अजब-गजब

समुद्र के खारे पानी से यहां रेगिस्तान भी में उगाई जा रही है फसल

विश्व खाद्य संगठन का कहना है कि 2050 में हमें आज के मुकाबले पचास फीसदी ज्यादा फसलें उगानी होंगी। तभी हम बढती आबादी का पेट भर सकेंगे। ये आसान काम तो है नहीं। चुनौती ये है कि हमें फसलों का उत्पादन इसी धरती के दायरे में बढाना है। और हमारी धरती की अपनी सीमाएं हैं। कहीं समंदर हैं, तो कहीं पहाड और कहीं रेगिस्तान ने अपनी बांहें फैला रखी हैं।

समुद्र के खारे पानी से यहां रेगिस्तान भी में उगाई जा रही है फसलनतीजा ये कि खेती लायक जमीन सीमित ही है। और ये भी लगातार खेती की वजह से आहिस्ता-आहिस्ता खराब हो रही है। चुनौती इतनी ही नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की अधिकारी सिल्वी वैब्स-कैंडोटी कहती हैं कि धरती की बदलती आबो-हवा पैदावार बढाने की राह में नई मुश्किलें खडी कर रही है। जलवायु परिवर्तन की वजह से कहीं सूखा पड रहा है, तो कहीं बाढ फसलों को तबाह कर रही है।

पानी की कमी

ये मुश्किलों का ‘चेन रिएक्शन’ है। एक का असर दूसरे पर पड रहा है। आज की तारीख में दुनिया भर में मौजूद कुल ताजे पानी का 70 फीसदी फसलें पैदा करने में इस्तेमाल होता है। वहीं, जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण के लिए जिम्मेदार ग्रीनहाउस गैसें पैदा करने में 25 प्रतिशत योगदान खेती का है।

तो, किस्सा यूं है कि अगर आप फसलों की पैदावार बढाना चाहते हैं, तो आप मान कर चलिए कि पैदावार बढाएंगे, तो प्रदूषण भी बढेगा। फसलें उगाने का मौजूदा तरीका दिनों-दिन पुराना पड रहा है। आज जैसे खेती हो रही है, उसमें फसलों का उत्पादन बढाने के लिए चाहिए होगा पानी।

अब दुनिया में तमाम ऐसे देश हैं, जहां पानी की भारी किल्लत है।

जॉर्डन को ही लीजिए। यहां पानी की भारी कमी है। देश का बडा हिस्सा रेगिस्तान है। ऐसे में जॉर्डन को बढती आबादी का पेट भरने के लिए फसलें उगाने के नए तरीके आजमाने होंगे। जॉर्डन ऐसा कर भी रहा है। लाल सागर से करीब 15 किलोमीटर जॉर्डन के भीतर और इजराइल से लगी सीमा से महज एक किलोमीटर दूर ये तजुर्बा किया जा रहा है। यहां एक ग्रीनहाउस में तमाम तरह के फल और सब्जियां उगाई जा रही हैं। टमाटर से लेकर खीरे तक की खेती की जा रही है।

रेगिस्तान में खेती

रेगिस्तान में ये हरियाली लेकर आया है सहारा फॉरेस्ट प्रोजेक्ट फाउंडेशन। जॉर्डन के रेतीले माहौल में हो रहे इस तजुर्बे का नाम है वादी अराबा प्रोजेक्ट। फाउंडेशन के प्रमुख जोआकिम हेग कहते हैं, ”आप जलवायु परिवर्तन को अलग कर के नहीं देख सकते हैं। ये पानी के इस्तेमाल और खेती से जुडा हुआ है। अगर आप धरती की आबो-हवा में बदलाव को रोकना चाहते हैं, तो आप को आमूल-चूल बदलाव करना होगा। तो हम ने मौजूदा संसाधनों की मदद से खेती में इंकलाब की ये चिंगारी जलाने की कोशिश की है।”
जॉर्डन को सबसे ज्यादा जरूरत पानी की है। पानी के लिहाज से जॉर्डन दुनिया का दूसरा सब से गरीब देश है। यहां साल भर में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 150 क्यूबिक मीटर है।वहीं अमरीका में हर नागरिक को साल भर में 9,000 क्यूबिक मीटर से भी ज्यादा पानी मिलता है।

