114 साल से बन रही है ये इमारत, खर्च हो चुके हैं 400 करोड़
114 साल से बन रही इस इमारत की नींव भी ताजमहल की तरह से कुओं पर रखी गई है। इसे बनाने में सफेद संगमरमर का इस्तेमाल किया गया है।
नई दिल्ली: न्यू आगरा से पोइया घाट जाने वाली रोड पर पडऩे वाले राधास्वामी मंदिर का मुख्य द्वार विशाल एवं भव्य बनाया गया है। मंदिर पूरा सफेद पत्थरों का बना हुआ है। मुख्य द्वार से मंदिर का दृश्य और सुंदर दिख सके इसके लिए प्रवेश द्वार को पूरा लाल पत्थरों से बनाया गया है। लाल पत्थरों के बीच से सफेद मंदिर का दृश्य देखने लायक होता है।
मंदिर के प्रवेश द्वार के निर्माण में प्रयोग होने वाले लाल पत्थरों को राजस्थान के भरतपुर जिले से मंगाया गया है। करोड़ों सत्संगियों की आस्था के प्रतीक राधास्वामी मंदिर में दर्शन करने के लिए देश-विदेश से श्रद्धालु आते है। भंडारे के समय यह संख्या और भी बढ़ जाती है। ऐसे में मुख्य द्वार को भव्य और विशाल बनाया गया है। पंचमुखी द्वार के ऊपरी पट पर गुंबद बनाए गए हैं। पूरा गेट लाल पत्थर से बनाया गया है।
जिससे आने वाले श्रद्धालुओं को किसी भी तरह की परेशानी का सामना नहीं करना पड़े, गेट के चारों ओर रंग-बिरंगी लाइट लगाई गई है। आध्यात्म और सुदंरता की मिसाल रचने जा रहा राधास्वामी मंदिर का निर्माण कार्य पिछले 114 वर्षो से चल रहा है। इस वर्ष अगस्त में मंदिर का 99 प्रतिशत निर्माण कार्य पूरा हो चुका है। इस मौके पर राधास्वामी मत के संस्थापक परम पुरूष पूरन धनी स्वामी महाराज का 200वां जन्म समारोह भी आयोजित किया गया।
स्वामी महाराज का जन्म अगस्त में पड़ता है तो इसी के चलते मंदिर निर्माण से जुड़ा सभी काम पूरा कर लिया गया। 114 साल से बन रहे स्वामीबाग में स्थित राधास्वामी मंदिर की नक्काशी और खूबसूरती देखने लायक होगी। मंदिर में लगे पत्थरों को मजदूरों द्वारा हाथों से तराशा जा रहा है। खास बात यह है कि मंदिर को भव्य एवं आकर्षक बनाने के लिए पत्थरों का चयन बेहद ही ध्यानपूर्वक किया गया है।
समाध में शीतलता, सौम्य एवं शांति का वातावरण बनाए रखने के लिए रंगों के चुनाव को भी महत्वता दी गई है। 5 तरह के पत्थरों का इस्तेमाल मंदिर को बनाने में किया गया है। मंदिर में लगा सफेद और गुलाबी रंग का संगमरमर मकराना राजस्थान से मंगवाकर लगाया गया है। हरे रंग का संगमरमर बड़ौदा गुजरात से मंगवाया गया है। अबरी संगमरमर और पाली जैसलमेर, राजस्थान से आया है। दारचीनी पत्थर ग्वालियर, मध्य प्रदेश से लाकर लगाया गया है।
पच्चीकारी और जड़ाई के लिए कीमती पत्थर अकीक, मरगज, सिमाक, रतक, गवा, बिल्लौर, लाजवर्द, गौरी, पितोनिया, डूंगासरा, यशब बगैरा गुजरात और दक्षिण भारत से मंगवाए गए हैं। समाध (समाधि) के ठीक ऊपर स्थित डबल लेयर की गुंबद के अंदर लाइट लगाई गई है, जिससे मंदिर की सुंदरता रात में भी निहारी जा सके, गुम्बद को तैयार करने के लिए लाखों रुपये के किराए पर मशीनरी मंगाई गई थी। कई वर्ष की मेहनत के बाद मंदिर के गुम्बद को तैयार किया गया है।
15 किलो सोने की परत का और 140 किलो सोने से नक्काशी किया गया कलश गुम्बद पर लगाया गया है. स्वामीबाग में पूरन धनी स्वामीजी महाराज की पवित्र समाध के लिए बने कलश पर सोना चढ़ाया गया है। कलश पर 155 किलोग्राम सोने की परत से नक्काशी की गई है। इतिहास में यह अब तक का सबसे अनोखा कलश है। हालांकि ताजमहल और दूसरे स्मारकों व धर्मस्थलों में कई कलश लगे हैं मगर श्रद्धालुओं के सहयोग से बनने वाला यह अनूठा कलश होगा. इसके निर्माण में इतनी कड़ी सुरक्षा बरती जा रही है कि दस्तकार, प्रबंधक, सुरक्षा दस्ते के जवान सभी कैमरों की जद में हैं।
