सीता परित्याग
लक्ष्मण बोले- महाराज, उन्हें आश्रम में व्यवस्थित करने के बाद मैंने उन्हें राजाज्ञा की सूचना दी कि माता, अयोध्या नरेश राजाराम चाहते हैं कि अब से आप अपना सम्पूर्ण जीवन इसी वनप्रदेश में व्यतीत करें। उन्होंने आपका त्याग कर दिया है। सुनकर माता जोर से हँसते हुए बोलीं, पुत्र लक्ष्मण पूरा जीवन अपने भाई के साथ बिताने केबाद भी तुम उनके हृदय को ना जान पाए? सर्वप्रथम तो श्रीराम किसी को सहज ही स्वीकारते नहीं हैं, और यदि एक बार वे किसी को स्वीकार लें तो फिर वे उसे छोड़ते नहीं हैं। तुम्हारी भाभी सीता ने राम को नहीं अपितु तुम्हारे भाई राम ने सीता को पकड़ा हुआ है। एक बार यदि राम किसी को थाम लें तो फिर वे उसे कभी नहीं छोड़ते पुत्र। इसलिए स्वस्थ मन से जाओ और अयोध्यपती श्रीराम से नहीं, सीता के हृदय सम्राट सीताराम से कहना कि सीता की सम्पूर्ण सृष्टि पर मात्र उन्हीं का अधिकार है।
राजसभा में अंधकार था, सभाकक्ष में जलने वाले सभी दीपक बुझा दिए गए थे। मात्र उस सिंहासन के पीछे स्थित सूर्य की प्रतिमा जो इस गौरवशाली वंश का प्रतीक चिन्ह थी, के स्तम्भ पर एक दीपक टिमटिमा रहा था, इस सिंहासन की नींव वैवस्वत मनु के पुत्र राजा इक्ष्वाकु ने रखी थी। इस सिंहासन ने इक्ष्वाकु से लेकर भरत, दिलीप, सगर, भगीरथ जैसे महान राजाओं का तप भी देखा था और उनका ताप भी। फिर इस सिंहासन पर इन्हीं के वंशज राजा रघु के बैठते ही यह उनके प्रताप का साक्षी बन गया, तब से संसार इस सिंहासन को प्रतापी रघुकुल के नाम से जानने लगा। किंतु तप, ताप, और प्रताप को देखने वाले इस सिंहासन ने आज जो देखा वह त्याग का दारुण रूप था, जिससे उत्पन्न होने वाली असहनीय वेदना, मर्मांतक पीड़ा को सहन कर पाना उसके लिए असम्भव सा जान पड़ता था।
रात्रि की नीरवता में एक छाया उस प्रतापी सिंहासन के हत्थे को पकड़कर उसमें अपना मुँह छिपाए धरती पर बैठी हुए सी प्रतीत हो रही थी। उस अतिविशाल सभागार के मद्धिम से प्रकाश में, उस छाया के अलावा यदि कुछ था तो वह सन्नाटा था, जो सम्भवत: चीखकर बोल पड़ना चाहता था। तभी उस सभाभवन को महल की ओर से जोड़ने वाला द्वार खुला, द्वार को हल्का सा खोलने के बाद वह व्यक्ति द्वार पर ही ठिठक गया, उसके पीछे से आते हुए प्रकाश के कारण भूमि पर पड़ी हुई उसकी छाया उसके अस्तित्व से कहीं बहुत बड़ी होकर सभाभवन के फर्श पर फैल गई थी। कुछ देर द्वार पर खड़े रहने के बाद वह व्यक्ति द्वार बंद करते हुए सिंहासन की ओर बढ़ने लगा। उस अंधकार में मात्र उसकी पगध्वनि ही सुनाई दे रही थी, जो निरंतर सिंहासन की दिशा में बढ़ रही थी- लगता था कि जैसे वह व्यक्ति अपने शरीर को लगभग घसीट रहा है।
वह व्यक्ति सिंहासन के नीचे, निश्चेष्ट पड़े व्यक्ति के पास आकर खड़ा हो गया, व्यक्ति को लगा कि सिंहासन की जद में पड़े हुए व्यक्ति को उसकी उपस्थिति का भान ही नहीं है, खड़े हुए व्यक्ति ने बेहद धीमे स्वर में पुकारा- भैया.. ध्वनि बता रही थी कि व्यक्ति अपनी भावुकता को नियंत्रित करने का प्रयास कर रहा है। अपनी ध्वनि को निष्प्रभावी देख वह व्यक्ति-उस व्यक्ति के चरणों के पास बैठ गया और धीरे से उसके चरणों का स्पर्श करते हुए पहले की अपेक्षा तनिक अधिक शक्ति से बोला, भैया, आपके आदेश का अक्षरश: पालन हो गया, माता वन में स्थित महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में सुरक्षित पहुँचा दी गई हैं। अयोध्या नरेश राजाराम ने भावशून्य नेत्रों से उस व्यक्ति की ओर देखा.. अरे हाँ ये तो लक्ष्मण है! जिसे उन्होंने आज अपनी गर्भवती पत्नी सीता को जंगल में छोड़ आने की राजाज्ञा दी थी। राम सोचने लगे मेरे भाई बंधु, राज्य अधिकारी कितने कर्तव्य कुशल हैं, ये अपने राजा राम से कितना प्रेम करते हैं.. इनके राजा की कितनी भी कठोर आज्ञा क्यों ना हो ये उसका पालन पूरी निष्ठा के साथ करते हैं, इन्हें राजा की भावना से नहीं मात्र उसकी आज्ञा से मतलब होता है।
लक्ष्मण ने देखा की उसका यह परम पराक्रमी भाई जिसने ताड़का, मारीच, सुबाहु, खर-दूषण, त्रिश्ररा बाली से लेकर अपने प्रताप से तीनों लोकों को चौंसठ चौकड़ी तक अपने अधीन रखने वाले कुंभकर्ण और दशानन रावण जैसे महाबलियों को धराशायी कर उनका नामोनिशान मिटा दिया था, आज इस सिंहासन की मर्यादा की रक्षा करते हुए स्वयं ही भूमि पर पड़ा हुआ दर्द से कराह रहा है। लक्ष्मण ने राम को इतना निरीह कभी भी नहीं पाया था। जन-जन के हृदय में व्याप्त अंधकार को दूर कर प्रकाश से आलोकित करने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम आज स्वयं को जैसे अंधकार में समाहित कर लेना चाहते थे। लक्ष्मण की आँखों से अविरल अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। वे सशब्द फूट कर रोना चाहते थे, किंतु वे जानते थे कि मर्यादा के व्रत का पालन करने वाले धर्मज्ञ राजा राम के किसी अधिकारी का राजसभा में रूदन राजाज्ञा की मर्यादा का उल्लंघन माना जाता है, सो नि:शब्द सुबकते रहे।
राम ने अंधकार में देखते हुए ही लक्ष्मण से कहा- रघुकुलभूषण राजाराम- राजाज्ञा के प्रति तुम्हारे समर्पण का अभिनंदन करता है.. यात्रा में सीता को कोई कष्ट तो नहीं हुआ लक्ष्मण? आशा है वन्य मार्गों से निकलते हुए तुमने उसकी गर्भावस्था को ध्यान में रखते हुए रथ की गति को संतुलित रखा होगा? लक्ष्मण लगभग बुदबुदाते हुए से बोले- जी महाराज.. और चुप खड़े हो गए। राम ने उन्हें सभाभवन से जाते ना देख पूछा- कुछ और कहना चाहते हो? कोई संदेश.. सीता का?
