के चयन के समय यह ध्यान रखा जाता था कि उनका जीवन सदाचार, संयम, परोपकार, कर्मठता, दूरदर्शिता तथा धर्ममय हो। भारतीय संस्कृति एवं एकता इन्हीं अखाड़ों के बल पर जीवित है। अलग-अलग संगठनों में विभक्त होते हुए भी अखाडे़ एकता के प्रतीक हैं। अखाड़ा मठों का एक विशिष्ट प्रकार नागा संन्यासियों का एक विशेष संगठन है। प्रत्येक नागा संन्यासी किसी न किसी अखाड़े से सम्बन्धित रहते हैं। ये संन्यासी जहाँ एक ओर शास्त्र पारंगत थे वहीं दूसरी ओर शस्त्र चलाने का भी इन्हें अनुभव था। वर्तमान में अखाड़ों को उनके ईष्ट-देव के आधार पर निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-शैव अखाड़े इस श्रेणी के ईष्ट भगवान शिव हैं। ये शिव के विभिन्न स्वरूपों की आराधना अपनी-अपनी मान्यताओं के आधार पर करते हैं। वैष्णव अखाड़े इस श्रेणी के इष्ट भगवान विष्णु हैं। ये विष्णु के विभिन्न स्वरूपों की आराधना अपनी-अपनी मान्यताओं के आधार पर करते हैं। उदासीन अखाड़ा सिक्ख सम्प्रदाय के आदि गुरु श्री नानकदेव के पुत्र श्री चंद्रदेव जी को उदासीन मत का प्रवर्तक माना जाता है। इस पन्थ के अनुयाई मुख्यत: प्रणव अथवा ‘ॐ’ की उपासना करते हैं। अखाड़ों की व्यवस्था एवं संचालन हेतु पाँच लोगों की एक समिति होती है जो ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश व शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है। अखाड़ों में संख्या के हिसाब से सबसे बड़ा जूना अखाड़ा है इसके बाद निरज्ञानी और तत्पश्चात् महानिर्वाणी अखाड़ा है। उनके अध्यक्ष श्री महंत तथा अखाड़ों के प्रमुख आचार्य महामण्डेलेश्वर के रूप में माने जाते हैं। महामण्डलेश्वर ही अखाड़े में आने वाले साधुओं को गुरु मन्त्र भी देते हैं। पेशवाई या शाही स्नान के समय में निकलने वाले जुलूस में आचार्य महामण्डलेश्वर और श्रीमहंत रथों पर आरूढ़ होते हैं, उनके सचिव हाथी पर, घुड़सवार नागा अपने घोड़ों पर तथा अन्य साधु पैदल आगे रहते हैं। शाही ठाट-बाट के साथ अपनी कला प्रदर्शन करते हुए साधु-सन्त अपने लाव-लश्कर के साथ अपने-अपने गन्तव्य को पहुँचते हैं। अखाड़ों में आपसी सामंजस्य बनाने एवं आंतरिक विवादों को सुलझाने के लिए अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद् का गठन किया गया है।
अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद् ही आपस में परामर्श कर पेशवाई के जुलूस और शाही स्नान के लिए तिथियों और समय का निर्धारण मेला आयोजन समिति, आयुक्त, जिलाधिकारी, मेलाधिकारी के साथ मिलकर करता है। आज इन अखाड़ों को बहुत ही श्रद्धा-भाव से देखा जाता है। सनातन धर्म की पताका हाथ में लिए यह अखाड़े धर्म का आलोक चहुँओर फैला रहे हैं। इनके प्रति आम जन-मानस में श्रद्धा का भाव शाही स्नान के अवसर पर देखा जा सकता है, जब वे जुलूस मार्ग के दोनों ओर इनके दर्शनार्थ एकत्र होते हैं तथा अत्यंत श्रद्धा से इनकी चरण-रज लेने का प्रयास करते हैं।

रामकुमार सिंह

 

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