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समर्थन वापसी बनाम 2019 की तैयारी

जितेन्द्र शुक्ल ‘देवव्रत’

जम्मू-कश्मीर में वही हुआ जिसकी कि उम्मीद थी। आखिरकार बेमेल गठबंधन टूट गया और भारतीय जनता पार्टी ने पीडीपी से समर्थन वापस ले लिया। जिसके बाद मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को इस्तीफा देना पड़ा। दो विपरीत विचारधाराओं वाले दलों ने साथ रहकर तीन साल तक शासन चलाया। जब सरकार चल रही थी तो दिल्ली में बैठी भाजपा सरकार बार-बार यह कहकर अपनी पीठ ठोंकती थी कि कश्मीर में हालात ना सिर्फ काबू में हैं बल्कि दिन प्रति दिन बेहतर हो रहे हैं। लेकिन सरकार से समर्थन लेते समय जो दलील दी गयी वह पूर्व के किए गए दावों से ठीक उलट थी। कहा गया, कश्मीर में स्थितियां ठीक नहीं थीं। मुख्यमंत्री अपनी ही मर्जी से काम कर रही थीं और भाजपा और केन्द्र की भी अनदेखी कर रही थीं। एक सर्जिकल स्ट्राइक कर अपना गुणगान करने वाली केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार को साफ दिख रहा था कि कश्मीर के हालात सुधर नहीं रहे हैं और अब तो उसे 2019 की चुनौती का भी सामना करना था। ऐसे में राजनीति की बिसात पर एक दांव खेला गया और समर्थन वापस ले लिया गया। भाजपा ने ‘व्यापक राष्ट्रहित’ एवं सुरक्षा के मोर्चे पर राज्य में बिगड़ते हालात का हवाला देकर अपने फैसले को जायज भी ठहराया। अब जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल शासन है।


घाटी में लगातार बढ़ रही आतंकी घटनायें और पत्थरबाजी से पूरे देश में भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की छवि लगातार धूमिल होती जा रहा थी। अकेले इस साल जम्मू-कश्मीर में आतंकी घटनाएं मध्य अप्रैल से लगातार बढ़ती गईं। 17 मई से 16 जून के बीच यह आंकड़ा 73 पर पहुंच गया। इस दौरान मारे गए आतंकियों की संख्या 14 से 22 हो गई। जुलाई 2016 में आतंकी बुरहान वानी के मारे जाने के बाद हिंसा का एक नया दौर चला और लगातार परवान चढ़ता गया। सुरक्षाबलों के खिलाफ पत्थरबाजी की घटनाओं ने स्थिति को और गंभीर किया। कठुआ में हुई दुष्कर्म की एक घटना से भी हालात बिगड़े। संघर्ष विराम के दौरान भी लगातार इसका उल्लंघन हुआ। 2016 में आतंकी घटनाएं 449 थीं। 2017 में बढ़कर 971 हो गईं। जबकि इस वर्ष बीते छह महीने का आंकड़ा 633 है। जिसके बाद अब सरकार से अलग होने और हालात काबू करने के लिए राज्यपाल शासन जरूरी हो गया था। हाल में ईद की पूर्व संध्या पर जाने-माने पत्रकार-संपादक शुजात बुखारी और सेना के जवान औरंगजेब की हत्या ने इस फैसले के लिए ताबूत में अंतिम कील का काम किया होगा। अब राज्यपाल शासन में सुरक्षाबल जम्मू-कश्मीर में हालात सामान्य करने के लिए खुलेहाथ अपने अभियानों को अंजाम देंगे।


