दस्तक-विशेषस्तम्भ
4 जुलाई : स्वामी विवेकानन्द की पुण्यतिथि पर शत् शत् नमन!
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अध्यात्म एवं विज्ञान में समन्वय से विश्व की समस्याओं का होगा समाधान!
भारत के महानतम समाज सुधारक, विचारक और दार्शनिक स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी, 1863 को कलकत्ता में हुआ था। वह अध्यात्म एवं विज्ञान में समन्वय एवं आर्थिक समृद्धि के प्रबल समर्थक थे। स्वामी विवेकानंद के अनुसार ‘‘लोकतंत्र में पूजा जनता की होनी चाहिए। क्योंकि दुनिया में जितने भी पशु-पक्षी तथा मानव हैं वे सभी परमात्मा के अंश हैं।’’ स्वामी जी ने युवाओं को जीवन का उच्चतम सफलता का अचूक मंत्र इस विचार के रूप में दिया था – ‘‘उठो, जागो और तब तक मत रूको, जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाये।’’
स्वामी विवेकानंद का वास्तविक नाम नरेंद्रनाथ दत्त था। उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त कलकत्ता के एक सफल वकील थे और मां श्रीमती भुवनेश्वरी देवी एक शिक्षित महिला थी। अध्यात्म एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण के नरेन्द्र के मस्तिष्क में ईश्वर के सत्य को जानने के लिए खोज शुरू हो गयी। इसी दौरान नरेंद्र को दक्षिणेश्वर काली मंदिर के पुजारी रामकृष्ण परमहंस के बारे में पता चला। वह विद्वान नहीं थे, लेकिन वह एक महान भक्त थे। नरेंद्र ने उन्हें अपने गुरू के रूप में स्वीकार कर लिया। रामकृष्ण परमहंस और उनकी पत्नी मां शारदा दोनों ही जितने सांसारिक थे, उतने आध्यात्मिक भी थे। नरेन्द्र मां शारदा को बहुत सम्मान देते थे। रामकृष्ण परमहंस का 1886 में बीमारी के कारण देहांत हो गया। उन्होंने मृत्यु के पूर्व नरेंद्र को अपने उत्तराधिकारी के रूप में नामित कर दिया था। नरेंद्र और रामकृष्ण परमहंस के शिष्यों ने संन्यासी बनकर मानव सेवा के लिए प्रतिज्ञाएं लीं।
1890 में नरेंद्रनाथ ने देश के सभी भागों की जनजागरण यात्रा की। इस यात्रा के दौरान बचपन से ही अच्छी और बुरी चीजों में विभेद करने के स्वभाव के कारण उन्हें स्वामी विवेकानंद का नाम मिला। विवेकानंद अपनी यात्रा के दौरान राजा के महल में रहे, तो गरीब की झोंपड़ी में भी। वह भारत के विभिन्न क्षेत्रों की संस्कृतियों और लोगों के विभिन्न वर्गो के संपर्क में आये। उन्होंने देखा कि भारतीय समाज में बहुत असंतुलन है और जाति के नाम पर बहुत अत्याचार हैं। भारत सहित विश्व को धार्मिक अज्ञानता, गरीबी तथा अंधविश्वास से मुक्ति दिलाने के संकल्प के साथ 1893 में स्वामी विवेकानंद शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेने के लिए अमेरिका गए। ‘स्वामी विवेकानंद ने 11 सितम्बर 1893 में अमेरिका के शिकागो की विश्व धर्म संसद में ऐतिहासिक तथा सार्वभौमिक सत्य का बोध कराने वाला भाषण दिया था। इस भाषण का सार यह था कि धर्म एक है, ईश्वर एक है तथा मानव जाति एक है।
स्वामी विवेकानंद अपनी विदेश की जनजागरण यात्रा के दौरान इंग्लैंड भी गए। स्वामी विवेकानंद इंग्लैण्ड की अपनी प्रमुख शिष्या, जिसे उन्होंने नाम दिया था भगिनी (बहन) निवेदिता। विवेकानंद सिस्टर निवेदिता को महिलाओं की एजुकेशन के क्षेत्र में काम करने के लिए भारत लेकर आए थे। स्वामी जी की प्रेरणा से सिस्टर निवेदिता ने महिला जागरण हेतु एक गल्र्स स्कूल कलकत्ता में खोला। वह घर-घर जाकर गरीबों के घर लड़कियों को स्कूल भेजने की गुहार लगाने लगीं। विधवाओं और कुछ गरीब औरतों को आत्मनिर्भर बनाने के उद्देश्य से वह सिलाई, कढ़ाई आदि स्कूल से बचे समय में सिखाने लगीं। जाने-माने भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बोस की सिस्टर निवेदिता ने काफी मदद की, ना केवल धन से बल्कि विदेशों में अपने रिश्तों के जरिए। वर्ष 1899 में कोलकाता में प्लेग फैलने पर सिस्टर निवेदिता ने जमकर गरीबों की मदद की।