लक्ष्मण बोले- महाराज, उन्हें आश्रम में व्यवस्थित करने के बाद मैंने उन्हें राजाज्ञा की सूचना दी कि माता, अयोध्या नरेश राजाराम चाहते हैं कि अब से आप अपना सम्पूर्ण जीवन इसी वनप्रदेश में व्यतीत करें। उन्होंने आपका त्याग कर दिया है। सुनकर माता जोर से हँसते हुए बोलीं, पुत्र लक्ष्मण पूरा जीवन अपने भाई के साथ बिताने केबाद भी तुम उनके हृदय को ना जान पाए? सर्वप्रथम तो श्रीराम किसी को सहज ही स्वीकारते नहीं हैं, और यदि एक बार वे किसी को स्वीकार लें तो फिर वे उसे छोड़ते नहीं हैं। तुम्हारी भाभी सीता ने राम को नहीं अपितु तुम्हारे भाई राम ने सीता को पकड़ा हुआ है। एक बार यदि राम किसी को थाम लें तो फिर वे उसे कभी नहीं छोड़ते पुत्र। इसलिए स्वस्थ मन से जाओ और अयोध्यपती श्रीराम से नहीं, सीता के हृदय सम्राट सीताराम से कहना कि सीता की सम्पूर्ण सृष्टि पर मात्र उन्हीं का अधिकार है। सीता- राम की नियति नहीं उनकी निर्मिति है, कोई भी रचनाकार स्वयं से अधिक अपनी रचना के मान, सम्मान उसकी प्रतिष्ठा को लेकर सनद्ध रहता है। इसका प्रमाण यह है लक्ष्मण की राम ने सदैव ही अपने नाम के आगे मेरे नाम को रखा और श्रीराम से ‘सीताराम’ हो गए।
मेरी प्रतिष्ठा को अक्षुण्य बनाए रखने के लिए जो सर्वाधिक उपयुक्त होगा वही भूमिका महाबाहु ने मुझे सौंपी है, जब वे मेरी प्रतिष्ठा मान मर्यादा की रक्षा के लिए अपने प्राण तक तजने के लिए तैयार हैं, तो उनकी वामांगी होने के नाते सीता का भी दायित्व है कि उनकी मर्यादा और मान की रक्षा करे। राम से कहना कि अब तक उनके सामने रहने वाली सीता अब उनमें ही समाहित हो गई है, राम के इस परम कर्म ने हमारी द्वैत की लीला का समापन करके सीता और राम को अद्वैत में रूपांतरित कर दिया है। जाओ वत्स सुखी रहो।
लक्ष्मण की बात समाप्त होने के बाद राम आदेश देते हुए बोले- तुम जा सकते हो लक्ष्मण.. तुमने आज ऐसे भीमकार्य को सम्पन्न किया है जिसे सम्भवत: तुम्हारा भाई राम भी नहीं कर सकता था, जाओ और जाकर विश्राम करो। अपने भाई की प्रत्येक आज्ञा का पालन करने वाले लक्ष्मण को लगा कि वह उनके इस आदेश का उल्लंघन कर दें.. किंतु तभी श्रीराम ने एक बेहद विचित्र बात कही जिसे सुनकर वहाँ रुके रहना उनके लिए अब सम्भव नहीं था। श्रीराम बोले- लक्ष्मण अपने बड़े भाई और भाभी के मध्य हो रहे अंतरंग वार्तालाप को सुनना भ्रातधर्म की मर्यादा का उल्लंघन होता है, तुम देख रहे हो कि मैं इस समय वैदेही के साथ हूँ। स्मरण रहे हमारे एकांत में कोई बाधा ना पहुँचे।
लक्ष्मण ने देखा की श्रीराम ने यह बात अनमनस्कता में नहीं अपितु पूर्ण चैतन्य अवस्था में कही थी, वे इस सत्य को भलीभाँति जानते थे कि माता सीता के रोम-रोम में बसने वाले श्रीराम की प्रत्येक श्वास में सीता का वास है। वे तत्काल ही सर झुकाकर राम को अकेला छोड़ वहाँ से चले गए। श्रीराम धीरे-धीरे चलते हुए सभागार के उस स्थान पर पहुँचे जहाँ आज सुबह दुर्मुख नाम का वह धोबी अपनी पत्नी के साथ खड़ा होकर भरी सभा में अपनी पत्नी के द्वारा अपने ऊपर लगाए गए आरोप का उत्तर दे रहा था- कि जी महाराज मैंने इसे पीटा क्योंकि यह मेरी आज्ञा लिए बिना, मेरी जानकारी के बिना पूरे चौबीस घंटे घर से बाहर रही।
मेरे द्वारा पीटी जाने पर यह कुलटा मुझसे कहने लगी कि- तुम श्रीराम से अधिक बड़े, अधिक समझदार और अधिक सक्षम तो नहीं हो? उनकी पत्नी भी उनकी जानकारी के बिना एक दिन नहीं बल्कि पूरे एक साल उनसे दूर रहीं, इसके बाद भी उन्होंने बिना किसी प्रतिवाद के उसे ससम्मान स्वीकार कर लिया। प्रजा का धर्म है कि वह अपने राजा के आचरण को अपनाकर अपने परिवार में शांति का वातावरण निर्मित करे। राजआचरण के विरुद्ध व्यवहार करना राष्ट्रद्रोह के जैसा जघन्य अपराध है। मूर्ख दुर्मुख राजा का आचरण ही प्रजा का धर्म होता है, अपने राजा के आचरण के अनुरूप व्यवहार ना करके तू मुझपर संदेह कर मुझे प्रताड़ित कर रहा है? दुरात्मा यदि पत्नी का एक दिन घर से बाहर अपने पति से दूर रहना अधर्म या पापाचार की श्रेणी में आता तो क्या धर्म और मर्यादा के प्रतीक सम्राट राम अपनी पत्नी सीता को स्वीकार करते? तू उनसे बड़ा धर्मात्मा हो गया? मैं तेरे विरुद्ध राजसभा में अभियोग प्रस्तुत करूँगी।
उसकी अनीतिपूर्ण बात सुनकर महाराज मुझे बहुत क्रोध आया, मैंने उसे और अधिक पीटा, मैंने यह कहा महाराज, कि मैं राम नहीं हूँ जो अपनी आँखोंदेखी मक्खी को निगल जाऊँ, राज के दुर्गुणों, उसकी कमजोरियों को स्वीकार ना करना यदि राजद्रोह है तो मैं राजद्रोही ही हूँ, मैं राम नहीं हूँ जो संसार भर के मैल को सहजता से स्वीकार कर लेते हैं, मैं धोबी हूँ जो लोगों के वस्त्रों पर जमे मैल को पटक कर निकालता हूँ। क्षमा कीजिए महाराज स्त्री परिवार का आभूषण होती है, वह कुल की मान-मर्यादा का प्रतीक होती है, उसके चरित्र का शंका के दायरे में आना पूरे कुल को कलंकित कर देता है। अपनी वासना की पूर्ति के लिए कलंक को स्वीकार करना राम का धर्म हो सकता है किंतु आवश्यक नहीं कि वह उनके राज्य का धर्म भी हो जाए? अपने आचरण से प्रजा को सद्मार्ग पर लाना राजा का धर्म होता है ना कि अपने आचरण से प्रजा को कुमार्ग की ओर प्रेरित करना।
