भुवनेश्वर : उड़ीसा में आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को जगन्नाथ रथ यात्रा निकाली जाती है। इस वर्ष यानि 2021 में 12 जुलाई से शुरू हो रही जगन्नाथ रथ यात्रा का समापन 20 जुलाई को होगा। इस यात्रा के माध्यम से भगवान जगन्नाथ साल में एक बार प्रसिद्ध गुंडिचा माता के मंदिर में जाते हैं। प्रत्येक वर्ष भगवान जगन्नाथ सहित बलभ्रद और सुभद्रा की प्रतिमाएं नीम की लकड़ी से बनाई जाती हैं, इस साल भी ये प्रतिमाएं नीम की लकड़ी से बनाई जाएंगी। इस दौरान रंगों का भी विशेष ध्यान दिया जाता है। भगवान जगन्नाथ का रंग सांवला होने के कारण नीम की उसी लकड़ी का इस्तेमाल किया जाता है जो सांवले रंग में छिप जाए। वहीं दूसरी ओर भगवान जगन्नाथ के भाई-बहन का रंग गोरा होता है इसलिए उनकी मूर्तियों को हल्के रंग की नीम की लकड़ी का प्रयोग कर उन्हें बनाया जाता है। इन तीनों रथों का निर्माण एक खास तरह से किया जाता है। इनका आकार अलग-अलग होता है। ये रथ नारियल की लकड़ी से बनाए जाते हैं। भगवान जगन्नाथ का रथ अन्य रथों की तुलना में बड़ा होता है और इसका रंग लाल पीला होता है। रथ यात्रा के दौरान सबसे पहले सुभद्रा का रथ होता है उसके बाद बलभद्र का और फिर अंत में भगवान जगन्नाथ का रथ होता है। भगवान जगन्नाथ के रथ को नंदीघोष कहते हैं जिसकी ऊंचाई 45.6 फुट होती है। इसके बाद बलराम का रथ आता है जिसका नाम ताल ध्वज होता है इसकी ऊंचाई 45 फुट होती है। वहीं सुभद्रा का दर्पदलन रथ 44.6 फुट ऊंचा होता है।
अक्षय तृतीया से नए रथों का निर्माण शुरू हो जाता है। हर वर्ष नए रथों का निर्माण होता है। खास बात तो यह है कि इन रथों को बनाने में किसी भी प्रकार की कील या अन्य किसी धातु का प्रयोग नहीं किया जाता। श्रद्धाुल इन तीनों रथों की विधिवत पूजा करते हैं और ‘सोने की झाड़ू’ से रथ मण्डप और रास्ते को साफ़ करते हैं। ढोल, नगाड़ों, तुरही और शंखध्वनि के बीच भक्तगण इन रथों को खींचते हैं। मान्यता है कि जिन्हें रथ को खींचने का अवसर प्राप्त होता है, वह महाभाग्यवान माना जाता है और ऐसे लोगों को मोक्ष मिलता है। जगन्नाथ मंदिर से रथयात्रा शुरू होकर पुरी नगर से गुजरते हुए ये रथ गुंडीचा मंदिर पहुंचते हैं। यहां भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा सात दिनों के लिए विश्राम करते हैं। गुंडीचा मंदिर में भगवान जगन्नाथ के दर्शन को ‘आड़प-दर्शन’ कहा जाता है। गुंडीचा मंदिर को ‘गुंडीचा बाड़ी’ भी कहते हैं। यह भगवान की मौसी का घर है। इस मंदिर के बारे में पौराणिक मान्यता है कि यहीं पर देवशिल्पी विश्वकर्मा ने भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी की प्रतिमाओं का निर्माण किया था।
रथयात्रा के तीसरे दिन यानी पंचमी तिथि को देवी लक्ष्मी, भगवान जगन्नाथ को ढूंढते हुए यहां आती हैं। तब द्वैतापति दरवाज़ा बंद कर देते हैं, जिससे देवी लक्ष्मी रुष्ट होकर रथ का पहिया तोड़ देती है और ‘हेरा गोहिरी साही पुरी’ नामक एक मुहल्ले में, जहां देवी लक्ष्मी का मंदिर है, वहां लौट जाती हैं। बाद में भगवान जगन्नाथ द्वारा रुष्ट देवी लक्ष्मी मनाने की परंपरा भी है। यह मान-मनौवल संवादों के माध्यम से आयोजित किया जाता है, जो एक अद्भुत भक्ति रस उत्पन्न करती है। आषाढ़ माह के दसवें दिन सभी रथ पुन: मुख्य मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं। रथों की वापसी की इस यात्रा की रस्म को बहुड़ा यात्रा कहते हैं। जगन्नाथ मंदिर वापस पहुंचने के बाद भी सभी प्रतिमाएं रथ में ही रहती हैं। देवी-देवताओं के लिए मंदिर के द्वार अगले दिन एकादशी को खोले जाते हैं, तब विधिवत स्नान करवा कर वैदिक मंत्रोच्चार के बीच देव विग्रहों को पुनः प्रतिष्ठित किया जाता है। दरअसल, रथयात्रा एक सामुदायिक आनुष्ठानिक पर्व है। इस अवसर पर घरों में कोई भी पूजा नहीं होती है और न ही किसी प्रकार का उपवास रखा जाता है।