सागर किनारे भाजपा के सामने चुनौतियों का पहाड़
दस्तक ब्यूरो
समुद्र तटीय गोवा में पांच साल पहले कांग्रेस को आसानी से हराकर सत्ता पर काबिज हुई भारतीय जनता पार्टी के सामने विधानसभा चुनाव में इस बार चुनौतियों का पहाड़ खड़ा है। महज 40 निर्वाचन क्षेत्रों वाले देश के इस सबसे छोटे सूबे में अभी तक आमतौर पर कांग्रेस और भाजपा के बीच ही मुकाबला होता रहा है लेकिन इस बार चुनावी परिदृश्य बिल्कुल बदला हुआ है। मुकाबला सीधे-सीधे दो पार्टियों के बीच न होकर चतुष्कोणीय हो गया है। भाजपा को अपनी सत्ता और साख बरकरार रखने के लिए सिर्फ अपनी परंपरागत प्रतिद्वन्द्वी कांग्रेस और गोवा के चुनाव में पहली बार जोर आजमाइश कर रही आम आदमी पार्टी से ही नहीं बल्कि अपनी सहयोगी रही महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी (एमजीपी), शिवसेना और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से बगावत कर बाहर आए सुभाष वेलिंगकर के गोवा सुरक्षा मंच (जीएसएम) की साझा चुनौती का भी कड़ा मुकाबला करना पड़ रहा है।
भाजपा को मिल रही चुनौती की गंभीरता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से लेकर केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी तक को घुमा-फिराकर यह जताना पड़ रहा है कि यहां उनकी पार्टी का चेहरा मनोहर पर्रीकर ही हैं। वे बार-बार कह रहे हैं कि यहां बनने वाली भाजपा सरकार पर्रीकर के नेतृत्व में ही काम करेगी। हालांकि पर्रीकर को पार्टी ने औपचारिक तौर पर मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है लेकिन फिर भी पिछले करीब दो महीने से वे गोवा में ही सक्रिय हैं और अपने रक्षा मंत्रालय का कामकाज भी वहीं से चला रहे हैं। गोवा में मुख्यमंत्री के रूप में पर्रीकर का रिकार्ड साफ-सुथरा और नतीजे देने वाला माना जाता है। उनके इसी रिकार्ड के आधार पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें अपनी सरकार में शामिल कर रक्षा मंत्रालय का जिम्मा सौंपा। पर्रीकर के दिल्ली चले जाने के बाद उनके उत्तराधिकारी बने लक्ष्मीकांत पारसेकर को लेकर न सिर्फ पार्टी में बल्कि आम लोगों में भी गहरा असंतोष है। कहने की जरूरत नहीं कि भाजपा को गोवा में सत्ता विरोधी रुझान का भी सामना करना पड़ रहा है।
गोवा में स्थानीय बनाम बाहरी संस्कृति का विवाद पुराना है। सामाजिक तौर पर गोवा एक ईसाई बहुल सूबा है। गोवा की कुल आबादी में 27 फीसदी कैथोलिक ईसाई हैं जो कि राज्य के मूल निवासी हैं। उन्हें अपनी स्थानीय संस्कृति और परंपराओं से गहरा लगाव है जिसकी वजह से वे हमेशा संघ के निशाने पर रहते हैं। हालांकि पर्रीकर ने मुख्यमंत्री रहते अपनी सूझबूझ से इस तनाव को काफी हद तक कम कर दिया था और इस समुदाय में अपनी अच्छी पैठ भी बना ली थी लेकिन उनके दिल्ली जाने के बाद स्थिति फिर बदल गई है।
बीते 28 दिसंबर को पणजी के आर्कबिशप पैलेस में क्रिसमस के सालाना जलसे में पर्रीकर और पारसेकर की मौजूदगी में आर्कबिशप फिलिप नेरी फेलारो ने बेहद सख्त अंदाज में कहा कि पिछले कुछ समय से कमजोर प्रशासन और निरंकुश भ्रष्टाचार की वजह से गोवा के पर्यावरण और सामाजिक तानेबाने को नुकसान पहुंच रहा है। आर्कबिशप की यह टिप्पणी बताती है कि गोवा में चर्च और भाजपा के रिश्ते फिर से पुरानी तनावभरी शक्ल अख्तियार कर चुके हैं। पांच साल पहले दिगंबर कामत के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार से मोहभंग का संकेत देते हुए आर्कबिशप ने कैथोलिक समुदाय से बदलाव के लिए वोट देने की अपील की थी लेकिन अब चर्च का कहना है कि लोग अपने विवेक से फैसला करेंगे कि किसका समर्थन करना है। संदेश साफ है कि चर्च की सहानुभूति अब भाजपा के साथ नहीं है।