मेरी स्त्री आपके और महारानी सीता के आचरण का अनुसरण कर, उसे ही धर्म माने यह मेरे लिए अधर्म की श्रेणी में आता है, इसलिए मैं अब इसे स्वीकार नहीं कर सकता, मैं इसका त्याग करता हूँ। राजा यदि अधर्म को ही अपना धर्म बना ले तो इसका यह अर्थ तो नहीं हो जाता ही प्रजा को अपने धर्म का पालन करने और उसपर चलने का कोई अधिकार ही नहीं है? महाराज आपसे आपकी प्रजा को न्याय अपेक्षित है, मेरी पत्नी का बिना बताए घर से गायब रहना उसके चारित्रिक पतन का कारण, आपका सीता को रावण के यहाँ एक वर्ष रहने के बाद भी सहजता से स्वीकार कर लेना है। बड़े लोगों के आचरण को ही हम सामान्यजन अपना आचरण बना लेते हैं। आपको प्रजा पर राज करने का अधिकार है महाराज, उसमें अराजकता फैलाने का नहीं। आपको चाहिए कि आप सीता का त्याग करें जिससे समाज के अन्य वर्गों में इस व्यवहार की प्रवृत्ति का उदय ना हो। ऐसा ना करने की सूरत में आप समाज के चारित्रिक पतन के कारण होंगे, महाराज रघु का आचरण अयोध्या के प्रताप का कारण था कहीं ऐसा ना हो कि आपकी अपनी पत्नी के प्रति आसक्ति अयोध्या के पतन का कारण बने।
भरी सभा में अपनी प्राणप्रिय सीता पर जो तन मन वचन से पूर्णत: शुद्ध हैं, जिसे श्रीराम अपने प्राणों की गहराई से जानते हैं, जिसके लिए किसी भी प्रमाण की आवश्यकता नहीं थी, फिर भी जिसने अग्निपरीक्षा देकर अपनी शुद्धता अपने सतीत्व का प्रमाण दिया है, उसके धवल चरित्र पर इस अनर्गल आरोप से श्रीराम को मर्मांतक पीड़ा हुई, उनके भीतर का सिंहपुरुष, पति राम जो सिर्फ और सिर्फ एक ही स्त्री सीता से अपने सम्पूर्ण अस्तित्व से प्रेम करता था, इसी क्षण इस नीच दुर्मुख को मृत्यु के घाट उतार देना चाहता था। अपनी प्राणवल्लभि सीता के चरणों पर चोंच मारने के अपराध में इंद्र के लड़के जयंत की जिस राम ने पल भर में आँख फोड़ दी थी, प्राणप्रिये वैदेही को बलात उठा ले जाने के अपराध में श्रीराम में एक लाख पूत, सवा लाख नाती वाले सर्वशक्तिमान रावण को उसके समूचे वंश सहित उसकी ही नगरी में मिट्टी में मिलाकर राख कर दिया था। ऐसे सर्वसमर्थ राम के सामने उनकी ही सभा में, उनकी ही प्रजा, उनकी प्रिया को प्रवंचित कर रही है? और श्रीराम सिंहासन की मर्यादा में बँधे हुए अवश बैठे हैं? सिर्फ इसलिए की उन्होंने जीवन भर मर्यादा का पालन करने का संकल्प लिया है? राम जो मन, वचन, कर्म से धर्म का पालन करते हैं, उसे अधर्म और सामाजिक पतन का कारण बताया जा रहा है वह भी उनकी अपनी ही प्रजा के द्वारा? निर्दोष, निष्कलंक जानकी के स्वीकार को उनकी अपनी अयोध्या एक विकार के रूप में देख रही है? श्रीराम को समझ नहीं आ रहा था कि उन्हें क्या करना चाहिए? वे अपने प्राणों से अधिक अपनी जानकी के मान से प्रेम करते थे।
सभा में सन्नाटा छा गया था, श्रीराम को लगा कि वे अभी इसी क्षण इस दुर्बद्धि नीच दुर्मुख का वध कर दें, जो धर्म, समर्पण, शुचिता की साक्षात् प्रतिमूर्ति उनकी प्रिया, उनकी प्रेरणा, उनकी पत्नी सीता के धवल चरित्र को कलंकित करने का कुत्सित कार्य कर रहा है। यह नीच अपने अधर्म का कारण सीता और राम के चरित्र को बता रहा है। यह शठबुद्धि किसी स्त्री के बलात हरण और स्त्री का स्वयं की इच्छा से निर्गमन को एक जैसा बता रहा है? स्त्री का अपनी इच्छा से बिना बताए घर के बाहर जाना क्षरण की शंका को उत्पन्न करता है, किंतु किसी दुष्ट के द्वारा स्त्री की इच्छा के विरुद्ध उसको बलपूर्वक अपहृत ( अपहरण ) कर लिया जाना उस स्त्री के लिए मरण के जैसा होता है। मरण की स्थिति में भी वह अपने चरित्र का क्षरण ना होने दे, अपने मर्म और धर्म को अक्षुण्य, निष्कलंक रखने की इसी क्षमता के कारण परमात्मा ने स्त्री को अपनी श्रेष्ठतम रचना का गौरव प्रदान किया है, अपनी श्रेष्ठता को सीता ने अपने जीवन चरित से सदैव ही प्रमाणित किया है, अपने सतीत्व को भीषण अग्निपरीक्षा से प्रमाणित करने के बाद भी अयोध्या ने आज उसके मान का मर्दन कर अपनी असहिष्णु और निर्दयी मानसिकता को प्रमाणित कर दिया।
माता और मातृभूमि तो सदैव ही प्राणी के कल्याण, परिष्कार और उद्धार के कारक होते हैं, किंतु यह कैसी विडम्बना है कि राम के लिए ये सदैव ही कंटक और तिरस्कार के मार्ग को प्रशस्त करती आ रही हैं? क्रोध के आवेग में श्रीराम दुर्मुख की जीवन लीला समाप्त करने के लिए सिंहासन से उठना ही चाहते थे कि अचानक उन्हें लगा कि जैसे किसी ने उन्हें चेताया हो- राम.. तुम किसी व्यक्ति की हत्या तो कर सकते हो किंतु उसके विचारों की नहीं। व्यक्ति का समाप्त हो जाना विचार का समाप्त होना नहीं होता, बल्कि व्यक्ति के मरते ही विचार और बलवती हो जाते हैं। फिर वे एक मुँह से नहीं हजारों हज़ार मुँह से ध्वनित होने लगते हैं। सत्यवचन बोलने वाले की अपेक्षा असत्य भाषण करने वाले व्यक्ति की हत्या ‘उसके असत्य भाषण को सत्य की प्रतिष्ठा दिला देती है।’ स्मरण रखो राम ‘असत्य जब सत्य की प्रतिष्ठा पाता है तब वह मात्र व्यक्ति का ही नहीं बल्कि समूचे राष्ट्र, संस्कृति, सभ्यता के क्षरण और मरण का कारक हो जाता है।’
तुम्हारे हाथों, तुम्हारी ही सभा में इस दुराचारी दुर्मुख की हत्या, प्रजा में इस सम्भावना को जन्म देगी कि कुछ तो सत्य कहा था दुर्मुख ने, जिसने सदैव अविचलित रहने वाले राम को इतना विचलित कर दिया, कि जीवनभर मर्यादा का पालन करने वाला राम अपनी ही राजसभा में अमर्यादित हो गया। राम राजसभा में शस्त्रों का नहीं शास्त्रों का आश्रय लिया जाता है। इस दुष्टात्मा दुर्मुख ने सीता और राम के ऊपर शस्त्रों से नहीं शब्दों से प्रहार किया है। जिसका प्रत्युत्तर यदि राम शस्त्र से देगा तो वह धर्मज्ञ होते हुए भी अधर्मी कहा जाएगा, संसार कहेगा कि राम की राजसभा में उसकी प्रजा को अपने विचार रखने की, बोलने की स्वतंत्रता नहीं है, राम अन्यायी ही नहीं असहिष्णु भी है। इसलिए अपने क्रोध पर नियंत्रण रखो।