यह भी सत्य है कि जम्मू-कश्मीर में पीडीपी-बीजेपी गठंबधन टूटने का असर राज्य और राष्ट्र, दोनों की राजनीति पर पड़ेगा। दरअसल भाजपा का आकलन था कि जम्मू में उसकी पकड़ कमजोर हो रही है। भाजपा की स्थानीय इकाई भी इस सरकार के बनने के बाद सहज महसूस नहीं कर रही थी। हालांकि भाजपा ने समर्थन वापस लेते समय जो कहा उससे यह संदेश देने का प्रयास किया कि जम्मू-कश्मीर में राज्य सरकार नहीं बल्कि पीडीपी फेल हुई। लेकिन वास्तव में असफलता गठबंधन सरकार की थी। यदि किसी अच्छे कार्य का श्रेय के लिए पीडीपी-बीजेपी बराबर के भागीदार थे तो फिर विफलता में भी बंटवारा बराबर का ही होना चाहिए। सरकार चलाते समय दोनों ही दलों के विचारों में कभी भी किसी भी मसले पर एकरूपता नहीं रही। रमजान के दौरान केन्द्र सरकार द्वारा सीजफायर किया गया था। लेकिन सीजफायर को लेकर दोनों पार्टियों में मतभेद थे। महबूबा मुफ्ती चाहती थी कि सीजफायर को आगे बढ़ाया जाए। सीजफायर के दौरान पत्थरबाजी की घटनाएं भी कम हुईं। लेकिन सीमापार से इसका उल्लंघन जमकर हुआ। घुसपैठ में भी कमी नहीं आयी। ऐसे में सीजफायर को लेकर कश्मीर के बाहर भी भाजपा के फैसले की आलोचना हुई। एक कार्यक्रम के दौरान तो किसी ने गृहमंत्री राजनाथ सिंह से यह सवाल तक कर डाला कि जब आतंकवाद और आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता तब फिर रमजान की दलील देकर सीजफायर क्यों किया गया लेकिन इसका उत्तर उनके पास नहीं था।