चर्च और भाजपा के बीच टकराव के वैसे तो कई मुद्दे हैं लेकिन सबसे तीखा विवाद भाषा को लेकर है। गोवा में तीन भाषाएं- कोंकणी, मराठी और अंग्रेजी बोली जाती हैं। गोवा के ज्यादातर प्राथमिक विद्यालय चर्च संचालित हैं जिनमें अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई होती है। संघ और भाजपा की पुरानी मांग है कि ऐसे सभी विद्यालयों को सरकारी अनुदान देना खत्म किया जाए। लेकिन न तो पर्रीकर ने ऐसा किया और न ही पारसेकर ने। इसी से खफा होकर भाजपा की सहयोगी एमजीपी ने कोंकणी सम्मान को मुद्दा बनाकर भाजपा के कथित ईसाई तुष्टीकरण के खिलाफ संघ के बागी धडे़ जीएसएम और शिवसेना के साथ गठजोड़ कर लिया। गोवा के चुनाव में भाषा और स्थानीय संस्कृति के अलावा खनन भी एक अहम मुद्दा है। गोवा भारत में कच्चे लोहे का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। खनन गोवा को आर्थिक रूप से मजबूत बनाता है। खनन के चलते गोवा के नागरिकों को रोजगार मिलता है। हालांकि अवैध खनन के भी कई मामले सामने आए हैं और खनन के चलते पर्यावरण को भी काफी नुकसान पहुंचा है। इसे लेकर खूब प्रदर्शन भी हुए, जिस पर सरकार ने सितंबर, 2012 में सभी खनन बंद कर दिए थे। सरकार ने अवैध खनन के मामलों की जांच के लिए जो आयोग गठित किया था, उसने चौंकाने वाली रिपोर्ट दी। अवैध खनन के कारण सरकारी खजाने से 34,935 करोड़ रुपये की निकासी की बात कही गई थी। बहरहाल सभी राजनीतिक दल अब पर्यावरण संरक्षण और खनन कारोबार के बीच संतुलित रास्ता निकालने की बात कर रहे हैं।
पर्यटन का केंद्र होने की वजह से गोवा में लगभग डेढ़ दर्जन कैसिनों चल रहे हैं। 2012 के चुनाव में कैसिनों भी अहम मुद्दा बने थे। उस वक्त भाजपा ने अपने चुनावी घोषणा पत्र मे सभी कैसिनों बंद करने की बात कही थी लेकिन सत्ता में आने के बाद उसने ऐसा नहीं किया और मुद्दे को टालती रही। उस पर कैसिनों मालिकों से साठगांठ के आरोप भी लगे। इस बार इस मुद्दे को आम आदमी पार्टी जोर-शोर से उठा रही है। लेकिन हकीकत यह है कि किसी भी पार्टी के लिए कैसिनों बंद करना आसान नहीं है, क्योंकि स्थानीय युवाओं की एक बड़ी संख्या को इन कैसिनों से रोजगार मिला हुआ है। गोवा को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग भी लंबे समय से चली आ रही है। ईसाइयों के संपन्न तबके को यह मांग बहुत लुभाती है, इसलिए उसका समर्थन हासिल करने के लिए आम आदमी पार्टी भी इस मांग को उठा रही है। हालांकि ज्यादातर लोग यह अच्छी तरह समझते हैं कि चाहे कोई भी पार्टी सत्ता में आ जाए, विशेष राज्य का दर्जा मिलना आसान नहीं है।
आम आदमी पार्टी ने अवैध खनन, कैसिनो, विशेष राज्य का दर्जा आदि के साथ ही केंद्र सरकार के नोटबंदी के फैसले को चुनाव में मुद्दा बना रखा है। उसका पूरा जोर राज्य में सबसे प्रभावशाली कैथोलिक समुदाय को और महिलाओं तथा युवाओं को आकर्षित करने पर है। उसने कैथोलिक समुदाय के ही एल्विस गोम्स को अपनी ओर से मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया है। पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में महिलाओं से संबंधित मुद्दों पर जोर दिया है। घोषणा पत्र में समुद्र तटों पर महिला लाइफ गार्ड, चेंजिंग रूम और शौचालयों की उपलब्धता सुनिश्चित करने का वादा किया है। इसके साथ ही महिलाओं के लिए सामुदायिक न्याय केंद्रों और राज्य में पांच महिला पुलिस थाने बनाने की बात भी कही है। पार्टी दिल्ली की तर्ज पर गोवा में भी मुफ्त साफ पानी देने, बिजली की दरों में पचास फीसदी कमी करने तथा निशुल्क वाई फाई जोन के साथ ही 24 घंटे विश्व स्तरीय बस सेवा शुरू करने का वादा किया है। आम आदमी पार्टी के इन चुनावी वादों के मुकाबले भाजपा का जोर पिछले पांच साल में अपनी सरकार के किए गए विकास कार्यों और पूर्व मुख्यमंत्री पर्रीकर की छवि पर है। भाजपा के लिए सबसे बड़ी राहत की कोई बात है तो वह यह कि उसकी परंपरागत प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस बिखराव की शिकार है। उसके कई नेता पार्टी छोड़ चुके हैं। लेकिन अहम सवाल यही है कि क्या महज कांग्रेस का कमजोर होना ही उसकी सत्ता में वापसी कराने में सहायक हो सकता है?