सेना को बदनाम करने का षड्यंत्र
भारतीय सेना सदैव से कम्युनिस्टों के निशाने पर रही है। सेना का अपमान करना और उसकी छवि खराब करना, इनका एक प्रमुख एजेंडा है। यह पहली बार नहीं है, जब एक कम्युनिस्ट लेखक ने भारतीय सेना के विरुद्ध लेख लिखा हो। पश्चिम बंगाल के कम्युनिस्ट लेखक पार्थ चटर्जी ने सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत की तुलना हत्यारे अंग्रेस जनरल डायर से करके सिर्फ सेना का ही अपमान नहीं किया है, बल्कि अपनी संकीर्ण और बीमार सोच का भी परिचय दिया है। तथाकथित समाजविज्ञानी और इतिहासकार चटर्जी ने एक बार पुन: यह सिद्ध किया है कि कम्युनिस्टों के मन में सेना के प्रति कितना द्वेष भरा है। इतिहास गवाह है कि कम्युनिस्टों ने हमेशा सेना का अपमान करने का ही प्रयास किया है। कम्युनिस्ट कभी सेना को बलात्कारी सिद्ध करने के लिए बाकायदा शोध पत्र पढ़ते हैं, तो कभी सैनिकों की मौत पर जश्न मनाते हैं। कम्युनिस्ट सैनिकों को वेतन लेने वाले आम कर्मचारी से अधिक नहीं मानते हैं। सैनिकों की निष्ठा और देश के प्रति उनके समर्पण को पगार से तौलने का प्रयास वामपंथी विचारक ही कर सकते हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर में सेना को बदनाम करने का षड्यंत्र या तो पाकिस्तान रचता है या फिर पाकिस्तान परस्त लोग। सेना पर लांछन लगाकर कम्युनिस्ट भी पाकिस्तान की लाइन पर आगे बढ़ते रहे हैं। वह कौन-सा अवसर है जब कम्युनिस्टों ने जम्मू-कश्मीर में भारतीय सेना को ‘विलेन’ की तरह प्रस्तुत करने की कोशिशें नहीं की हैं? जबकि भारतीय सेना जम्मू-कश्मीर में अदम्य साहस और संयम का परिचय देती है। जम्मू-कश्मीर के लोगों का भरोसा जीतने के लिए उनके बीच रचनात्मक कार्य भी करती है। जब भी प्राकृतिक आपदा आती है, तब यही सेना जम्मू-कश्मीर के लोगों के आगे ढाल बनकर खड़ी हो जाती है। जम्मू-कश्मीर और समूचे देश की सुरक्षा के लिए अपनी जान दाँव पर लगाने वाली सेना और सेना प्रमुख की तुलना जनरल डायर से करना कहाँ तक उचित है? क्या यह सरासर सेना का अपमान नहीं है?
कम्युनिस्ट विचारधारा के लेखक पार्थ चटर्जी का अंग्रेजी में लिखा एक लेख दो जून को कम्युनिस्ट एजेंडे पर संचालित वेबस्थल ‘द वायर’ पर प्रकाशित होता है। इस लेख में चटर्जी सभी सीमाएं तोड़ते हुए लिखते हैं कि कश्मीर ‘जनरल डायर मोमेंट’ से गुजर रहा है। वर्ष 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड के पीछे ब्रिटिश सेना के तर्र्क और कश्मीर में भारतीय सेना की कार्रवाई (मानव ढाल) का बचाव, दोनों में समानताएं हैं। उल्लेखनीय है कि मेजर गोगोई ने कश्मीर घाटी में उपद्रवियों और पत्थरबाजों की हिंसा से पोलिंग पार्टी को बचाने के लिए एक पत्थरबाज को जीप के आगे बांध लिया था। मेजर गोगोई अपनी इस सूझबूझ से बिना गोली चलाए पोलिंग पार्टी और अपने सैनिक साथियों को पत्थरबाजों के बीच से सुरक्षित निकाल कर लाए थे। इस सूझबूझ और साहसी निर्णय के लिए सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने मेजर गोगोई का सम्मान किया था। इस अवसर पर सेना प्रमुख रावत ने एक सवाल के जवाब में यह भी स्पष्ट कह दिया था कि वह अपने सैनिकों को पत्थर खाने और मरने के लिए नहीं कह सकते। उन्होंने पत्थरबाजों से कठोरता से निपटने की बात भी कही थी। मेजर गोगोई के सम्मान और सेना प्रमुख की नई नीति से तमाम पत्थरबाजों के समर्थक नेता और बुद्धिवादी बहुत आहत हुए थे। जिसका प्रकटीकरण हमने देखा भी था। उसी श्रृंखला में पार्थ चटर्जी का यह लेख है। पार्थ ने कहा है कि ‘घाटी में हिंसा से निबटने के लिए सेना वही रणनीति अपना रही है, जैसी जनरल डायर ने अपनायी थी। कश्मीर में आज हालात उतने ही खराब हैं, जितने जनरल डायर के समय थे।’