श्रीराम को लगा कि सीताराम को पूजने वाली अयोध्या आज राजाराम को घेर कर खड़ी है। राम को हत करके समरभूमि में गिरा देने का असम्भव कार्य लंकाधिपती रावण नहीं कर पाया था, उस कार्य को आज उनके अपने प्यारे अयोध्यावासी कर रहे हैं? ये राम को हत ही नहीं- क्षत, विक्षित और आहत करके सभाभूमि में गिरा देना चाहते हैं? राम देख रहे थे कि दुर्मुख के असत्य, अनर्गल प्रलाप का सभा में उपस्थित किसी भी सभासद या प्रजा के प्रतिनिधि ने प्रतिकार नहीं किया, जबकि ये सभी बहुत अच्छे से इस सत्य को जानते हैं कि सीता, राम की कर्मणा शक्ति हैं, उनका प्राण हैं, उनका गौरव हैं- सीता के बिना यह शिवस्वरूप राम, शवरूप राम हो जाएगा।
राम दुविधा में पड़ गए- यह प्रतिवादी राम से न्याय चाहता है? किंतु इसने न्यायाधीश राम के ऊपर ही आरोप लगाते हुए, राम को ही दोषी बता दिया इस स्थिति में राम के द्वारा किया गया कोई भी न्याय संदिग्ध ही माना जाएगा। राम को लगने लगा कि आज राम के द्वारा दिया गया कोई भी फैसला राम के विरुद्ध ही होने वाला था। दशानन रावण ने भी सीता को राम से अलग करने का प्रयास किया था परिणामस्वरूप राम ने रावण के अस्तित्व को समाप्त कर उसे धूल में मिला दिया था, किंतु आज अयोध्या ने ही जैसे रावण का रूप धर लिया है और राम से रावण की हत्या का प्रतिकार लेने के लिए राम के विरुद्ध होकर उन्हें घेर कर खड़ी हो गई है। आज रावण की लंका नहीं राम की अपनी अयोध्या ही सीता और राम को एक दूसरे से अलग कर देना चाहती है। रावण शक्ति के बल पर सीता को राम से छुड़ा कर ले जाना चाहता था, और अयोध्या अपनी भक्ति की दुहाई देते हुए उन्हें सीता को छोड़ने के लिए बाध्य कर रही है। राम की चरण पादुकाओं को पूजने वाली अयोध्या आज राम के आचरण को प्रदूषित मान रही है?
तो क्या अयोध्या के इस दुष्कृत्य के लिए राम को अपनी अयोध्या को भी उखाड़कर फेंक देना चाहिए? राम अपमान की अग्नि में जल रहे थे। उन्होंने तय कर लिया कि सीता को त्यागने से कहीं अधिक अच्छा होगा, कि वे अपनी प्रियतमा, अपनी निर्दोष पत्नी सीता को साथ लेकर इस अयोध्या का ही त्याग कर दें। एक बार पिता के मान, उनके संकल्प की रक्षा के लिए उन्होंने अयोध्या का त्याग किया था, तो इस बार पत्नी के सम्मान, उसके सतीत्व की रक्षा के लिए वे अयोध्या का त्याग करेंगे। राम ने अपने आराध्य महादेव शिव का स्मरण किया, महादेव के स्मरण मात्र से राम प्रकृतिस्थ हो गए।
उन्होंने निर्विकार भाव से सम्पूर्ण सभा को देखा, वे सिंहासन से उठकर अयोध्या को त्यागने की घोषणा करने ही वाले थे- कि उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उनके अंदर समाधिस्थ महादेव शिव अपनी समाधि को भंग कर उनके सामने खड़े हुए हैं। अपने इष्ट समाधिस्थ शिव को अपने सामने देख श्रीराम ने अपने दोनों हाथ जोड़कर उनको प्रणाम किया, और महादेव भी अपने इष्ट श्रीराम को देखकर शीश झुकाते हुए उनसे निवेदन करते हुए बोलने लगे- प्रभु.. अपनी माता और मातृभूमि से तप्त, संतप्त, प्रताड़ित, पीड़ित, प्रवंचित, अपमानित होने के बाद भी अपनी माता और मातृभूमि का त्याग नीतिपूर्ण नहीं है। साधुपुरुष माता और मातृभूमि से अपार कष्ट मिलने की बाद भी उनका त्याग कर उनके कष्ट के कारण नहीं बनते, अपितु स्वयं नष्ट होकर भी उनके अभीष्ट की पूर्ति के कारक होते हैं। पिता के मान की रक्षा के लिए जब आपने अयोध्या छोड़ी थी उस समय महाराज दशरथ जीवित थे, अयोध्या सनाथ थी। किंतु इस समय आपका अयोध्या को त्यागना उसे अनाथ बना देगा, जो अयोध्या में भीषण अराजकता का कारण बनेगा। अयोध्या का जगदम्बा सीता और आप पर अनर्गल आरोप लगाना अयोध्या के क्षरण होते चरित्र का संकेत है, अयोध्या रोग से पीड़ित हो रही है प्रभु। रोगग्रस्त अवस्था में माता और मातृभूमि का त्याग जघन्य पाप की श्रेणी में आता है।
प्रभु आप परिस्थितियों से पलायन करने वाले राम नहीं हैं, आप तो पतितपावन सीताराम हैं.. जो संसार के समस्त पापों को स्वयं ग्रहण कर पतित को पावन बना देते हैं। महादेव की दूर से आती हुई ध्वनि को सुनते हुए राम जैसे आत्मलीन हो गए थे। उन्हें अपनी दुविधा का अंत दिखाई नहीं दे रहा था।
और तभी अचानक श्रीराम को लगा जैसे दुविधा की इस घड़ी में सदैव उनकी सुविधा का मार्ग प्रशस्त करने वाली उनकी वैदेही हृदय में बैठकर मुस्कुराते हुए बोलने लगीं- राजीवलोचन, आप अयोध्या के सम्राट हैं किंतु जब मैं और आप राजभवन में माताओं के साथ होते हैं उस समय आप अपने किस रूप की मर्यादा का पालन करते हैं- सम्राट राम की? या पुत्र राम की? या पति राम की? राम ने कहा जानकी माताओं के समक्ष राजभवन में संसार का कोई भी सम्राट पुत्र ही होता है इसलिए उस समय सम्राट या पति की मर्यादा का पालन अनीतिपूर्ण है, वहाँ तो पुत्र धर्म का निर्वाह ही कल्याण और सुख का हेतु है। वैदेही की आँखों में उनके जवाब से प्रसन्नता उत्पन्न हुई। वे बहुत लालित्य के भाव से उनकी ओर देखते हुए बोलीं- हे महाबाहु पौरुष के प्रतीक मेरे प्राणबल्लभ जब आप अपने शयनकक्ष में मेरे साथ होते हैं तब आप सम्राट राम, पुत्र राम या प्रेमी राम में से किस मर्यादा का पालन करते हैं?