स्वामीबाग में पूरन धनी स्वामीजी महाराज की पवित्र समाध के लिए बने कलश पर सोना चढ़ाया गया है। कलश पर 155 किलोग्राम सोने की परत से नक्काशी की गई है। इतिहास में यह अब तक का सबसे अनोखा कलश है। हालांकि ताजमहल और दूसरे स्मारकों व धर्मस्थलों में कई कलश लगे हैं मगर श्रद्धालुओं के सहयोग से बनने वाला यह अनूठा कलश होगा। इसके निर्माण में इतनी कड़ी सुरक्षा बरती जा रही है कि दस्तकार, प्रबंधक, सुरक्षा दस्ते के जवान सभी कैमरों की जद में हैं। ताजमहल के शहर आगरा में मंदिर का निर्माण 114 में हुआ है। कारीगरों की चौथी पीढ़ी ने यहां काम किया है।
भले ही स्वामीबाग मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है, लेकिन है दयालबाग क्षेत्र में दयालबाग और स्वामी बाग दोनों ही राधास्वामी मत के अनुयायी हैं, लेकिन अस्तित्व अलग-अलग है। राधास्वामी मत के अनुयायी पूरी दुनिया में फैले हुए हैं। बसंत पंचमी के दिन आगरा में एकत्रित होते हैं। इस मौके पर बड़ा भंडारा भी होता है। पूरा दयालबाग क्षेत्र सजाया जाता है। जिस तरह से ताजमहल की नींव कुओं पर रखी गई है उसी तरह हजूर महाराज की समाध की नींव भी कुआं आधारित है। 52 कुओं पर स्वामी बाग मंदिर का निर्माण किया गया है, ताकि भूकंप आने पर कोई प्रभाव न पड़े, मंदिर की नींव पूरी तरह से कुओं पर रखी गई है।
पत्थरों को 60 फीट गहराई तक डालकर पिलर लगाए गए हैं। समाध के मेन गेट पर भी एक कुआं है। इस कुएं का धार्मिक महत्व भी है। इसके पानी को प्रसाद के रूप में पिया जाता है। मंदिर में लगे पत्थरों पर नक्काशी इस तरह की गई है कि पेंटिंग सी प्रतीत होती है। देखने वालों की आंखें आश्चर्य से फैल जाती हैं। पहली बार में देखने पर ऐसा लगता है कि नक्काशी मशीन से की गई होगी, लेकिन ऐसा है नहीं। एक-एक पत्थर को तैयार करने में महीनों का समय लगा है। फल और सब्जी की बेल देखें तो लगता है कि फल और सब्जी अभी टपक पड़ेंगे। दो पत्थरों के बीच के जोड़ को इतनी खूबसूरती के साथ ढक दिया गया है कि दिखाई नहीं देते हैं। 110 फीट ऊंचे मंदिर को बनाने में हर रोज करीब 300 मजदूरों ने काम किया है।
खास बात ये है कि जो मजदूर 1904 में इस मंदिर को बनाने के लिए आए थे बाद में भी उन्हीं की पीढ़ी काम करती रही है। इस वर्ष जब मंदिर बनकर तैयार हुआ है तो 1904 में आए मजदूरों की चौथी पीढ़ी ने इसे अंतिम रूप दिया है। कहा जाता है कि मंदिर के साथ मजदूरों की भी आस्था जुड़ी हुई थी। वर्ना अगर ये सिर्फ मजदूरी का मामला होता तो ये मजदूर कब के चले गए होते। मंदिर की सुंदरता जितनी भव्य है मंदिर का इतिहास भी उतना ही रोचक है। मंदिर से जुड़ा हर तथ्य आध्यात्म से जुड़ा हुआ है। राधास्वामी मंदिर रेतीली जमीन पर खड़ा है।
1200 एकड़ में फैला आज का दयालबाग और स्वामीबाग पहले रेत का टीला था। राधास्वामी मत के अनुयायियों ने कड़ी मेहनत करके दयालबाग को हरे-भरे क्षेत्र में बदल दिया। आज पूरे क्षेत्र में राधास्वामी मत के अनुयायी ही ज्यादा रहते हैं। राधास्वामी मत के संस्थापक और प्रथम गुरु परमपुरुष पूरनधनी स्वामी जी महाराज का जन्म आगरा की पन्नी गली में 25 अगस्त, 1818 को जन्माष्टमी के दिन खत्री परिवार में हुआ था। उनका नाम सेठ शिवदयाल सिंह था। पिता का नाम राय दिलवाली सिंह था। छह साल की उम्र में ही योगाभ्यास शुरू कर दिया था। वे स्वयं को एक कमरे में कई-कई दिन तक बंद कर लेते थे। इससे उनकी ख्याति संत के रूप में फैल गई। उन्होंने हिन्दी, फारसी, उर्दू और गुरुमुखी भाषा सीखी। फारसी पर किताब भी लिखी।