ज्योतिष डेस्क : नौ ग्रहों में से केवल सूर्य और चंद्रमा को ही ग्रहण लगता है। लेकिन ऐसा क्यों है? पुराणों में चंद्रमा और सूर्य को ग्रहण लगने के पीछे एक धार्मिक कथा का वर्णन मिलता है। इसके अनुसार, समुद्र मंथन के दौरान निकले अमृत कलश से देवताओं में अमृत बांटने के लिए भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण किया। जिस समय मोहिनी रूप भगवान विष्णु देवताओं को अमृत बांट रहे थे, एक असुर देवता का रूप धारण करके देवताओं की पंक्ति में आकर सूर्य और चंद्रमा के बीच बैठ गया। जैसे ही मोहिनी इस राक्षस को अमृत पिलाती हैं, सूर्य और चंद्र असुर को पहचान लेते हैं और मोहिनी को इसे अमृत पिलाने से रोकते हैं। लेकिन तब तक यह असुर अमृतपान कर चुका होता है और अमृत गले तक पहुंच चुका होता है। भगवान विष्णु अपने सुदर्शन चक्र से इस राक्षस की गर्दन काट देते हैं। अमृत पीने से गले कटने के बाद भी यह असुर मरता नहीं है। सिर और धड़ अलग होने पर भी यह जीवित रहता है। इसी के सिर को राहु और धड़ को केतु कहा जाता है। कहते हैं कि सूर्य और चंद्रमा के कारण ही भगवान विष्णु ने इस राक्षस का सिर धड़ से अलग कर दिया था इस कारण जब-जब मौका मिलता है, राहु और केतु के रूप में यह राक्षस सूर्य और चंद्रमा को ग्रहण लगा देते हैं।
पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमते हुए सूर्य का चक्कर लगाती है। और चंद्रमा पृथ्वी के चारों ओर घूमता है। ब्रह्मांड के ये तीनों ग्रह अपनी-अपनी कक्षाओं में घूमते हुए जब एक सीध में आ जाते हैं, तब सूर्य या चंद्रग्रहण लगता है, ऐसा विज्ञान कहता है। जब चंद्रमा घूमते-घूमते सूर्य और पृथ्वी के बीच में आ जाता है तो सूर्य का प्रकाश पृथ्वी तक नहीं पहुंच पाता। इस स्थिति को सूर्य ग्रहण कहते हैं। सूर्यग्रहण पूर्ण, आंशिक या कुंडलाकार होता है। जब घूमते-घूमते पृथ्वी सूर्य और चंद्रमा के बीच आ जाती है तो सूर्य की रोशनी चांद तक नहीं पहुंच पाती और वह हमें दिखाई नहीं देता। इस स्थिति को चंद्रग्रहण कहते हैं। चंद्रग्रहण पूर्ण और आंशिक होता है।