जॉर्डन के कुल क्षेत्रफल का दो तिहाई हिस्सा रेगिस्तान है। जॉर्डन में मौजूद कुल ताजे पानी का आधा हिस्सा खेती में इस्तेमाल होता है। मगर खेती का जॉर्डन की जीडीपी में कुल योगदान महज 3 प्रतिशत है।

सूर्य की रोशनी और सागर का पानी

जॉर्डन के पास जो एक चीज बडी तादाद में है, वो है सूरज की रोशनी। साल के 330 दिन जॉर्डन में सूरज की चटख रोशनी रहती है। जॉर्डन कुदरत की जिस एक और नेमत से लबरेज है, वो है समुद्र का पानी। हालांकि जॉर्डन की ज्यादातर सरहद जमीनी है, मगर एक हिस्सा भूमध्यसागर से जुडा है। और इसकी सीमा का 26 किलोमीटर लाल सागर से भी लगता है। हालांकि ये बहुत बडा समुद्री किनारा नहीं है। मगर, सहारा फॉरेस्ट प्रोजेक्ट ने इस सीमित संसाधन को नेमत में बदलने की ठानी है। वादी अराबा में चल रहा सहारा फॉरेस्ट प्रोजेक्ट कुछ इस तरह काम करता है। सूरज की रोशनी से पैदा हुई बिजली से समुद्री पानी को साफ करके खेती लायक बनाया जाता है।
इस पानी की मदद से ग्रीनहाउस को ठंडा किया जाता है। जो फसलें ग्रीनहाउस में उगाई जाती हैं, वो पर्यावरण से कार्बन सोख कर प्रदूषण कम करने में मदद करती हैं।

98 फीसदी खाना आयात

आज की तारीख में जॉर्डन अपनी कुल जरूरत का 98 फीसद खाना आयात करता है। इस छोटे से प्रोजेक्ट को अगर बडे पैमाने पर पूरे जॉर्डन में लागू किया जाता है, तो आने वाले वक्त में इसकी अनाज और दूसरी फसलों की जरूरत घर की खेती से ही पूरी हो जाएगी।
विश्व खाद्य संगठन की अधिकारी सिल्वी कहती हैं, ”जॉर्डन अपने खाने के लिए दूसरे देशों पर निर्भर है। पानी की भारी किल्लत है। अगर आप बारिश के भरोसे नहीं रह सकते, तो समुद्र का पानी साफ करके इस्तेमाल करना एक वरदान साबित हो सकता है। इसके लिए पर्याप्त मात्रा में पैसा और तकनीक होनी चाहिए। अगर ये है तो आप अपने खाने का उत्पादन खुद कर सकते हैं। बल्कि आप निर्यातक भी बन सकते हैं।”

वैसे ये बात कहनी जितनी आसान है, अमल में लानी उतनी ही पेचीदा। सहारा प्रोजेक्ट अभी एक साल का ही हुआ है। इसे पिछले साल सितंबर में शुरू किया गया था। ये फुटबॉल के चार मैदानों के बराबर इलाके में फैला है। कुल 200 हेक्टेयर जमीन पर खेती हो रही है। अगर ये साबित हो जाता है कि ये कॉन्सेप्ट काम कर रहा है, तो इसे आगे बढाया जाएगा। इस में कोई दो राय नहीं कि चुनौतियां बडी हैं। रेगिस्तान में समुद्र का पानी साफ कर के खेती करना आसान काम नहीं।

गर्मी का कहर

ग्रीनहाउस प्रोजेक्ट जिस इलाके में है, वो तपता रेगिस्तान है। अक्सर ग्रीनहाउस से बाहर भट्टी जैसी गर्मी होती है। ऐसे गर्म माहौल से घिरे ग्रीनहाउस में खीरा-ककडी उगाने के लिए सही तापमान बनाए रखना कोई आसान काम तो है नहीं। ग्रीनहाउस की दीवारों के करीब उगाई जाने वाली फसलें अक्सर भयंकर गर्मी से खराब हो जाती हैं।
इस प्रोजेक्ट को कामयाब बनाने के लिए कई बार तापमान को एसी चलाकर 15 डिग्री सेल्सियस तक कम किया जाता है। ठीक उसी वक्त ग्रीनहाउस से बाहर जब तापमान 45 डिग्री सेल्सियस के आस-पास होता है, तो फसलों को बचाने के लिए एयर कंडीशनर का सहारा लिया जाता है।

