केरल की आई बाढ़ के बाद देश और दुनिया सकते में हैं। इस बाढ़ से केरल में हजारों करोड़ की जान माल की हानि हुई है वहीं 300 से अधिक लोगों को जान से हाथ दोना पड़ा है। आने वाले सालों भारत के लिए बाढ़ का चैलेंज बढ़ने वाला है। भारत सरकार के आंकड़ों पर आधारित विश्व बैंक के एक अध्ययन में अंदेशा जताया गया है कि 2040 तक देश के ढाई करोड़ लोग भीषण बाढ़ की चपेट में होंगे।
बाढ़ प्रभावित आबादी में ये छह गुना उछाल होगा। केंद्रीय जल आयोग के मुताबिक 1953 से 2017 की 64 साल की अवधि में बारिश की वजह से बाढ़ आई जिससे देश में कुल 107,487 मौतें हुई हैं। फसल, मकान और सार्वजनिक सेवाओं को 3 लाख 65 हजार 860 करोड़ रुपयों का नुकसान हुआ है। छोटी अवधि में हुई मूसलाधार बारिश, जलनिकास की जर्जर क्षमता, जलाशयों के रखरखाव में कमी और जल संग्रहण की लचर स्थिति और बाढ़ नियंत्रण उपायों की नाकामी को भारी बाढ़ और उससे होने वाले नुकसान के प्रमुख कारणों में से एक हैं।
हर वर्ष देश का 4 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र रहता है बाढ़ के दायरे में
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के मुताबिक देश के कुल करीब 32.9 करोड़ हेक्टेयर भौगोलिक क्षेत्र में से 4 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र, बाढ़ की जद में रहता है। देश में इस समय करीब 226 के आसपास बाढ़ निगरानी केंद्र हैं, जिन्हें 2020 तक 325 किए जाने की योजना है, लेकिन बाढ़ नियंत्रण और निगरानी के समूचे सिस्टम में नए हालात और पुराने रिकॉर्डो को देखते हुए बदलाव की जरूरत है। प्रौद्योगिकीय क्षमताओं के विकास के साथ साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर की विशेषज्ञता भी हासिल करनी होगी, लेकिन इन सबसे पहले, प्रोएक्टिव, चौकस, सचेत और कर्तव्यनिष्ठ कर्मचारियों-अधिकारियों वाली सरकारी मशीनरी की जरूरत है।
ज्यादा प्रभावित होता है वेस्टर्न घाट रीजन
केरल देश का दक्षिण पर स्थित है और तीनों ओर समुद्र से घिरा है। दक्षिण में हिंद महासागर और पश्चिम में अरब सागर। वैसे बंगाल की खाड़ी के मानसून की बजाए अरब सागर की मानसूनी हवाओं से केरल और वेस्टर्न घाट रीजन को हर साल नुकसान पहुंचता है। इस बार मानसून ज्यादा कठोर रहा, इस कारण नुकसान भी ज्यादा हुआ है। मौसम विभाग हालांकि पहले से ही स्थानीय लोगों को जागरुक कर देता है, लेकिन लोगों की मानसिकता ऐसी नहीं रहती है कि वे इतनी जल्दी अपना घर छोड़ कर कहीं और जानें की सोंचे। उन्हें यह लगता है कि इस तरह के एलर्ट हर साल ही किए जाते हैं। लेकिन इस बार बाढ़ की भयावहता से उन्हें ज्यादा नुकसान पहुंचा।
इस साल मॉनसून में सबसे ज्यादा मौतें केरल में हुई हैं। इसके साथ ही उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड व अन्य राज्य भी प्रभावित हुए हैं। सैकड़ों लोग इन विभिन्न आपदाओं में घायल भी हुए हैं। पूर्वोत्तर राज्य असम में भी 11 लाख लोग प्रभावित हुए हैं और साढ़े 27 हजार हेक्टेयर जमीन को नुकसान हुआ है। वहीं वर्षाकाल की शुरुआत में मुंबई में जोरदार बारिश और खराब ड्रेनेज सिस्टम से हालात बुरे हो गए थे। जानिए बाढ़ पर क्या कहती हैं विभिन्न संस्थाएं और बाढ़ के क्या खास प्राकृतिक कारण हैं।
चाय, कॉफी, इलायची और रबड़ के उत्पादों का हुआ आर्थिक नुकसान
केरल राज्य के इडुकी, वायनाड, कन्नूर, एर्नाकुलम, पलक्कड और मलाप्पुरम जैसे जिले बाढ़ की चपेट में हैं। लाखों लोग विस्थापित हो चुके हैं डेढ़ हजार से ज्यादा हेक्टेयर जमीन पर लगी फसल बरबाद हो गई है। चाय, कॉफी, इलायची और रबड़ के उत्पादों को भी बहुत भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा है। राज्य के 22 प्रमुख जलाशयों के गेट भारी बारिश के चलते खोलने पड़े हैं। इनमें इडुकी का विशालकाय जलाशय भी है जिसकी जल-संग्रहण क्षमता 2403 फीट की है।