यह नहीं माना जा सकता कि इतिहासकार पार्थ चटर्जी की इतिहास की समझ इतनी कमजोर होगी कि वह जम्मू-कश्मीर की वर्तमान परिस्थितियों और सेना के रुख की तुलना क्रूर अफसर जनरल डायर के समय एवं उसकी नीतियों से करेंगे। निश्चित ही पार्थ अपने वैचारिक प्रशिक्षण के कारण सेना को बदनाम करने के लिए इतिहास के पन्ने उलट रहे हैं और एक अतार्किक तुलना करके अपने मानसिक दिवालियापन को प्रदर्शित कर रहे हैं। भले ही तमाम विरोध के बाद भी वह अपने कुतर्कों पर अड़े हुए हैं, फिर भी उन्हें अपनी समझ को दुरुस्त करने के लिए एक बार फिर 1919 के जघन्य हत्याकांड को पढऩा चाहिए। किस आधार पर खड़े होकर उन्होंने जनरल डायर की नीति और सेना की नीति की तुलना की है? एक ओर हत्यारे जनरल डायर ने निहत्थे लोगों पर गोली चलाने का आदेश दिया था, वहीं मेजर लीतुल गोगोई ने पत्थरबाजों पर भी गोली चलाने का आदेश देने से इनकार कर दिया था। एक ओर, क्रूर अफसर जनरल डायर ने अपनी सनक से 900 निर्दोष लोगों की जान ले ली थी, वहीं मेजर गोगोई ने अपनी सूझबूझ से हिंसा पर उतारू उपद्रवियों के साथ-साथ अपने साथियों को भी खंरोच तक नहीं आने दी। पूर्वाग्रह से ग्रसित लेखक पार्थ को दोनों परिस्थितियों के अंतर को भी समझना चाहिए। एक ओर, जलियांवाला बाग में स्वतंत्रता के लिए हजारों लोग शांतिपूर्ण सभा एवं प्रदर्शन कर रहे थे, वहीं जम्मू-कश्मीर में प्रदर्शनकारी पाकिस्तान से पैसा लेकर पोलिंग पार्टी और सेना पर पत्थर बरसाने की तैयारी में थे। पार्थ चटर्जी को समझना होगा कि जम्मू-कश्मीर में सेना ने अब तक बहुत संयम के साथ पत्थरबाजों के पत्थर सहे हैं। उपद्रवियों के लात-घूंसे खाकर भी सैनिकों ने अपना आपा नहीं खोया है। एक उम्मीद लिए सैनिक सबसे कठिन परिस्थितियों में भी मजबूती के साथ खड़े हुए हैं। किसी भी अवसर पर सेना ने जम्मू-कश्मीर को जलियांवाला बाग नहीं बनने दिया है।
उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कोई तार्किक और निष्पक्ष लेखक जम्मू-कश्मीर में सेना की नीति की तुलना जनरल डायर की नीति से नहीं कर सकता। यह साफ तौर पर देश के भीतर और बाहर भारत की अनुशासित सेना को बदनाम करने का सुनियोजित षड्यंत्र है। ताकि जम्मू-कश्मीर के नागरिकों के मन में सेना के प्रति और अधिक नफरत उत्पन्न हो। शेष देश में भी सेना के प्रति सम्मान के भाव में कमी आए। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सेना को मानवाधिकारों का हनन करने का दोषी सिद्ध किया जा सके। इस प्रकार के विचारों से सेना के विरुद्ध पाकिस्तान के प्रोपोगंडा को भी ताकत मिलती है। बहरहाल, सेना को बदनाम करने का षड्यंत्र रचने में वामपंथियों को अपने जैसे लोगों का साथ भी मिल रहा है। जम्मू-कश्मीर के अलगाववादियों को पार्थ का लेख बहुत पसंद आया है। कम्युनिस्ट पार्टियाँ भी सेना के प्रति उनके विचारों का समर्थन कर रही हैं। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के पूर्व महासचिव एवं वरिष्ठ नेता प्रकाश करात ने भी पार्टी के मुखपत्र ‘पीपुल्स डेमोक्रेसी’ में लिखे अपने संपादकीय में सेना पर जमकर भड़ास निकाली है। उनकी संपादकीय और पार्थ चटर्जी के लेख का एजेंडा एक ही है-‘भारत की सेना को बदनाम करके उसे कठघरे में खड़ा करना।’ प्रकाश करात ने भी मेजर लीतुल गोगोई की सूझबूझ की आलोचना की है और उनका सम्मान करने के लिए सेना प्रमुख रावत की जमकर आलोचना की है। सेना के प्रति समूची कम्युनिस्ट जमात के विचारों को जानकार स्वाभाविक ही षड्यंत्र की बू आती है। पश्चिम बंगाल में सत्ताधारी पार्टी तृणमूल कांग्रेस के सांसद सौगाता रॉय ने भी कम्युनिस्ट लेखक पार्थ का खुलकर समर्थन किया है। हालाँकि, देशभर में पार्थ चटर्जी के लेख की और उसका समर्थन करने वाले लोगों की जमकर आलोचना भी हो रही है। यह आलोचना स्वाभाविक है, क्योंकि अब देश की जनता को झूठी थ्योरी गढ़कर बरगलाया नहीं जा सकता है। जनता को बौद्धिक बेईमानी का खेल खूब समझ आने लगा है। अब इतना इतिहास तो जनता ने भी पढ़ा है कि जलियांवाला बाग में क्या हुआ था? उसे यह भी समझ है कि कश्मीर में क्या हो रहा है? इसलिए देश की सुरक्षा के लिए अपनी जान दाँव पर लगाने वाले सैनिकों की बदनामी जनता इतनी आसानी से स्वीकार नहीं करेगी।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)