अहंकार का नाश करने में मनुष्य को सर्वप्रथम तत्पर होना चाहिए क्योंकि यही सारे अनर्थों का मूल है, रावण की शक्ति का कुछ ठिकाना न था, कंस का बल और पराक्रम जगत विख्यात है, दुर्योधन, शिशुपाल, नेपोलियन, हिटलर आदि की शक्तियों के आगे संसार कांपता था, किंतु उनका अहंकार ही उन्हें खा गया।
अहंकार जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति में एक प्रबल शत्रु है क्योंकि सभी भेद “अहं” भावना से ही उत्पन्न होते हैं, जिसके उत्पन्न होते ही काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकार उठ खड़े होते हैं। इन्हें बाहर से बुलाना नहीं पड़ता। अहंकार स्वतः भेद-बुद्धि के प्रसंग से इन्हें अंत:स्थल में पैदा कर देता है। मनुष्य परिस्थितियों को दोष देता है या किसी दूसरे व्यक्ति के मत्थे दोष मढ़ने का प्रयत्न करता है किन्तु यह दोष अपने अहंकार का है, जो अन्य विकारों की तरह आपको साधन-भ्रष्ट बना देता है। अतः आप इसे ही मारने का प्रयत्न करिए। अहंकार का नाश करने में मनुष्य को सर्वप्रथम तत्पर होना चाहिए क्योंकि यही सारे अनर्थों का मूल है। रावण की शक्ति का कुछ ठिकाना न था, कंस का बल और पराक्रम जगत विख्यात है। दुर्योधन, शिशुपाल, नेपोलियन, हिटलर आदि की शक्तियों के आगे संसार कांपता था किंतु उनका अहंकार ही उन्हें खा गया। मनुष्य को पतन की ओर ले जाने में अहंकार का ही हाथ रहता है। श्रेय के साधक को इससे दूर ही रहना चाहिए। भगवान सबसे पहले अभिमान ही नष्ट करते हैं। अहंकारी व्यक्ति को कभी उनका प्रकाश नहीं मिल सकता।
अहंकार एक प्रकार की संग्रह वृत्ति है। अहं के योग से मनुष्य जगत की प्रत्येक वस्तु पर एकाधिकार चाहता है। उसका लाभ वह अकेले ही उठाना चाहता है। किसी दूसरे का हस्तक्षेप करते या लाभ उठाते देख कर वह जल-भुन उठता है और प्रतिकार के लिए तैयार हो जाता है। जब तक यह पाप पराकाष्ठा तक नहीं पहुंच जाता तब तक भले ही कोई शोषण, दमन, अपहरण तथा अनैतिक भोग भोगता रहे किंतु अंतत: सभी लोग उसका साथ छोड़ देते हैं। साधन और परिस्थितियां शीघ्र ही विपरीत हो जाती हैं, तब मनुष्य को हार माननी पड़ती है, मुंह की खानी पड़ती है और कभी-कभी तो सर्वनाश के ही दर्शन करने पड़ते हैं। परमात्मा किसी भी वस्तु का संग्रह नहीं करता। वह लोक हितार्थ अपने दान अनुदान विस्तीर्ण करता रहता है। इसी में उसे आनंद मिलता है। मनुष्य की महानता भी इसी में है कि अपनी संपूर्ण शक्तियों को दान-रूप में विकीर्ण करता रहे। इसी से उसे सच्चा आनंद प्राप्त हो सकता है।