केरल में इस वर्षाकाल में आई बाढ़ की भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि केरल की स्थिति वापस पटरी पर लाने के लिए 21 हजार करोड़ रुपए की दरकार होगी। इस आपदा से 10 हजार किलोमीटर की सड़कें प्रभावित हुई हैं। वहीं 20 हजार से 50 हजार की संख्या में घर डैमेज हुए हैं। हालांकि देश के हर कोने से राहत के लिए भारवंशियों ने खुले हाथों से आर्थिक और अन्य जरूरत की मदद दे रहे हैं। राहत एवं बचाव कार्य में एनडीआरएफ और सेना के हजारों लोग लगे जिससे लोगों को संकट के हालात से निकालकर सुरक्षित जगहों पर पहुंचाया गया। 3300 राहत कैंप में रह रहे करीब 13 लाख लोगों में से कई लोग अब अपने घरों की ओर लौट रहे हैं। लेकिन यह विभिषिका कई सवाल खड़े करती है।
सबसे ज्यादा मौतें भूस्खलन से
मौसम विभाग के मुताबिक इस बार सामान्य से 15 फीसदी अधिक बारिश हुई। भूस्खलन से सबसे ज्यादा मौतें हुई हैं। पहाड़ियों से बड़े पत्थर दरककर लोगों के घरों पर गिरे हैं, बड़े पैमाने पर मलबा गिरा है। केरल का कुटुनाड गलत नीतियों, सुस्त कार्यान्वयन और लचर आपदा प्रबंधन का शिकार बना एक दुर्भाग्यपूर्ण उदाहरण भी है। बाढ़ उस इलाके की पर्यावरणीय समृद्धि के लिए वरदान थी लेकिन वही अभिशाप बन गई। दूसरी ओर उत्तराखंड जैसे राज्य भी पारिस्थितिकीय बदहाली के प्रति उदासीन बने हुए हैं। लगातार निर्माण कार्यों से उत्तराखंड के पहाड़ इतने क्षीण हो रहे हैं कि तेज बारिश उन्हें फाड़ देती है।
क्यों आती है बाढ़?
भारत में जून से लेकर सितंबर महीने तक बाढ़ की स्थिति बनी रहती है। इस दौरान होने वाली बारिश ज्यादातर राज्यों में बाढ़ ला देती है। कश्मीर, राजस्थान, गुजरात, बिहार, उत्तर प्रदेश, असम और मध्य प्रदेश करीब हर साल बाढ़ की विभीषिका का शिकार बनते हैं। जुलाई 2017 में राजस्थान के हिल स्टेशन माउंट आबू में भयंकर बारिश हुई। बताया जाता है कि यहां इतनी बारिश हुई कि जितनी की पिछले 300 साल में नहीं हुई थी। बाढ़ आने के ये 3 खास कारण माने जाते हैं।
रेत भरने से नदियों की गहराई कम
देश में बाढ़ आने का एक दूसरा बड़ा कारण नदियों की गहराई कम हो जाना है। देश की ज्यादातर नदियाें की गहराई रेत भर जाने से कम हुई है, उनमें उतनी गहराई नहीं बची है जिससे बारिश के पानी को वह अपने अंदर लेकर आगे बढ़ सकें। नतीजा यह होता है कि उथलाई नदियां अतिरिक्त पानी का भार सहन नहीं कर पातीं और अपने तटों के दोनों तरफ बाढ़ उत्पन्न कर देती हैं। ब्रह्मपुत्र नदी इसका सबसे सटीक उदाहरण है। इस नदी का पाट 2 किलोमीटर से लेकर 14 किलोमीटर तक फैल चुका है।
शहरों का खराब ड्रेनेज सिस्टम
शहरी क्षेत्रों में बाढ़ जैसी स्थिति के लिए वहां का ड्रेनेज सिस्टम जिम्मेदार है। महानगरों में पानी निकासी की व्यवस्था पुरानी हो गई है। बढ़ती आबादी का बोझ ड्रेनेज प्रणाली संभाल नहीं पातीं। चेन्नई में 2015 में आई बाढ़ ड्रेनेज सिस्टम की विफलता थी। इसके अलावा मुंबई में हर साल की तरह इस साल भी वर्षाकाल की शुरुआत में ही खराब ड्रेनेज सिस्टम की वजह से सड़कों पर पानी गया था और हालात बुरे हो गए थे। दिल्ली और एनसीआर में औसत बारिश ही घंटों जाम का कारण बन जाती है।
रास्ता बदलती रही हैं नदियां
पहाड़ी इलाकों में बाढ़ की बड़ी वजह भूस्खलन को माना जाता है। उत्तराखंड में 2013 में भारी बारिश से बड़ी संख्या में भूस्खलन के हादसे हुए। भूस्खलन में चट्टानें और पत्थर खिसककर नदियों में आ जाते हैं जो नदियों और झरनों के मार्ग को अवरुद्ध कर देते हैं। इससे नदियों का पानी अपने वास्तविक रास्ते को छोड़ आबादी और कृषि क्षेत्र में प्रवेश कर जाता है जिससे बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।