दस्तक-विशेषसाहित्यस्तम्भहृदयनारायण दीक्षित

सोशल मीडिया में सत्य, शिव और सुंदर

 

अभिव्यक्ति हरेक व्यक्ति की स्वाभाविक अभिलाषा है। हम स्वयं को भिन्न-भिन्न आयामों में प्रकट करते हैं। अपने बाल काढ़ने का ढंग, मूंछों को छोटी, बड़ी या सफाचट रखने की हमारी पसंद अभिव्यक्ति ही है। अपने कपड़ों का रंग और डिजाइन भी अभिव्यक्ति की इच्छा का अंग है। अभिव्यक्ति के तमाम रंग-ढंग हैं। हम बहुधा स्वयं को दूसरों से भिन्न बताते हैं – मैं और आदमियों की तरह नहीं हूं कि मैं दूसरी तरह का मनुष्य हूं।” हम इसे अहंकार कह सकते हैं लेकिन बात पूरी सच है। प्रकृति का प्रत्येक प्राणी अद्वितीय और अनूठा है। उसकी अभिव्यक्ति भिन्न होगी ही। अभिव्यक्ति का अपना आनंद है। भाषा इस आनंद को पाने का सहज सुलभ उपकरण है। हम बोलते हैं दिनभर। मित्रों के बीच आपस में अपशब्द भी बोलते हैं। अनुपस्थित की निंदा भी करते हैं। निंदा का रस और भी मजेदार है। कोई मित्र टोंके तो हम तत्काल प्रतिक्रिया देते हैं कि हम किसी से नहीं डरते। सत्य ही बोलते हैं। लिखना भी स्वयं को प्रकट करने का सुंदर माध्यम है। लिखे हुए का प्रचार, प्रसार या प्रकाश सुख देता है। कवि और लेखक इसका भरपूर सुख पाते हैं। 15-20 वर्ष पहले तक लिखे हुए का प्रसार क्षेत्र सीमित था। प्रकाशन के अवसर कम थे। शब्द प्रसार का कोई दूसरा माध्यम नहीं था।
अब विचार प्रसार के ढेर सारे माध्यम हैं। ट्विटर की बहार है। फेसबुक पर “जो चाहो सो” लिखो के अवसर हैं। एसएमएस की भी अनेक प्रजातियां विकसित हुई हैं। चित्र भेजे जा रहे हैं। विचार अभिव्यक्ति का विकास देह अभिव्यक्ति से आगे निकल गया है। बातों और चित्रों का नया व्यापार है। एक पुराना चलताऊ गाना याद आ रहा है “खेत गए बाबा, बाजार गयी मां/ अकेली हूं सजना तू घर आजा।” इसमें ‘साजन’ दिलचस्प प्राणी है। वे प्रेमी है और पति भी। लेकिन बतरस का व्यापार करने वाली कम्पनियों के एसएमएस सौ प्रतिशत सेकुलर और प्रगतिशील है। मेरे सरकारी फोन पर किसी अज्ञात कम्पनी का एसएमएस आता है – आप अकेले हैं तो परेशान क्यों हैं? मुझसे बात करिए।” ऐसे संदेशों में और भी घटिया बातें होती हैं। सोशल मीडिया में इस बतरस को ‘चैटिंग’ कहा जाता है। एक प्रतिष्ठित अखबार में कथित विदेशी शोध छपा था। शोध के अनुसार यौन चर्चा से बुद्धि तीव्र होती है। ऐसा होता तो अश्लील बतरस के अभ्यासी आइंस्टाइन जैसे होते। बेशक गणित के सूत्र, वैज्ञानिक विषय और किसी नई भाषा को समझने के प्रयास मस्तिष्क के नए क्षेत्रों को उत्तेजित करते हैं। इससे बौद्धिकता बढ़ती है।
सोशल मीडिया के मंच ने विचार प्रकट करने का बड़ा क्षेत्र उपलब्ध करवाया है। मूलभूत प्रश्न है कि क्या हम इसका उपयोग सदभाव वृद्धि के लिए कर सकते हैं? क्या हम फेसबुक या ट्विटर पर छोटी सी कविता या कोई प्रेमगीत लिख सकते हैं? क्या हम 8-10 पंक्तियों की सुंदर गद्य रचना अपने मित्रों को भेज सकते हैं। शब्द-शब्द का मिलन प्रीतिपूर्ण होता है लेकिन हमारी असावधानी में वह आग लगाऊ भी हो सकता है। शब्द सार्वजनिक ज्ञान संपदा हैं। हम उनका दुरूपयोग नहीं कर सकते। शब्द भी हमारी आपकी तरह प्राणवान संपदा हैं। शब्द के गर्भ में अर्थ होता है। इस अर्थ का सदुपयोग राष्ट्रजीवन को आनंद से भरता है। शब्द प्रयोग की थोड़ी सी चूक भी अर्थ को अनर्थ तक ले जाती है। ट्विटर, फेसबुक या वाट्सएप आदि के अवसर स्वागत योग्य हैं। कल्पना करते हैं कि गांधी होते तो फेसबुक पर क्या लिखते? लोकमान्य तिलक ‘गीता रहस्य’ की कुछ पंक्तियां जरूर ट्वीट करते। क्या शेक्सपियर अपने मन की भड़ास निकालते। वे जीवन के गहन अन्तर्विरोध को शब्द अर्थ देते। लोग उनके ट्वीट की प्रतीक्षा करते।


