साधना और अनुभव की चासनी से सराबोर-‘साथ गुनगुनाएंगे’
पुस्तक समीक्षा
जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
संपादक
भोजपुरी साहित्य सरिता
समीक्षा : जैसा कि हम सभी को यह ज्ञात है कि यह अरबी साहित्य की प्रसिद्ध काव्य-विधा है, जो बाद में फारसी, उर्दू नेपाली और हिन्दी साहित्य और भोजपुरी साहित्य में भी बेहद लोकप्रिय हुई। अरबी भाषा के इस शब्द का अर्थ है औरतों से या औरतों के बारे में बातें करना। परंतु समय के साथ इसके फलक में जबरजस्त विस्तार हुआ। दुष्यंत कुमार ने गजल की विषय वस्तु में सामाजिक-राजनैतिक जिंदगी का सच पिरोकर उसे जो विस्तार दिया था, उसे एडम गोंडवी ‘बेवा के माथे कि शिकन’ तक ले गए। कहने का तात्पर्य यह कि आज ऐसा कोई क्षेत्र नहीं बचा है जो गजल के पहुँच से दूर हो। इस हो रहे परिवर्तन को आदरणीय श्रीवास्तव जी ने बखूबी स्वागत किया है और कहते हैं-
“अब गजल बेवा के माथे की शिकन तक आ गई
अब न कहना गजलगो दरबार तक ही रह गए।”
अपने एहसासात को कुछ शब्दों में और कुछ इशारों में व्यक्त करने का नाम है गजल। इसे शब्दों और मात्राओं के जोड़-घटाव का संयोजन कहना सहसा अन्याय ही होगा। मुझे तो यह अति दुरूह विधा लगती है, जिसे साधने के लिए सतत अभ्यास और लगन की अत्यंत आवश्यकता होती है। इस पुस्तक की भूमिका लिखते हुये प्रो कृष्ण चंद्र लाल, आदरणीय श्रीवास्तव जी की इस तपस्या को रेखांकित भी करते हैं-
एक सतत तपस्या है साहित्य की यह साधना
जो न ये समझे खबर अखबार तक ही रह गए।
सामान्यतया यह देखा जाता है कि कुछ गजलगो उर्दू और अरबी के शब्द मोह जाल में फंसे रह जाते हैं। सच कहें तो गजल कि आत्मा को ही मार देते हैं। परंतु आदरणीय श्रीवास्तव जी ने आम बोलचाल के शब्दों को बड़ी ही सहजता से अपने गजलों में पिरोया है। इस वजह से गजलों का प्रवाह बड़ा ही सरस हो गया है और अनुभव की गहराई देखते ही बनती है। यह गजल देखिये –
“जिंदगी से न कर सवाल मियां
जीना कर देगी ये मुहाल मियां
खर्च हो जाओगे समझने में
बुनती जाएगी इतने जाल मियां।”
समय के बदलते चाल-चरित्र और चेहरे में हो रहे एनआईटी बदलाव और पतन की विद्रुप स्थिति में गजलगो को आज जिस आदमी की जरूरत है उसे और उसके होने की कामना कुछ इस प्रकार करता है-
मेरे किरदार में कुछ कमी रहने देना
आदमी हूँ मैं मुझे आदमी रहने देना
समय और देश की परिस्थिति इतनी भयावह हो चुकी है कि जहां काही अतिरिक्त सतर्कता नजर आती है, वहीं आम आदमी यह पूछ लेता है कि ‘कोई खास बात है क्या?’। सरकार और ज़िम्मेदारी का तो मानो कोई रिस्ता बचा ही नहीं है।
कहीं कोई भी जिम्मेदार है क्या
तुम्हारी भी कहीं सरकार है क्या
बाला कि चौकसी चारो तरफ है
बताना कल कोई त्योहार है क्या
जब गजल रूमानियत के दायरे से बाहर आती है तो उसे इस समाज का वास्तविक चेहरा नजर आता है। जहां लड़की होना लड़की को ही अभिशाप लगने लगा हो तो गजलगो को कहना पद जाता है –
कोख में अब तो मुझे मार ही डालो अम्मा
भेड़ियों के लिए खुराक न पालो अम्मा
और आज की स्थिति की भयावहता से देश का एक-एक व्यक्ति अवगत है। स्थिति की भयावहता का आलम अगले शेर में देखिये जब लड़की खुद ही अपने जन्मदात्री माँ से अपने लिए मृत्यु की मांग कर बैठती है। आप भी देखिये इसी गजल का एक शेर –
कितनी दुश्वारियाँ एक साथ निपट जाएंगी
दूध में संखिया थोड़ा-सा उबालो अम्मा
राजनीति पर तंज तो देखते ही बनता है-
राजनीति और द्वेष, तुम्हारी ऐसी-तैसी
बाँटो घर-घर क्लेश, तुम्हारी ऐसी-तैसी
चोर, उठाईगीर, उचक्के, डाकू, रहजन
धारें सेवक भेष, तुम्हारी ऐसी-तैसी
चरते चरते सब कुछ तो चर लिए बिरादर
चरना फिर भी शेष, तुम्हारी ऐसी-तैसी
हम सभी आए दिन किसानों की आत्महत्या की खबरें पढ़ते-सुनते रहते हैं। इस देश में किसानों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। भले ही उन्हें अन्नदाता कहा जाता हो पर वे आज भी अन्न के लिए तरसते देखे जाते हैं। उनके दर्द को शब्द देती इस गजल की कुछ पंक्तियाँ-
गेहूँ को बोने-काटने में उम्र कट गयी
रोटी का स्वाद क्या है, यही जान न पाया।
विश्व के इस सबसे बड़े लोकतन्त्र में आज के नेताओं के किरदार पर गजलगो का जबरजस्त प्रहार देखने लायक है-
तुम न पूजा के हो, न नमाज के हो
आदमी कौन-से मिजाज के हो।
लाभ हर मौके का उठाते हो
किस कदर भूखे तख्त-ओ-ताज के हो।
इसी के साथ मैं आदरणीय गजलगो श्री आर डी एन श्रीवास्तव जी को उनके गजल संग्रह ‘साथ गुनगुनाएंगे’ के प्रकाशन के लिए बधाई और हार्दिक शुभकामना देता हूँ। साथ ही सर्वभाषा ट्रस्ट प्रकाशन को आत्मीय बधाई और साधुवाद प्रेषित करता हूँ और यह कामना करता हूँ कि यह क्रम और गति दोनों दिनों दिन पुष्पित होती रहे।