राम प्रेम में पगे हुए से बोले- प्राणबल्लभी उस समय यह सम्राट मात्र, तुम्हारा दास-तुम्हारा प्रेमी होता है। जानकी उनके इस उत्तर को सुनकर उन्हें स्त्रियोचित मान से देखते हुए बोलने लगीं- कमलनयन जब आप अपने मित्र सुग्रीव की प्राण रक्षा के लिए सनद्ध थे, उस समय आपने बिना किसी द्वन्द्व के- संसार के सारे धर्मों को एक तरफ रखते हुए सिर्फ मित्र की मर्यादा का पालन किया, आपने तनिक भी नहीं सोचा की बाली का पेड़ के पीछे खड़े होकर उसका वध करने के कारण संसार आपके पुरुषार्थ को, आपके बल और रणकौशल को संदेह से देखने लगेगा, आपको संसार अन्यायी कहेगा? तब आपने किसी बात की चिंता नहीं की और सुग्रीव को दिए वचन के अनुसार बाली का वध कर अपने मित्रधर्म की मर्यादा का पालन किया।
राम बोले- तुमने ठीक कहा प्रिये, वचन की पूर्ति कर वचन की मर्यादा का पालन करना तो रघुकुल का आधारभूत मंत्र है।
“रघुकुल रीति सदा चली आइ। प्राण जाएँ पर वचन ना जाइ॥’
सीता ने उत्फुल्लता से कहा- प्रिय राम, आपके प्रति मोहग्रस्त महाराज दशरथ जब आपका राज्याभिषेक कर माता कैकई को दिए गए अपने वचन से पलट जाना चाहते थे, तब आपने पुत्र की मर्यादा का पालन करते हुए अपने पूज्य पिता को वचन भंग के महापातक से बचाया और पिता के वचन को स्वयं का संकल्प बना लिया। आपने राजा और प्रजा दोनों की अनिच्छा के बाद भी वनगमन किया। जबकि आप जानते थे कि आपका वनवास महाराज दशरथ के लिए मरणांतक पीड़ा का कारण हो सकता है, तब आपने मुझसे कहा था कि वैदेही जब पिता अपने पुत्र मोह के कारण अपना वचन भंग करना चाहते हों तब यह पुत्र का कर्तव्य होता है कि वह अपने पिता की वचन पूर्ति का साधक हो ना कि बाधक। क्योंकि वचन के निर्वाह से मिली हुई मृत्यु, वचन भंग करके मिले हुए जीवन से अधिक कल्याणकारी होती है। पुत्र का कर्तव्य अपने पिता को नरक से तारना होता ना कि उन्हें नर्क में डालना। यदि मैं आज महाराज दशरथ के मोह से वशीभूत होकर राज्याभिषेक के लिए तैयार हो गया, तो महाराज जीवन पर्यन्त माता कैकई व अपनी प्रजा से आँखें ना मिला पाएँगे, वे वचनभंग की ग्लानि में जलते हुए नरकीय जीवन की यातना को भोगते रहेंगे।
सीता के कथनों को राम जैसे अपने हृदय में लोप रहे थे, सीता बोलीं- हे रघुकुलभूषण, आप जब अकेले ही वन जाने की तैयारी करने लगे तब मैंने आपके साथ वन चलने का हठ किया, आपने मुझे स्पष्ट शब्दों में कहा था कि जनकदुलारी आप मेरे साथ वन नहीं चलेंगी। आप सुख पूर्वक अयोध्या में वास करें, आपका कर्तव्य है मेरी अनुपस्थिति में माता पिता की सेवा करना। परिस्थितिवश जिन कर्तव्यों का निर्वाह मैं नहीं कर पा रहा हूँ उन्हें मेरी वामाँग होने के नाते आप पूरा करते हुए मेरे संकल्प की पूर्ति में सहायक हों। माता कैकई के वचन में मात्र राम के लिए चौदह वर्ष के वनवास का आग्रह है। तब मैंने आपको उपालंभ देते हुए धिक्कारा था, कि अपने संकल्प की पूर्ति के लिए आपको मेरे संकल्प का क्षरण करने का अधिकार किसने दिया राम? विवाह की सप्तपदि में मैंने यह संकल्प लिया था कि मैं अपने पति का साथ उसके जीवन की प्रत्येक परिस्थिति में दूँगी। वे जिस स्थिति में होंगे मैं सदैव उनके साथ सनद्ध रहूँगी, तब आपने कहा था की मैं आजीवन एक पत्नी व्रत का पालन करूँगा सीता, तुम्हारे प्राण तुम्हारे मान की रक्षा करना राम का दायित्व है।
और आज आप मुझे मेरे संकल्प से च्युत होने के लिए विवश कर मेरे मान को भंग करने की चेष्टा कर रहे हैं? मर्यादा पुरुषोत्तम राम, स्मरण रखिए वैदेही सीता को अपने प्राणों से अधिक अपना मान प्रिय है। इसलिए आपसे निवेदन है कि आप मेरी संकल्पपूर्ति में सहायक बनें और मुझे अपने साथ वनवास चलने की अनुमति प्रदान करें। तब आपने अपनी अनिच्छा के बाद भी सहज ही प्रसन्न मन से मेरे संकल्प को स्वयं का संकल्प बना लिया था। राम अपनी पत्नी सीता के द्वारा अपने प्रति प्रकट किए गए भावों से परम संतोष की अनुभूति से भरे हुए थे। क्योंकि किसी भी पति-पत्नी के लिए इस बात का सबसे अधिक महत्व होता है कि वे दोनों एक दूसरे के विषय में क्या सोचते हैं। धर्मनिष्ठ पति पत्नी इस बात की परवाह नहीं करते की संसार उनके सम्बंधों की क्या और कैसी व्याख्या करता है। सीता बोलीं- राम जिस सीता ने संसार का समस्त वैभव त्याग दिया था वही सीता वनवास काल में एक स्वर्णमृग को देख आसक्त हो गई और आपसे हठ कर बैठी कि मुझे यह मृग चाहिए, अनासक्त सीता की मृग में आसक्ति को देख आप आश्चर्य से भर गए थे? आपको याद है तब आपने मुझसे क्या कहा था?
राम को जैसे इस पूरे वार्तालाप में अब आनंद आने लगा था, राम बोले- हाँ.. मैंने कहा था सीते यह मृग नहीं ‘मृगमरीचिका’ है। अकल्पनीय का साक्षात् स्वरूप ही माया कहलाता है। वनवासी राम की अनासक्त भार्या सीता की, माया में आसक्ति मर्यादा का अतिक्रमण है सीते। हमें स्मरण रखना चाहिए सीता की मर्यादा का अनावश्यक उल्लंघन हमारे कष्ट का कारण हो सकता है। सीता हँसते हुए बोलीं- जी प्रिय राम आप बिल्कुल सही थे, मर्यादा के उल्लंघन के दुष्परिणामों को सीता से अधिक कोई नहीं जानता। आपकी वर्जना के बाद भी मैंने आपसे हठ किया था, कि संसार आपको मायापती और मुझे माया कहता है, तो माया की ‘माया में आसक्ति’ होना कोई अन्यथा बात तो नहीं है? मैं देखना चाहती हूँ कि मायापती जो सदैव माया के आगे चलते हैं, आज अपने से आगे चलने वाली माया को, इस मायामृग को कैसे नियंत्रित करते हैं?
राम अतीत के उस दुर्भाग्यशाली क्षण को स्मरण करते हुए विषाद से भर गए, व करुणा से देखते हुए बोले- मुझे अच्छे से स्मरण है सीते उस समय मैंने तुमसे कहा था- सीते मायापती का माया के पीछे भागना घोर अनर्थ का कारण होता है। मायापती से आगे भागती हुई माया नियंत्रित नहीं निष्प्राण होती है। राम ने बेहद गहरी दृष्टि से सीता की आँखों में देखते हुए बोला- सम्भवत: परमात्मा चाहता है कि राम अपनी प्रिया की इस अनुचित इच्छा की पूर्ति के लिए मर्यादा को भंग करके मर्यादा के महत्व को समझे। किंतु प्रिये जब तक मैं वापस ना आऊँ तुम अपने आश्रम की मर्यादा में ही रहना, राम तुम्हारा प्रेमी है सो तुम्हें आदेश देने की धृष्टता नहीं कर सकता, मात्र आग्रह ही कर सकता है। आशा है तुम अनिश्चित लक्ष्य के पीछे भागते हुए इस वनवासी राम के आग्रह को स्वीकार कर उसका पालन करोगी?