आधुनिक पीढ़ी सौभाग्यशाली है। हम सबके समय में संवाद का नया तकनीकी मंच उपलब्ध हुआ है। इसका उपयोग सृजन आनंद के विस्तार में क्यों नहीं हो सकता? मैं आह्लादित हूं कि सोशल मीडिया से ऋग्वेद के एक कल्पनाशील ऋषि की एक इच्छा पूरी हो गई है। ऋषि ने प्रार्थना की थी कि हे देव! मेरे पास सभी दिशाओं से सद्विचार आएं।” सोशल मीडिया के उपकरण सभी दिशाओं से शब्द और रूपायन भेज रहे हैं। उनमें सद्विचार आएं तो पूर्वज ऋषि की मधुअभिलाषा पूरी हो। शब्द आनंद देते हैं। अपशब्द भी कम सुख नहीं देते। इसका प्रमाण फेसबुक, ट्विटर आदि उपकरणों की सामग्री है। आइए एक बार तुलना करें। हम कविता या गीत भेजते हैं तब कितना आनंद मिलता है? हम अपशब्द लिख भेजते हैं तब कितना सुख प्राप्त होता है। यह मूल्यांकन भेजने के सुख तक सीमित नहीं है। क्या अपशब्द पढ़ने वालों की बड़ी संख्या को हमारे द्वारा प्रेषित सामग्री आनंदित करती है? गीत काव्य को पाकर मित्रों को स्वाभाविक ही आनंद मिलता है। हमारे शब्द प्रयोग की शक्ति बड़ी है। हम समाज को घर बैठे आनंदित करने का आनंद क्यों नहीं लेते?
संविधान निर्माता पूर्वजों ने विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी है। यह हमारा मौलिक अधिकार है और मौलिक अधिकार किसी को दुखी करने वाले नहीं होने चाहिए। ‘सोशल मीडिया’ सुंदर नामकरण है। परस्पर विचार विनिमय और संवाद का सहज उपलब्ध मंच। क्या इस मंच को लोकमंगलकारी लोकमत के निर्माण का अवसर नहीं बनाया जा सकता? सोशल मीडिया की सूचनाओं के कारण अनेक अप्रिय संघर्ष हुए हैं। विचार अभिव्यक्ति का संवैधानिक अधिकार असीम नहीं है। लोकव्यवस्था बनाए रखना इसकी मर्यादा है। सिनेमा लोकप्रिय कला माध्यम है। फिल्म प्रदर्शन का कानून है। भारतीय सेंसर बोर्ड फिल्म के अप्रिय प्रसंगों की काट छांट करता है। कभी-कभी उसकी कांट-छांट हम सबको प्रिय नहीं लगती। तो भी यह अभिव्यक्ति संयमन की एक विधिक संस्था है। सोशल मीडिया से जुड़े मित्र स्वयं अपने अंत:करण में इसी तरह की ‘आत्म संयम संहिता’ का विकास कर सकते हैं। मैं कई समाचार पत्रों में नियमित लिखता हूं। 30 साल से ज्यादा हो गए। मैं अपने लेख को लिखने के तत्काल बाद नहीं भेजता। 24 घंटे बाद पुन: जांचता हूं। अप्रिय शब्दों, संदर्भों को सम्पादित करता हूं। पुस्तक लेखन में पुनर्सम्पादन की गतिविधि चार माह तक चलती है। यह मेरी अपनी ‘अभिव्यक्ति संयमन संहिता’ है।
हम सौभाग्यशाली हैं। हमारे विचारशील लेखन के लिए सोशल मीडिया नाम से विशाल मंच उपलब्ध है। हम अपनी टिप्पणी से आशावाद बढ़ा सकते हैं। हम पर्यावरण प्रदूषण के आधारभूत तत्वों पर विचार दे सकते हैं। हम पानी के दुरूपयोग पर ध्यान आकर्षित कर सकते हैं। हम क्रोध से होने वाली व्यक्तिगत व सामाजिक क्षति पर टिप्पणी कर सकते हैं। हम कला के इतिहास की जानकारी फैला सकते हैं। हम माता-पिता और अन्य वरिष्ठों के प्रति सामाजिक सम्मान की भारतीय देशना को शक्ति दे सकते हैं। हम राष्ट्रगीत लिख सकते हैं। प्रेमगीत लिखकर भारतीय सौन्दर्यबोध को नया आकाश दे सकते हैं। हम अंधविश्वास और जादू टोने से ठगने वाले लोगों के प्रति जागरण कर सकते हैं। हम प्रकृति के सभी रूपों के प्रति आस्तिक भाव बढ़ा सकते है। हम अपने नास्तिक होने के कारण बता सकते हैं। जीवन की गतिविधि विराट है। यहां अनेक रूप और विषय हैं। हम किसी भी विषय पर सुंदर टिप्पणी कर सकते हैं।
सत्य, शिव और सुंदर भारतीय रचनात्मकता के त्रिदेव हैं। वे वस्तुत: एक हैं लेकिन तीन आयामों में विचारणीय है। समाज जीवन में तीनों की लब्धि चाहिए। रचनात्मकता का ध्येय लोककल्याण है। लोक कल्याण ही भारतीय अनुभूति का शिव हैं। सौन्दर्यबोधसृजन का स्रोत है। हमारी टिप्पणियों में सत्य आधारभूत है लेकिन ध्येय लोकमंगल ही है। सौन्दर्य हमारे आनंदबोध की अनुभूति है। सौन्दर्य का सम्बंध रूप से है। यह रूप अंत:करण में उपस्थित अरूप का ही चेहरा है। सोशल मीडिया के प्रेमी विश्व को सत्य, शिव और सुंदर रूप में ही प्रस्तुत करे तो शुभ होगा। सोशल कभी व्यक्तिगत नहीं होता। वह सामाजिक है तो उसे सामाजिक दायित्व बोध भी निभाना होगा।

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