इस प्रोजेक्ट के फैसिलिटी मैनेजर फ्रैंक उत्सोला कहते हैं, ”समुद्र के पानी को पंप कर के ग्रीनहाउस की दीवारों पर से गुजारा जाता है। इस दीवार से लगी कंबल जैसी चीज पानी सोखती है। जब हवा चलती है, तो ये पानी सूख जाता है। इससे माहौल ठंडा हो जाता है। ठीक उसी तरह जैसे आप भयंकर गर्मी के दिन भीगा तौलिया लपेटकर खुद को हवा करें। इसी दौरान समुद्री पानी में मौजूद नमक के कण भी छंट कर अलग हो जाते हैं।”

वैसे ग्रीनहाउस के भीतर पंखों को सोलर एनर्जी से भी चलाया जा सकता है। मगर इसकी जरूरत नहीं पडती। इस इलाके में अक्सर हवा चलती रहती है।फ्रैंक उत्सोला कहते हैं कि उनका ये प्रयोग कोई नई बात नहीं। इलाके के बद्दू आदिवासी कालीन को भिगो कर सदियों से अपने तंबुओं को ठंडा करते आए हैं। इसी तरह सौर ऊर्जा और समुद्र के पानी को साफ करने की तकनीक भी कोई नई नहीं है।

समुद्र का पानी रेगिस्तान तक लाना

रात के वक्त रेगिस्तान में तापमान गिरकर 7 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है। उस वक्त दिन में गर्म हुए पानी को पाइप से गुजारा जाता है, तो इससे ग्रीनहाउस की फसलों को गर्मी मिलती है।
ग्रीनहाउस के भीतर की फसलों को जरूरत से ज्यादा पानी दिया जाता है। इनमें से काफी पानी बाहर जमीन तक फैल जाता है। ग्रीनहाउस से बाहर भी कई फसलें लगाई गई हैं। ये एक अलग प्रयोग है। रेगिस्तान में उग सकने वाले सैकडों पौधे लगाए गए हैं। देखा ये जा रहा है कि ग्रीनहाउस प्रोजेक्ट से इसके बाहर के माहौल में उग रही फसलों पर क्या असर पडता है।

वैसे प्रोजेक्ट से जुडे लोगों के लिए एक चुनौती और भी है। समुद्र तट यहां से 15 किलोमीटर दूर है। सवाल ये है कि इतनी दूर तक समुद्र का पानी लाया कैसे जाए?

फिलहाल तो टैंकरों से हर दो दिन में यहां पानी लाया जाता है। ये कोई प्रदूषण कम करने वाला तरीका तो है नहीं।अब अगर इस तजुर्बे का दायरा बढाना है तो समुद्र तट से भीतरी रेगिस्तान तक पानी लाने के लिए पाइपलाइन बिछानी होगी। इस में अरबों डॉलर का खर्च आएगा।

हालांकि तमाम चुनौतियों के बावजूद सहारा फॉरेस्ट प्रोजेक्ट के मैनेजर नाउम्मीद नहीं हैं। वो अभी ये समझने की कोशिश कर रहे हैं कि पाइपलाइन बिछाने के और क्या फायदे हो सकते हैं। इससे रोजगार और कारोबार की कितनी संभावनाएं निकल सकती हैं।

प्रोजेक्ट की टीम का मानना है कि इस रेगिस्तान में हरियाली के लिए जो तकनीक चाहिए, वो सटीक साबित हो चुकी है। जरूरत जॉर्डन के हुक्मरानों के मजबूत इरादों और अधिकारियों के खडे किए गए बैरियर से पार पाने की है।शायद यहां उगे खीरे और दूसरी सब्जियां खाने से उनका मन बदल जाए।

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