ये प्रयोग शुरू हुआ था साल 2014 के अंतिम दिनों में, जब जम्मू कश्मीर ने किसी एक दल को सत्ता की चाबी नहीं दी। पीडीपी को 28 सीटें मिलीं, भाजपा को 25, नेशनल कॉन्फ्रेंस को 15 और कांग्रेस 12 तक पहुंच सकी। साफ था कि 44 के जादुई आंकड़े तक पहुंचने के लिए दो का हाथ मिलाना जरूरी हो गया। उसके बाद पीडीपी और भाजपा ने हाथ मिलाने का फैसला किया। विरोधियों ने इसे बिन तालमेल की शादी बताया और इस दोस्ती का समर्थन करने वालों ने कहा कि ये जम्मू कश्मीर के लिए बड़ा दिन है, जब दो अलग-अलग किनारे पर खड़े दल हाथ मिला रहे हैं। लेकिन साल 2015 में बनी साझा सरकार के साथ शुरू हुआ ये प्रयोग आखिरकार बिखर गया। वास्तव यह गठबंधन स्वाभाविक था ही नहीं। महबूबा मुफ्ती के पिता मुफ्ती मुहम्मद सईद ने फिर भी ये गठबंधन किया क्योंकि केंद्र में मजबूत सरकार बनाने वाली पार्टी के साथ हाथ मिला रहे थे। घाटी में लोग इस बात से पीडीपी से नाराज थे कि उसने भाजपा से हाथ मिलाया और जम्मू में लोग इस बात से नाखुश थे कि भाजपा ने सरकार बनाने के लिए पीडीपी का साथ दिया। सरकार बनने के बाद घाटी में पीडीपी अपनी पकड़ बनाने को बेताब थी तो वहीं जम्मू में भाजपा अपनी और गहरी पैठ बनाने में जुट गयी थी। लेकिन अब जबकि गठबंधन टूट चुका है तो यह जानना जरुरी हो गया है कि गठबंधन तोड़ने का फैसला अब क्यों लिया गया और इस फैसले से किसे फायदा होगा, किसे नुकसान होगा? गठबंधन तोड़ने का फायदा सीधे-सीधे भाजपा को हो सकता है। भाजपा इसे चुनावी रणनीति की तरह इस्तेमाल कर सकती है। वो न केवल जम्मू-कश्मीर, बल्कि देश के दूसरे हिस्से में भी इस फैसले से फायदा लेने की कोशिश करेगी। उधर, फिलहाल तो हालात को देखते हुए यह साफ है कि अभी जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव होने से रहे क्योंकि पिछले साल दो सीटों पर उपचुनाव हुए, जिनमें से एक पर वोट प्रतिशत 5 प्रतिशत रहा और दूसरी सीट पर चुनाव ही नहीं हो सका था।
दरअसल, जम्मू-कश्मीर समस्या अगस्त अक्टूबर 1947 से शुरू हुई और यह हर गुजरते वर्ष के साथ उलझती गई। भारत और पाकिस्तान के साथ ही चीन भी तब इस विवाद का हिस्सा बन गया जब पाकिस्तान ने अवैध रूप से कब्जाए गए कश्मीर के कुछ हिस्से को 1963 में चीन को सौंप दिया। 1990 के प्रारंभ में स्थानीय हिंदू समुदाय के जबरन निष्कासन और कट्टर मजहबी तत्वों के प्रवेश के बाद आतंकवाद ने वीभत्स निर्मम रूप धारण कर लिया। इस दौरान कई बार यह महसूस हुआ कि भारत सरकार के पास कोई ठोस कश्मीर नीति है ही नहीं। यह वजह है कि जम्मू-कश्मीर में इस बार आठवीं बार राज्यपाल शासन लगा है। जबकि जून 2008 में एनएन वोहरा के पद संभालने के बाद यह चौथी बार है।
वास्तव में दिल्ली में बैठी अब तक की कई सरकारों द्वारा की गयी गलतियों से कश्मीर मामले में दो कदम आगे चार कदम पीछे वाली स्थिति कायम रही। जरूरत इस बात की है कि कश्मीर की समस्या को माना क्या जाये, यह ‘बुलेट’ से सुलझेगी या फिर ‘बैलेट’ से। एनडीए-1 की वाजपेयी सरकार ने विपरीत परिस्थितियों के बावजूद कश्मीर में कई बार महत्वपूर्ण राजनीतिक पहलकदमी की। यहां तक कि कश्मीरी अलगाववादियों से भी कई दौर की बातचीत की। यूपीए सरकार के कार्यकाल में भी कश्मीर मामले में सरकार को बड़ी कामयाबी मिली। आतंकी घटनाओं में कमी आई थी। नागरिकों एवं सुरक्षा बलों पर हमले में भारी कमी दर्ज हुई थी। यहां तक कि उतार-चढ़ाव के बीच भारत-पाक रिश्तों में अपेक्षाकृत सुधार दिखा। लेकिन साल 2014 में नई सरकार आने के बाद कश्मीर के हालात क्रमश: बिगड़ने लगे। 8 जुलाई 2017 को हिजबुल के कथित कमांडर बुरहान वानी के सुरक्षा बलों द्वारा मारे जाने के बाद घाटी में अचानक जनाक्रोश फूट पड़ा, जो लम्बे समय तक जारी रहा। कश्मीर के बाहर भारत के अन्य राज्यों में कानून व्यवस्था और विकास मुद्दा हो सकता है लेकिन कश्मीर में इसके ठीक उलट अशांति, आतंक, उग्रवाद और अलगाववाद के पीछे असल मसला राजनीतिक है, कानून व्यवस्था और विकास नहीं। विशेषज्ञों का मानना है कि मौजूदा सरकार शुरू से ही कश्मीर मसले को कानून व्यवस्था का मसला समझने की भूलकर रही है। सरकार को अतीत के अनुभवों से सबक लेना चाहिए। वास्तव में कश्मीर का मसला बुनियादी तौर पर राजनीतिक है और इसका समाधान भी राजनीतिक तरीके से ही संभव होगा। यूपीए-1 के दौर में बने पांच विशेष कार्यसमूह हों या बाद की तीन सदस्यीय दिलीप पडगांवकर कमेटी, सबने इस बात की पुष्टि की। यहां तक कि वाजपेयी दौर के सभी प्रमुख सलाहकारों की भी यही सिफारिशें थीं। भारतीय सेना के अधिकारियों का भी मानना है कि कश्मीर की समस्या बुनियादी तौर पर राजनीतिक है, कानून व्यवस्था की नहीं।
अब इस सबसे इतर भाजपा सारे घटनाक्रम से आगामी चुनावों में देश को यह संदेश देने से नहीं चूकेगी कि उनकी सरकार मुस्लिम चरमपंथियों के खिलाफ कार्रवाई कर रही है। इससे वह पूरा लाभ लेने की कोशिश करेगी क्योंकि भाजपा को हमेशा साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण से सफलता मिली है। वहीं विपक्षी दलों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि वे कौन सी रणनीति अपनायें जिससे भाजपा की काट की जा सके।