सीता ने कहा- जी, उस समय ना मैंने आपके आग्रह का पालन किया और ना ही मैं लक्ष्मण रेखा की मर्यादा में रही। अपने इष्ट राम के अनिष्ट की चिंता ने मुझे विचलित ही नहीं भ्रमित भी कर दिया था। फिर बेहद ममत्व से मुस्कुराती हुई बोलीं- किंतु प्रभु, भ्रम और विचलन तो माया का सहज स्वभाव होता है। माया मात्र मायापती की उपस्थिति में ही अभ्रमित और अविचलित रहती है। उस समय मेरे भ्रमित, शंकालु चित्त का अनुमान आप इसी बात से लगा सकते हैं कि मैंने अपने पुत्र सदृश्य लक्ष्मण से ऐसे कटुवचन कहे जिसकी कल्पना से मैं आज भी ग्लानि से भर जाती हूँ। जिस लक्ष्मण ने मन कर्म वचन से मुझे माता माना है, उसके निष्कलंक चित्त को मैंने अपनी चिंता के कारण कलंकित कर दिया था। मेरे द्वारा अपमानित प्रवंचित होने के बाद भी मेरा लाड़ला लक्ष्मण अपनी माता सीता से रोते हुए निवेदन करके गया था कि माता पुत्र अपनी माता को आदेश तो नहीं दे सकता किंतु प्रार्थना कर सकता है कि आप इस समय निपट अकेली हैं, इसलिए कृपया अपने आश्रम की सीमा का उल्लंघन मत कीजिएगा। आपकी आशंका का निवारण करने के लिए, आपके आदेश का पालन करने वाला यह लक्ष्मण आज पहली बार अपने भाई के आदेश का उल्लंघन करने का महापाप कर रहा है। माता श्रीराम आपकी सुरक्षा का दायित्व मुझे सौंप कर गए हैं, सो मेरे निवेदन को धृष्टता या स्वयं की अवज्ञा की श्रेणी में मत रखिएगा, इस समय मात्र मेरे द्वारा निर्धारित रेखा का पालन ही आपका एकमात्र धर्म है। इसके अलावा अन्य किसी भी धर्म का निर्वाह अधर्म की सृष्टि कर सकता है।
राम, कितना सही कहा था मेरे पुत्र ने, एक साधु को अपने आश्रम के दरवाजे पर भिक्षा का निवेदन करते देख मैं अपने पति और अपने पुत्र की वर्जना के बाद भी उस निर्धारित धर्म का पालन नहीं कर सकी उसका उल्लंघन कर बैठी। राम, सत्य ही धर्म का अतिक्रमण ही तो अधर्म की सृष्टि करता है। मैं आज इस बात के महत्व को समझती हूँ कि सीमाओं का पालन हमारे अधिकारों का हनन नहीं होता। वर्जनाएँ सदैव हमारी प्रतारणा का कारण नहीं होतीं, वे हमारे परिष्कार में भी सहायक होती हैं। किंतु हम बहुधा वर्जनाओं को अपने स्वा के अधिकार का हनन मानते हैं, हमारा यही अज्ञान हमारे हरण, क्षरण, मरण का कारक होता है। किस अन्य के द्वारा निर्धारित वर्जना और अपने अनन्य के द्वारा निर्धारित वर्जना के बीच बारीक भेद को ना समझ पाने के कारण हम जीवनपर्यंत द्वन्द्व की पीड़ा से पीड़ित रहते हैं।
अपने अतीत के सर्वाधिक अप्रिय प्रसंग को स्मरण करते हुए सीता बहुत भावुक हो गयीं थीं। राम ने जैसे उन्हें अपने अंक में भर लिया। वे सीता के बुद्धिचातुर्य उनकी साहसिक स्वीकारोक्ति से उनके प्रति श्रद्धा से भर गए थे। सीता-राम जानते थे कि स्वयं की त्रुटियों को स्वीकार करना संसार का सबसे कठिन कार्य होता है, यह व्यक्ति के निरअहंकारी चित्त की घोषणा होती है। अपनी पत्नी को पूर्व की ग्लानि से मुक्त करने हेतु राम मुस्कुरा दिए और बोले- यह परस्पर भाव है जानकी, मायापती भी तो अपनी प्रिया माया के आग्रह को पूरा करने के लिए मायामृग के पीछे दौड़ने लगे थे। और वहाँ जाकर पता चला की यह स्वर्णमृग नहीं बल्कि सत्य ही मृगमरीचिका है, मायावी मृग में मारीच की काया। सीता, राम की संवेदनशीलता उनकी बुद्धिमत्ता पर स्वयं को हारती हुई सी बोलीं, आप अद्भुत हैं, क्षण भर में व्यक्ति के शोक का, अज्ञान का हरण कर आप उसे हर्ष और ज्ञान से भर देते हैं, कितनी सरलता से आपने मृगमरीचिका का अर्थ स्पष्ट कर दिया। हे आनंदनंदन, सदा दूसरों के संकल्प को स्वयं का संकल्प बना कर पूरा करने वाले, मित्र और शत्रु के अभीष्ट को निष्पक्ष भाव से पूर्ण करने वाले, बाधक और साधक को समान महत्व देने वाले, अपने सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक अपूर्ण व्यक्ति को पूर्णता से भरने वाले हे पूर्ण ब्रह्म, आज आप अनायास ही इतने व्याकुल क्यों हो गए?
