हिन्दी का विस्तार गाँव से शहरों तक एक जैसा
ठेठ गांव की बोली की भाषा हमारी हिन्दी में आज भी कुछ शब्दों का प्रयोग किया जाता है जो पूरी तरह भारत के गांवों की संस्कृति की झलक दिखाते हैं। जब लगातार घनघोर वर्षा होती है तो उसे मूसलाधार वर्षा कहते हैं। आप जानते ही होंगे कि ओखली और मूसल दोनों गांव के किसानों के मुख्य औजार माने जाते हैं। दीपावली में गौवर्धन की पूजा अर्चना में मूसन, मथानी आदि के साथ गोबर का पहाड़ बन कर पूजा का विधान है। पानी जब काफी ऊंचाई से नदी के नीचे गिरता है तो इसे जल प्रपात कहते हैं।
इससे जो जल धारा से सफेद दुग्ध कण जैसे दिखाई देते हैं। उन्हें धुंआधार कहा जाता है जिसमें धुंआ और धार का योग होता है। उखरी में सिर डाला तो मूसल से क्या डरना। इसी क्रम में आम खाने से काम था गिनने से काम। आम की आम और गुठली के दाम। सारा गुड़ गोबर कर देना। धोबी का गदहा घर का ना घाट का। जैसी युक्तियां हमारे ग्राम जीवन से निकली हैं। लम्बाई और गुलाई नापने में तिल और राई का अपना महत्व है। तिल का ताड़ बनाना, राई का पर्वत और राई घटे न तिल बढ़े रूह रे जीव नसंग जो आम जीवन में चरितार्थ होता है। मारे डर के पौंक मारना तो आप शायद जानते ही होंगे। उसी से डरपोंक शब्द सहित में अखबारों में और संसदीय व्यवहार में सम्मान इस्तेमाल होता है। गाँव में सब कुछ बिना लाग लपेट की परंपरा ही है।
दूसरे के बेटे की तुलना गधे की मूत्र से करते हुए कहते हैं कि पराया पूत और गधे का मूत दोनों काम नहीं आते। खोटा सिक्का और सड़ी सुपारी तथा कपूत पूत वक्त वे वक्त में काम आ जाते हैं। चुलते पुर्जे तथा घिसी चवन्नी की चर्चा तो आप सुन ही चुके हैं। रेत से टोल निकालना भी एक मुहावरा ही है। नदी गाँव संयोग भी कहावत है। नींद न जाने टूटी खाट, भूख न जाने जूठा भात। सभी जानते हैं। जगन्नाथ के भात को जगत पसारे हाथ, शब्दों के बेर और सुदामा के कारण बने रहे हैं और बने रहेंगे। सुदामा और कृष्ण की दोस्ती, मृग मारिचि काम मृग बनना वह भी मायाबी सोने जैसा फिर राम द्वारा उसी को मारा जाना हम आज तक मृग मारीचका के नाम से जानते हैं।
रामायण काल में सुरसा के मुंह का आकार अनन्त तक बढ़ जाने के वरदान के कारण महंगाई को सुरसा के मुंह की तरफ बढ़ना कहा जाता है।पंचवटी में राम के द्वारा मरीचि मृग का पीछा करने जाने पर सीता जी के निर्देश पर राम की रक्षा के लिए जाने वाले लक्ष्मण रेखा पर्णकुटी में माता सीता के रक्षार्थ खींची गई लक्ष्मण रेखा आज तक हमें हमारी हद में रहने की प्रेरणा देती है। हनुमान के कारण लंका दहन और अंगद को पैर जमाना चर्चा में ही नहीं बल्कि सटीकता के साथ उपयोग में आता है। लंका में रावण के छोटे भाई रामभक्त विभीषण को घर का भेदी कहा जाना (घर काभेदी लंका ढायी) कहा तक उचित है।
अन्याय का प्रतिकार कर अपमानित होकर राम की शरण में हर कोई जाना चाहता है फिर विभीषण ने क्या अपराध किया। मामा कंस, मामा शुकनि, मामा माहिल कुछ अत्यधिक बदनाम मामा आज भी समाज में मिल जाएंगे। कुछ रिश्ते अधबीच के होते हैं। जैसे साला का साला और मामा का साला-बुंदेलखंड में कहा जाता है कि सारे को सारो हमारो को, मामा को सारे हमारो को, गांव में रिश्तों की जो व्याख्या की जाती है इसमें पिता के पिता व माता को आजा आजी कहा जाता है और मां के माता पिता को नानी, नाना कहते हैं। आज भी गाँव की गुलेल, गुफना और गुल्ला आज भी परिष्कृत रूप में प्रचलित है।
इनका ग्राम्य जीवन में तब भी महत्व था अब भी है। गोबर से गोवर्धन पर्वत की अनुकृति बनाकर दीपावली में उसकी पूजा अर्चना की जाती है। कृष्ण के गोवर्धन पर्वत उठाये जाने और गोकुलवासियों की जीवन रक्षा के लिए कृतज्ञता ज्ञापन को जीवंत प्रतीक है। गोवर्धन की यह अनुकृति गौ संवर्धन की भी प्रतीक है। केर वेर का संग हम कहावत की तरह इस्तेमाल करते हैं। परन्तु केला के पेड़और बेर के पेड़ पास पास होने से केला की पत्ते अतिविरत हो जाते हैं। खजुर से गिरे और वैर पर गिरे यानि दोहरी तकलीफ। होली में गंदगी फेंकी जाती है और दीपावली में घरों की गंदगी बाहर लेकर सफाई की जाती है। होली में फूहड़ता होती है दीपावली में शालीनता से पटाखे ने दीपावली में शालीनता को भारी चोट पहुंचाई है। स्वच्छता और सफाई तथा पर्यावरण के त्यौहार को हमने पर्यावरण नष्ट करने का त्यौहार बना दिया है।