जब-जब लगा राज्यपाल शासन

पहली बार: 26 मार्च 1977 से 9 जुलाई 1977 तक। 105 दिनों के लिए।

दूसरी बार: 6 मार्च 1986 से 7 नवंबर 1986 तक। 246 दिनों के लिए।

तीसरी बार: 19 जनवरी 1990 से 9 अक्तूबर 1996 तक। छह साल 264 दिनों के लिए।

चौथी बार: 18 अक्तूबर 2002 से 2 नवंबर 2002 तक। 15 दिनों के लिए।

पांचवी बार: 11 जुलाई 2008 से 5 जनवरी 2009 तक। 178 दिनों के लिए।

छठी बार: 9 जनवरी 2015 से 1 मार्च 2015 तक। 51 दिनों के लिए।

सातवीं बार: 8 जनवरी 2016 से 4 अप्रैल 2016 तक। 87 दिनों के लिए।

आठवीं बार: 19 जून 2018 से अब तक।

राष्ट्रपति शासन नहीं राज्यपाल शासन, क्यों?

जम्मू-कश्मीर में भाजपा-पीडीपी गठबंधन टूटने के बाद राज्यपाल शासन लगा दिया गया है। पिछले 40 सालों में आठवीं बार राज्य में राज्यपाल शासन लगाया गया है। वर्तमान राज्यपाल एन एन वोहरा के कार्यकाल में यह चौथा मौका है जब राज्य में राज्यपाल शासन लगाया गया है। पूर्व नौकरशाह वोहरा 25 जून 2008 को जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल बने थे। देश के अन्य सभी राज्यों में राजनीतिक दलों के सरकार नहीं बना पाने या राज्य सरकारों के विफल होने की स्थिति में राष्ट्रपति शासन लगाया जाता है जबकि जम्मू-कश्मीर में मामला थोड़ा अलग है। यहां राष्ट्रपति शासन नहीं बल्कि राज्यपाल शासन लगाया जाता है। जम्मू-कश्मीर के संविधान के अनुच्छेद 92 के तहत राज्य में छह महीने के लिए राज्यपाल शासन लागू किया जाता है, हालांकि देश के राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद ही ऐसा किया जा सकता है।
भारत के संविधान में जम्मू-कश्मीर को अनुच्छेद 370 के तहत विशेष दर्जा प्राप्त है। यह देश का एकमात्र राज्य है जिसके पास अपना खुद का संविधान और अधिनियम हैं। देश के अन्य राज्यों में राष्ट्रपति शासन संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत लगाया जाता है। जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति से मंजूरी मिलने के बाद छह महीने तक राज्यपाल शासन लगाया जाता है। इस दौरान विधानसभा या तो निलंबित रहती है या इसे भंग कर दिया जाता है। अगर इन छह महीनों के भीतर राज्य में संवैधानिक तंत्र बहाल नहीं हो जाता, तब राज्यपाल शासन की समय सीमा को फिर बढ़ा दिया जाता है। जम्मू-कश्मीर में पहली बार 1977 में राज्यपाल शासन लगाया गया था। तब कांग्रेस ने शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नेशनल कांफ्रेंस से अपना समर्थन वापल ले लिया था। यह भी एक तथ्य है कि आजादी के समय जम्मू-कश्मीर भारत में शामिल नहीं था। उसके सामने विकल्प थे कि वो पाकिस्तान में शामिल हो जाए या हिंदुस्तान में। लेकिन राज्य के अंतिम शासक महाराज हरिसिंह का झुकाव भारत की तरफ था। उन्होंने भारत के साथ ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ ऐक्सेशन’ दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए और इसके बाद जम्मू-कश्मीर को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत विशेष दर्जा दिया गया। जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के बाद वहां मुख्यमंत्री की बजाय प्रधानमंत्री और राज्यपाल की जगह सदर-ए-रियासत होता था और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को वहां का प्रधानमंत्री बनवा दिया। यह सिलसिला 1965 तक चला। तब धारा 370 में बदलाव किए गए और इसके बाद से यहां भी देश के अन्य राज्यों की तरह राज्यपाल और मुख्यमंत्री होने लगे। वहीं केंद्र सरकार जम्मू-कश्मीर में केवल रक्षा, विदेश नीति, वित्त और संचार के मामलों में ही दखल दे सकती है। ल्ल

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