अद्धयात्म

33 साल की साधना के बाद बने संत

एजेन्सी/ 2016_4$largeimg216_Apr_2016_072730160 (1)परमब्रह्म भगवान की कृपा ही सद्गुरु के रूप में प्रकट होती है.  सद्गुरु बिना जीवन निष्फल है. सद्गुरु भगवान नहीं, अपितु भगवान के अत्यंत प्रियजन हैं. वे तो केवल भगवत प्राप्ति का मार्गदर्शन करते हैं. अाध्यात्मिक मार्ग में गुरु कृपा के अतिरिक्त और कोई संबल नहीं है. 

जब किसी जीव का भाग्य उदय होता है तो सद्गुरु के दर्शन होते हैं. गंगा के तो स्पर्श करने के पश्चात व्यक्ति पवित्र होता है, किंतु संत के तो दर्शन मात्र से ही तन-मन दोनों पावन हो जाते हैं, किंतु कलियुग में ऐसे संत बहुत दुर्लभ हैं.  शंकर जी ने पार्वती से कहा भी है कि कलियुग में शिष्यों का धन हरण करने वाले गुरु बहुत मिलेंगे किंतु जो शिष्यों के संताप हरण कर ले ऐसा गुरु मिलना बहुत दुर्लभ है. वर्तमान में कुछ गिने-चुने ही ऐसे संत हैं, जिनमें एक नाम परमहंस श्री श्रीमद् भक्ति  बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज का भी है. 

तीन अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के अध्यक्ष होने के बावजूद एक भी पैसे का अकाउंट ना होना, छोटी बच्चियों को पुत्रीवत स्नेह एवं स्त्री मातृ को मातृवत सम्मान देने का अनुपम आदर्श, बिल्कुल साधारण रहन-सहन एवं खान-पान, मन-वचन और बुद्धि को परमब्रह्म भगवान और उनके जनों की सेवा में हमेशा लगाये रखना एवं स्वयं नाना प्रकार के कष्टों को सहन करते हुए परोपकार के कार्यों में व्यस्त रहने जैसे आदर्शमय जीवन से प्रेरित होकर देश-विदेश के असंख्य लोगों ने अपने जीवन को कृतार्थ किया है और कर रहे हैं.

आपकी कथनी और करनी एक है. शिक्षाओं को प्रचार करने से अधिक उन्हें अपने जीवन में उतारने पर विश्वास रखते हैं. उनका कहना है कि यह सिर्फ राजनीति में चलता है, धर्म प्रचार में नहीं. धर्म प्रचार में तो हमारे द्वारा दी गयी शिक्षा किसी दूसरे पर उतना ही असर करती है जितना उसमें से हम स्वयं आचरण कर रहे होते हैं.

महाराजश्री 12 वैशाख सन् 1924 को श्री रामनवमी की पावन तिथि को ग्वालपाड़ा नामक शहर में प्रकट हुए. बचपन से ही आध्यात्मिकता के प्रति रुझान था और पालन-पोषण भी धार्मिक वातावरण में हुआ. 

इसलिए विज्ञान एवं गणित के छात्र होने के बावजूद आत्मसाक्षात्कार की लालसा ने आपको दर्शनशास्त्र पढ़ने के लिए प्रेरित किया और 1946 में एमए फिलोस्पी कलकत्ता विश्वविद्यालय से की. संसार के प्रति वैराग्य और आत्म-साक्षात्कार हेतु उस समय के महान वैष्णव संत कलियुग पावन अवतारी श्री चैतन्य महाप्रभु के पार्षद एवं अखिल भारतीय श्री चैतन्य गौड़ीय  मठ के संस्थापक परमहंस श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधवगोस्वामी महाराज के चरणों में अपना जीवन संपूर्णत: समर्पित कर दिया. उनसे दीक्षा एवं संन्यास ग्रहण कर उनके सान्निध्य में 33 साल कठोर साधना की और गुरु सेवा का ऐसा आदर्श प्रस्तुत किया कि गुरु का हृदय भी गदगद हो उठा और उन्होंने कहा कि मेरे बहुत से शिष्य है किंतु मेरे मन मुताबिक एक ये ही शिष्य हैं. 

महाराज श्री चरित्र निर्माण पर विशेष जोर देते हैं चूंकि हरि भक्ति के प्रत्येक आचरण के आप आदर्श स्वरूप हैं इसलिए विश्व वैष्णव समाज आपको गौड़ीय वैष्णव सिद्धांतों के पूर्ण आचरणवान सरल एवं विद्वान के रूप में स्वीकार करता है.

भक्ति विबुद्ध मुनि अखिल भारतीय श्री चैतन्य गौड़ीय मठ

 

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