तभी सभा में हल्का सा कोलाहल हुआ जिसे सुनकर श्रीराम की तंद्रा टूटी, उन्होंने देखा कि महामंत्री सुमंत्र उनसे कुछ निवेदन करना चाह रहे हैं। उन्होंने भावशून्य दृष्टि से महामंत्री की ओर देखते हुए बोलने की आज्ञा प्रदान की। महामंत्री ने संकोच सहित उच्च स्वर में बोलना आरम्भ किया जिससे सारी सभा में उनका निवेदन स्पष्ट सुनाई दे- रघुकुलभूषण मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, सभा में उपस्थित सभासद चाहते हैं कि आप अपना कोई भी निर्णय देने से पहले साम्राज्ञी सीता को सभा में बुलाकर उन्हें अपना अभिमत स्पष्ट करने का अवसर प्रदान करें, जिससे वे दुर्मुख व उसकी पत्नी सौभाग्यवती दुर्मती के द्वारा उनके चरित्र के ऊपर लगाए गए लांछन का उचित प्रतिकार सप्रमाण प्रस्तुत कर स्वयं को शुद्ध सिद्ध कर सकें। सभा का मत है कि दोनों पक्षों को बराबरी से सुनने के बाद ही सम्राट अपना निर्णय घोषित करें।
महामंत्री के कथन को सुनकर श्रीराम सन्न रह गए, उन्हें लगा की उनके शरीर का सम्पूर्ण रक्त जैसे बहुत तेजी के साथ उनके मस्तिष्क में भर गया हो, वे अपमान की ज्वाला में धधकने लगे। महामंत्री का सुझाव उन्हें शूल के जैसा चुभ रहा था। न्याय के नाम पर अयोध्या अपनी साम्राज्ञी, एक स्त्री की अस्मिता के साथ बहुत घिनौना खेल खेलने की तैयारी में है, शालीनता, समानता के नाम पर वह भरी सभा में सीता के पति, उसके गुरुजनों, उसके परिजनों के सामने उसके शील की धज्जियाँ उड़ाकर उसका ‘शीलहरण’ करना चाहती है? अपनी सीता के मान की आजीवन रक्षा का संकल्प लेने वाला राम, क्या आज अपनी पत्नी के शील को ध्वस्त कर उसके चरित्रहरण के इस कुत्सित प्रयास से उसके शील, उसके सतीत्व, उसके गौरव की रक्षा कर पाएगा? श्रीराम को लगा की वे जैसे मूर्छित हो रहे हैं।
श्रीराम को लगा जैसे सीता ने गिरते हुए राम को सहज ही अपने अंक में सहेज लिया हो। इस कठिन समय में वह उनकी सच्ची सहधर्मणी का धर्म निभाते हुए अचल खड़ी थीं। अपने पति की राजमर्यादित विवशता का जैसे उन्हें पूरा भान था, वे देख रहीं थी कि राम अपमान की अग्नि में जल रहे हैं। सीता ने राम के प्रति अपनी सम्पूर्ण निष्ठा को अनावृत करते कहा-
राम इस समय आप रघुवंश की राजसभा में उसके गौरवशाली राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित राजाराम हैं, और राजा का कर्तव्य होता है अपनी प्रजा के संताप का, उसकी शंकाओं का पूर्ण शमन करना। प्रजा के सुख और संतोष के लिए यदि राजा को स्वयं असंतोष की अग्नि में जलना पड़े तब भी उसे प्रजा को संतोष प्रदान करना चाहिए। राजा के लिए अपने प्रियजन, परिजनों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण व सर्वोपरी उसके प्रजाजन होते हैं। इस समय मात्र राजा की मर्यादा का पालन करना ही आपका एकमात्र धर्म है। मैं आपके हृदय के इस सत्य को भलीभाँति जानती हूँ कि आपकी प्राणप्रिय सीता पर यह अभियोग यदि इस दुष्ट दुर्मुख ने राजभवन में या अन्य किसी स्थान पर लगाया होता तो अब तक श्रीराम ने इस नीच का सर धड़ से अलग कर दिया होता। परम पुरुषार्थी मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को इस तरह विचलित होने का अधिकार ही नहीं है। आप प्रसन्न मन से अपनी सीता को अयोध्या की राजसभा में अपनी शुद्धता, अपना सतित्व प्रमाणित करने का आदेश दीजिए।
सीता के इस प्रस्ताव को सुनकर राम ने अपने दोनों कानों को पूरी शक्ति से अपने हाथों से मूँद लिया जैसे वे इस प्रस्ताव को सुनना तो दूर इस पर विचार भी नहीं करना चाहते थे। और सम्राट के आधिकारिक स्वर में बोल पड़े- अनर्गल, निराधार आरोपों से पैदा होने वाला अपमान अग्नि में जलने के जैसा होता है सीता। लंका विजय के बाद आप ऐसे ही अनर्गल, असत्य, अप्रिय, अपमानजनक अभियोग की अग्नि में प्रवेश करके स्वयं को निर्दोष, निष्कलंक प्रमाणित कर चुकी हैं। वहाँ पर उपस्थित समस्त जनसमुदाय के सभी प्रश्नों, शंकाओं, अनुमानों का आपने सार्वजनिक रूप से उचित प्रतिकार कर अपने निर्विवाद सतित्व को प्रमाणित कर दिया था। जनता जनार्दन का रूप होती है इसलिए वह सर्वोच्च अदालत मानी जाती है, जब आप अपने ऊपर लगाए गए इन्हीं आरोपों को जनताजनार्दन की सर्वोच्च अदालत में एक बार अनर्गल, मिथ्या, अप्रमाणिक सिद्ध कर चुकी हैं, तब फिर से उन्हीं आरोपों का खंडन करना, आपकी गरिमा आपकी अस्मिता, आपके मान का अपमान ही नहीं, अपितु अन्यायपूर्ण भी है।
राम अपनी मर्यादा के पालन के लिए, उसकी रक्षा के लिए अपनी पत्नी को बार-बार अग्निपरीक्षा देने हेतु विवश करे, यह राम को स्वीकार नहीं है। अपनी अयोध्या के द्वारा प्रज्ज्वलित अपमान की अग्नि में इस बार राम की प्रेयसी, उसकी पत्नी सीता नहीं, स्वयं राम प्रवेश करेगा। यह सीता की अग्निपरीक्षा नहीं है, यह ‘सीता के राम’ की अग्निपरीक्षा है। श्रीराम का मुख संकल्प के गौरव से दमक रहा था, वे सीता की ओर विश्वासपूर्ण दृष्टि से देखते हुए बोले- सीता तुम्हारे प्रेमी राम का तुम्हें वचन है कि- राम, सीता के लिए उत्पन्न होने वाली संसार की समस्त शंकाओं के शमन होने तक अपमान की इस धधकती हुई ज्वाला में बैठा रहेगा, सीता के धवल चरित्र की ओर आने वाले संदेह, अपमान के प्रत्येक बाण का आघात रघुवंशी राम सहर्ष अपने वक्ष पर धारण करेगा। जिस राम की निष्कलंकता की रक्षा के लिए तुमने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया, वह राम, सीता की निष्कलंकता के प्रमाण के रूप में, स्वयं को कलंकित करते हुए सृष्टि के अंत तक इस सृष्टि पर वर्तमान रहेगा। तुम्हारा पति राम तुम्हें वचन देता है प्रिये, कि मैं सीतापति राम आज स्वयं खंडित होकर तुम्हारी अखंड अस्मिता की रक्षा करूँगा। तुम्हें धिक्कारने के महापाप का दंड, सीता को राम से अलग मानते हुए- राम को पूजने वाली इस प्रजा को निश्चित ही भोगना होगा।
मैं मर्यादा पुरुषोत्तम राम इन्हें श्राप देता हूँ की-इनके जीवन की समस्त शंकाओं का निवारण करने वाला राम, इनकी समस्त समस्याओं का समाधान करने वाला राम, इनके आराध्य, इनके ईश्वर राम के प्रति ये सदैव शंका और अविश्वास के भाव से भरे रहेंगे, इनके हृदय में संकल्प का नहीं विकल्प का उदय होगा, इसलिए ये निद्र्वन्द्व नहीं, सदैव द्वन्द्व की पीड़ा से ग्रसित रहेंगे, राम और सीता जो द्वैत नहीं अद्वैत हैं, उनको एक दूसरे से अलग करके देखने वाले, हमारी अखंड अस्मिता को खंडित करने वाले ये सभी, जन्मों-जन्मों तक खंडित जीवन जीने के दंश से भरे रहेंगे।
राम के इस प्रलयकारी संकल्प की घोषणा ने सीता को अंदर तक कँपा दिया, किंतु श्रीराम अविचलित से उन्हें देखते हुए बोले- मान, सम्मान, यश, प्रतिष्ठा, कीर्ति, राज-पाठ, वैभव, ऐश्वर्य को तो मन, कर्म, वचन से त्यागा जा सकता है सीते, क्योंकि ये सभी हमारे अर्जन हैं, हमारी उपलब्धियाँ। किंतु स्वयं के अस्तित्व, स्वयं की पूर्णता का त्याग परमात्मा के लिए भी असम्भव है, क्योंकि पूर्ण से पूर्ण को अलग करने पर भी वह पूर्ण ही रहता है। सीता राम की उपलब्धि नहीं उसका अस्तित्व है। जैसे आत्मा हमारा स्वामी होता है किंतु इसके बाद भी वह हमें दिखाई नहीं देता, परिणामस्वरूप हम दिखाई देने वाले शरीर को ही अपना मूल अस्तित्व मान बैठते हैं, और शरीर के स्वागत, सत्कार, संस्कार, परिष्कार में जुट जाते हैं, उस समय हम अपनी आत्मा के परिष्कार को विस्मृत कर देते हैं। सीते, काल की गति का प्रभाव शरीर पर पड़ता है आत्मा पर नहीं। आप राम की आत्मा हैं, सीता रूपी आत्मा को अपने बहुत भीतर धारण करने वाला राम का यह शरीर ही आज से समस्त रोग, शोक, विषाद को भोगता रहेगा, किंतु अपनी आत्मा का क्षरण नहीं होने देगा। अपने शरीर को कष्ट देकर मैं अपनी आत्मा सीता का परिष्कार करते हुए यह निश्चित करूँगा कि उसे अपने इष्ट की, अभीष्ट की उपलब्धि हो। सीता का गौरव उसका मान अक्षुण्य रहे, इसलिए मैंने आपको इस पूरे परिदृश्य से हटाने का निर्णय ले लिया है। सम्राट श्रीराम ने निह्शंक दृष्टि से सभी सभासदों की ओर देखा, उनके चेहरे से मानों एक दैवीय कांति फूट रही थी। श्रीराम ने स्थिर नेत्रों से सभा की ओर देखते हुए स्पष्ट और गम्भीर स्वर में कहा- पूज्य गुरुदेव, आदरणीय महामंत्री, उपस्थित सभासद मैंने दुर्मुख के सम्पूर्ण पक्ष और उसे पुष्ट करने वाले उसके सभी तर्कों को धैर्यपूर्वक सुना, मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि रघुवंशी राम के राज्य में उसकी प्रजा बिना किसी भय के अपने सम्राट के विरुद्ध भी सभाभवन में अपने पक्ष को रख सकती है। यह इस बात का प्रमाण है कि राम अयोध्यावासियों के मात्र भूखंड का ही नहीं, उनके भावखंड का भी रक्षक है। यदि माननीय सभा मुझे अनुमति दे, तो अपना निर्णय देने से पहले मैं दुर्मुख से कुछ तथ्यों को स्पष्ट करना चाहता हूँ?
