समुचित उपाय से ही बच पायेगें कुपोषित बच्चे
हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश से कुपोषण खत्म करने के लिए एक उच्चस्तरीय बैठक की है। बैठक का उद्देश्य 2022 तक इस समस्या का प्रभावी हल ढूंढऩा था। बैठक में प्रधानमंत्री ने इस बात पर जोर दिया कि साल 2022 तक इन प्रयासों के परिणाम धरातल पर स्पष्ट नजर आने चाहिए। बैठक से यह जाहिर हो गया कि यह समस्या प्रधानमंत्री की नजरों में है और वे इसके निदान के लिए समुचित प्रयास करना चाहते है। इस बैठक में प्रधानमंत्री कार्यलय के अलावा नीति आयोग सहित अन्य मंत्रालयों के अधिकारी भी शामिल हुये थे।
जिस समाज में हर साल तीन लाख बच्चे एक दिन भी जिंदा नहीं रह पाते और करीब सवा लाख माताएं हर साल प्रसव के दौरान मर जाती हैं, उस समाज की दशा का अंदाजा लगाया जा सकता है। जब देश में आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं की कोई कमी नहीं है, तब ऐसा होना शर्मनाक ही नहीं एक घृणित अपराध है। कुपोषण के मामले में भारत दक्षिण एशिया का अग्रणी देश बन गया है। भारत की बढ़ती जनसंख्या संख्या में बच्चे कुपोषण के कारण मर जाते हैं। यहां के कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जहां कुपोषण एक तरह से जीवन का हिस्सा बन गया है। इस क्षेत्र के बच्चे या अन्य क्षेत्रों के कुपाषित बच्चे अगर बच भी जाते हैं, तो उपयुक्त पोषण न मिल पाने के कारण उनके शरीर और दिमाग को काफी हानि पहुंच चुकी होती है। 5 वर्ष से कम उम्र के लगभग 4 करोड़ 40 लाख बच्चों का विकास कुपोषण के कारण अवरूद्ध हो जाता है। वे पढ़ाई नहीं कर पाते और जल्दी ही जीविकोपार्जन में लग जाते हैं। भारत सरकार की एजेंसी राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के ताजा आंकड़ों के अनुसार देश में कुल 93.4 लाख बच्चे गंभीर रूप से कुपोषण के शिकार हैं। स्वास्थ्य राज्य मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते ने अप्रैल माह में राज्यसभा में अपने लिखित जवाब में बताया था कि देशभर के 25 राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों में कुल मिलाकर 966 पोषण पुनर्वास केंद्र हैं। उन्होंने साल 2015-16 में 93.4 लाख कुपोषित बच्चों में से 10 प्रतिशत को चिकित्सा सम्बंधी जटिलताओं के वजह से पोषण पुनर्वास केंद्र में भर्ती की जरूरत पड़ सकती है। उन्होंने राज्यसभा में यह भी बताया था कि 2015-16 में लगभग 1,72,902 बच्चों को पोषण पुनर्वास केंद्र में भर्ती कराया गया था। उनमें से 92,760 सफलतापूर्वक बचाया गया था। फग्गन सिंह ने बताया राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत पोषण पुनर्वास केंद्र की स्थापना सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में की गई है, ताकि गंभीर रूप से कुपोषण से ग्रस्त और चिकित्सीय जटिलताओं वाले बच्चों के इलाज और प्रबंधन के लिए उन्हें भर्ती कराया जा सके।
हाल ही में जारी ‘‘द ग्लोबल न्यूट्रीशन रिपोर्ट 2017’ में 140 देशों की खाद्य पोषण की स्थिति का अध्ययन किया गया है। रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में मां बनने योग्य 50 प्रतिशत महिलाएं स्वयं अल्प पोषित हैं और खून की कमी से ग्रस्त हैं। बच्चों को कुपोषण की समस्या तब से प्रभावित करना शुरू करती है, जब वे मां के गर्भ में होते हैं। मां के कमजोर और एनिमिक होने के कारण गर्भस्थ शिशु को पर्याप्त खुराक नहीं मिल पाती। इससे उसके अंगों का विकास बाधित होता है और वह कमजोर, अल्पविकसित या कम वजन वाले शिशु के रूप में पैदा होता है। वह समय से पहले पैदा हो सकता है। ऐसे बच्चे बहुत जल्दी बीमारियों के शिकार बन जाते हैं या उनका मुकाबला नहीं कर पाते। एक रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के 2015-16 आकड़ों में कहा गया है कि बिहार में छह से 23 महीने के 10 में से 9 बच्चों को पर्याप्त मात्रा में पोषण नहीं मिल पाता है। केन्द्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की देख-रेख में हुए सर्वे में पता चला है कि बिहार में सिर्फ 7.5 प्रतिशत बच्चों को ही पर्याप्त आहार और पोषण मिल पाता है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के आंकड़ों पर आधारित गैर सरकारी संगठन चाइल्ड राइट एंड यू क्राय के अध्ययन में पता चला है कि उत्तर प्रदेश में भी 10 में से 9 बच्चों को पर्याप्त आहार और पोषण नहीं मिलता। राज्य में महज 5.3 प्रतिशत बच्चों को ही पर्याप्त आहार और पोषण मिल पाता है। यह आंकड़ा पूरे देश में सबसे कम है। अध्ययन में यह बात भी सामने आई है कि उत्तर प्रदेश में जन्म के पहले घंटे में चार में से तीन बच्चों को मां का दूध नहीं मिल पाता। राज्य में जन्म लेने वाले छह से 59 महीनों के दो तिहाई बच्चे एनीमिया के शिकार होते हैं।
यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुपोषण के कारण पांच साल से कम उम्र के करीब दस लाख बच्चों की हर साल मौत हो जाती है। सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि कुपोषण को चिकित्सीय आपातकाल करार दिया जाए क्योंकि ये आंकड़े अति कुपोषण के लिए आपातकालीन सीमा से ऊपर हैं। कुपोषण की समस्या हल करने के लिए नीति बनाने और उसके क्रियान्वयन के लिए पर्याप्त बजट की आवश्यकता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि कुपोषण के शिकार बच्चों की संख्या भारत में दक्षिण एशिया के देशों से बहुत ज्यादा है। भारत में अनुसूचित जनजाति 28 फीसदी, अनुसूचित जाति 21 फीसदी, अन्य पिछड़ा वर्ग 20 फीसदी और ग्रामीण समुदायों 21 फीसदी में कुपोषण के सर्वाधिक मामले पाए जाते हैं। राजस्थान के बारां और मध्यप्रदेश के बुरहानपुर में एक नए अध्ययन से पता चला है कि देश के गरीब इलाकों में बच्चे ऐसी मौतों का शिकार होते हैं, जिन्हें रोका जा सकता है। यह रिपोर्ट कुपोषण की स्थिति पर रोशनी डालती है। इसमें उन स्थितियों का विश्लेषण किया गया है, जिन्हें रोका जा सकता है, पर इसके कारण भारत में नवजात शिशुओं और बच्चों की मौत होती है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे की तीसरी रिपोर्ट के अनुसार चालीस प्रतिशत बच्चे ग्रोथ की समस्या के शिकार हैं, साठ फीसद बच्चों का वजन कम है। इस समस्या के समाधान के लिए युद्ध स्तर पर रणनीति बनाना जरूरी है। सेव दि चिल्ड्रन द्वारा एडिंग न्यू-बॉर्न डेथ्स शीर्षक से जारी रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में हर साल दस लाख से अधिक बच्चे एक दिन से ज्यादा जीवित नहीं रह पाते। रिपोर्ट ने प्रशिक्षित स्वास्थ्यकर्मियों और जन्म से जुड़ी जटिलताओं को इन मौतों की सर्वाधिक प्रमुख वजह माना है। जन्म के समय उचित देखभाल और प्रशिक्षित स्वास्थ्य कार्मिकाओं की जरूरत तमाम स्वास्थ्य और सामाजिक कार्यकर्ता रेखांकित करते रहे हैं। इस बात को रिपोर्ट में भी स्वीकार किया गया है कि अगर जन्म के समय प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मी मौजूद हों, तो लगभग आधी मौतों को टाला जा सकता है। स्वास्थ्य सेवाओं के जानकार मानते हैं कि अधिकतर गरीब देशों में, जहां ये सुविधाएं उपलब्ध नहीं हो पातीं, शिशुओं के लंबे समय तक जीवित रहने की संभावना भी बहुत कम होती है। भारत की स्थिति भी इस मामले में बहुत अच्छी नहीं है। यूनिसेफ की नई रिपोर्ट बताती है कि बच्चों के स्वास्थ्य के मामले में अभी बहुत कुछ किया जाना है।
संयुक्त राष्ट्र बाल कोष के अनुसार भारत में प्रतिदिन 3000 बच्चे कुपोषण के कारण मौत का शिकार हो जाते हैं। भारत को विश्व की तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले देशों में गिना जा रहा है, किन्तु दूसरी ओर यह विश्व में सबसे ज्यादा कुपोषण से ग्रस्त देश भी है। कुपोषण के कारण जिन बच्चों की क्षमता पर्याप्त विकसित नहीं हो पाती, उनके कारण 2030 तक भारतीय अर्थव्यवस्था को लगभग 46 करोड़ डॉलर की हानि होगी। कुपोषण पर विजय प्राप्त करके किसी देश के सकल घरेलू उत्पाद को 2-3 प्रतिशत बढ़ाया जा सकता है। कुपोषण दूर करने के लिए माताओं में जागरूकता लाने की आवश्यकता है। शिशु के जन्म के तुरन्त बाद से छ: मास तक मां का दूध और उसके बाद मां के दूध के साथ ही पौष्टिक और सुरक्षित भोजन देना जरूरी है। भारत में कुपोषण को दूर करने के लिए अनेक प्रयास किए जा रहे हैं। आयोडिन युक्त नमक, विटामिन ए एवं आयरन सप्लीमेंट, स्तनपान आदि कुछ ऐसे उपाय किए जा रहे हैं जो सकारात्मक दृष्टि देते हैं। स्वच्छ भारत मिशन की सफलता ने भी कुपोषण की राह में एक कदम आगे बढ़ाया है। उम्मीद है कि कुपोषण की शर्मनाक स्थिति से भारत जल्दी ही छुटकारा पा सकेगा। सरकार का रवैया इस दिशा में कोई खास उत्साहजनक नहीं है। देश के सकल घरेलू उत्पाद का 1.4 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किया जाता है, जो कि काफी कम है। इसे बढ़ाने की जरूरत है। देश में स्वास्थ्य सेवाओं को दूरस्थ गांव-देहात तक पहुंचाना होगा और देश के हर नागरिक को समय पर पर्याप्त चिकित्सा सुविधा मिलना सुनिश्चित करना होगा। तभी भारत में नवजात शिशुओं की मौत पर रोक लगाई जा सकती है।