महामंत्री सुमंत्र ने अपने आसन से खड़े होते हुए कहा- सम्राट न्याय की संदिग्धता समाप्त करने के लिए न्यायाधीश का अपने सभी संशयों का निवारण करना अनिवार्य होता है, अत: इसके लिए आपको सभा की अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं है। श्रीराम सुमंत्र को धन्यवाद देते हुए बोले- दुर्मुख, तुम्हारा यह अभियोग साम्राज्ञी सीता के विरुद्ध है? सम्राट राम के विरुद्ध है? या पति-पत्नी सीताराम के विरुद्ध? सत्ता जब समाज को महत्वपूर्ण मानती है तब सहज ही समाज भी स्वयं को सत्ता के समकक्ष मान लेता है, दुर्मुख ने अहंकारजनित स्वर में कहा सम्राट दुर्मुख का अभियोग गृहस्थ धर्म का पालन करने वाले सामान्य से सीताराम पर नहीं है, और ना ही उस साम्राज्ञी पर जो मात्र विवाह की सप्तपदि की रस्मों को पूरा करके साम्राज्ञी के पद पर आसीन है। दुर्मुख का अभियोग सम्राट श्रीराम के विरुद्ध है, क्योंकि सम्राट और समाज दोनों ही एक दूसरे के प्रतिबिम्ब होते हैं।
श्रीराम ने बेहद गहरी दृष्टि से दुर्मुख को देखते हुए कहा- दुर्मुख किसी सम्राट के अधिकार क्षेत्र में किसी पति को अपनी पत्नी का त्याग करने के लिए विवश करना नहीं आता। अत: सम्राट राम, गृहस्थ सीताराम को अपनी पत्नी त्यागने का आदेश देकर सम्राट पद की मर्यादा का उल्लंघन नहीं कर सकता। किंतु सम्राट राम अपनी प्रजा के संतोष के लिए अपनी साम्राज्ञी का परित्याग अवश्य करता है। “स्वयं के संतोष के लिए किसी को मन, वचन, कर्म से तजना ‘त्याग’ होता है, किंतु ‘पर’ ( दूसरे ) के संतोष के लिए किसी का त्याग ‘परित्याग’ कहलाता है।” मैं सम्राट राम, सीता को स्वयं में धारण करते हुए प्रजा के संतोष लिए उनका त्याग नहीं, परित्याग करता हूँ। साथ ही एक सदगृहस्थ के नाते संकल्प लेता हूँ कि मैं सीताराम जीवनपर्यंत अपना सम्पूर्ण जीवन उसी स्थिति में व्यतीत करूँगा जिस स्थिति में मेरी धर्मनिष्ठ पत्नी सीता रहेंगी। मैं अयोध्या के समस्त वैभव के बीच रहते हुए जीवनभर वनवासी के धर्म का पालन करूँगा। मैं सम्राट राम लक्ष्मण को आदेश देता हूँ कि वे साम्राज्ञी सीता को मेरे ही राज्य में स्थित महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में व्यवस्थित करने के कार्य को संपादित करें।
इस घोषणा के साथ ही सभाभवन श्रीराम की जयघोष के जयकारों से गूँज गया, लोग जयकारे लगा रहे थे, रामराज्य अमर रहे.. मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की जय। सभाभवन के गहरे अंधकार में अकेले खड़े हुए श्रीराम का क्रंदन प्रजा के वंदन पर भारी पड़ रहा था, आज मर्यादा की विजय के लिए पुरुषोत्तम को परास्त होना पड़ा था।
कि तभी उस गहरे अंधकार में उन्होंने देखा की संसार को विष के ताप से मुक्त करने के लिए अपने कंठ में हलाहल को धारण करने वाले महादेव शिव प्रणाम की मुद्रा में खड़े हुए उन्हें निहार रहे हैं, महादेव परम श्रद्धा से भरे हुए बोलने लगे- प्रभु, जिस समाज के लिए स्त्री भावना नहीं, मात्र भोग्या है। जहाँ स्त्री आस्था का नहीं, मात्र अधिकार का विषय है। जहाँ स्त्री को मात्र सत्ता और सम्पत्ति के जैसा देखा जाता है, सभ्यता और संस्कृति के जैसा नहीं। जो समाज स्त्री को व्यक्ति नहीं मात्र वस्तु सदृश्य मानता है, उस पतित समाज से अपनी पत्नी की पवित्रता की, उसके मान की रक्षा करना आपके अद्वितीय पराक्रम का प्रमाण है। हे श्रीराम मैं आपकी बुद्धि, आपके विवेक, आपके साहस, आपकी सहनशक्ति को प्रणाम करता हूँ, आपने कितनी कुशलता से मातेश्वरी सीता और उनके गर्भ से उत्पन्न होने वाली अपनी संतान के गौरव और मान की रक्षा कर ली, आपका प्रत्यक्षत: अन्यायपूर्ण दिखने वाला यह निर्णय कितना न्यायपूर्ण है, आपने अपने एक निर्णय से माता सीता के धवल चरित्र की ओर आने वाले सभी शंका, संदेह, कलंक के बाणों को अपनी ओर मोड़ कर स्वयं को ही भेद लिया और उनके सम्पूर्ण चरित्र को निष्कलंक रहने की व्यवस्था बना दी। यह आपका उनके प्रति अपार प्रेम का प्रमाण है प्रभु क्योंकि आप जानते हैं कि एकांत और अभाव से मिलने वाला सम्माजनक जीवन, समृद्धि से सम्पन्न सार्वजनिक अपमानपूर्ण जीवन से कहीं अधिक कल्याणकारी होता है।
प्रभु यदि देखा जाए तो यह आपके द्वारा किया गया सच्चा प्रायश्चित है, जो माता को एक बार अग्निपरीक्षा देने की एवज में आप आज स्वयं ही सदा-सदा के लिए अग्नि में बैठ गए।