स्वामी जी ने अनुभव किया कि समाज सेवा केवल संगठित अभियान और ठोस प्रयासों द्वारा ही संभव है। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए स्वामी विवेकानंद ने 1897 में रामकृष्ण मिशन की शुरूआत की और अध्यात्म, वैज्ञानिक जागरूकता एवं आर्थिक समृद्धि के लक्ष्य को हासिल करने के लिए अपने युगानुकूल विचारों का प्रसार लोगों में किया। अगले दो वर्षो में उन्होंने बेलूर में गंगा के किनारे रामकृष्ण मठ की स्थापना की। उन्होंने भारतीय संस्कृति की अलख जगाने के लिए एक बार फिर जनवरी, 1899 से दिसंबर, 1900 तक पश्चिम देशों की यात्रा की। स्वामी विवेकानंद का देहान्त 4 जुलाई, 1902 को कलकत्ता के पास बेलूर मठ में हो गया। स्वामी जी देह रूप में हमारे बीच नहीं है लेकिन उनके अध्यात्म, वैज्ञानिक जागरूकता एवं आर्थिक समृद्धि के विचार युगों-युगों तक मानव जाति का मार्गदर्शन करते रहेंगे।
प्रधानमंत्री श्री मोदी स्वामी विवेकानंद को अपना आदर्श मानते हैं। भारतीय संस्कृति की सोच को विश्वव्यापी विस्तार देने की प्रक्रिया को आज प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी निरन्तर अथक प्रयास कर रहे हैं। जब से उन्होंने देश की बागडोर अपने हाथों में ली है, तब से सनातन संस्कृति की शिक्षा को आधार मानते हुए इसके प्रसार के लिए वे ‘अग्रदूत’ की भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। श्री मोदी न केवल सनातन संस्कृति के ज्ञान को माध्यम बनाकर विश्व समुदाय को जीवन जीने का नवीन मार्ग बता रहे हैं, बल्कि भारत को एक बार फिर विश्वगुरू के रूप में स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इस दृष्टिकोण को ‘माय आइडिया आफ इंडिया’ के रूप में कई बार संसार के समक्ष भी रखा है। श्री मोदी का कहना है कि स्वामी विवेकानन्द द्वारा बताए गए मार्ग पर चलते हुए हमें देश के प्रत्येक व्यक्ति का आत्मविश्वास तथा जीवन स्तर बढ़ाने के लिए कड़ी मेहनत करना है।
देश के प्रसिद्ध विज्ञानरत्न लक्ष्मण प्रसाद ने पूर्व राष्ट्रपति डाॅ. अब्दुल कलाम जी की सलाह पर स्वामी जी पर पुस्तक लिखने का निश्चय किया। विज्ञानरत्न लक्ष्मण प्रसाद को अनेक बार यूरोप, अमेरिका, कनाडा आदि पश्चिमी देशों में जाने का अवसर मिला है। श्री लक्ष्मण प्रसाद को अथक परिश्रम तथा अमेरिका तथा कनाडा की विश्वविख्यात लाइब्रेरियों में बहुत खोज करने के बाद स्वामी विवेकानंद के विषय में एक विशेष पुस्तक पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जिसमें स्वामी विवेकानंद जी के वैज्ञानिक एवं आर्थिक दृष्टिकोण का विस्तृत वर्णन था। इस पुस्तक को पढ़कर वह बहुत प्रभावित हुए। ऐसी पुस्तक उन्हें भारत में नहीं मिली थी। विदेश से लौटने के उपरान्त उन्होंने स्वामी जी के व्यक्तित्व पर ‘‘स्वामी विवेकानंद वैज्ञानिक जागरूकता एवं आर्थिक समृद्धि के प्रबल समर्थक’’ नामक प्रेरणादायी पुस्तक लिखी है।
स्वामी जी ने अमेरिका भ्रमण में पाया कि बिजली के आगमन से अमेरिकियों के जीवन स्तर में आधुनिक बदलाव आया है। स्वामी जी ने अपने छोटे भाई महेन्द्रनाथ दत्त को संन्यास की दीक्षा नहीं दी तथा विद्युत शक्ति का अध्ययन करने के लिए उन्हें तैयार किया। उन्होंने कहा कि देश को विद्युत इंजीनियरों की ज्यादा आवश्यकता है अपेक्षाकृत संन्यासियों के।
जब प्रख्यात भारतीय वैज्ञानिक डा. जगदीश चन्द्र बसु को वैज्ञानिक जगत में सफलता मिली तब स्वामीजी ने विश्वास व्यक्त किया कि अब भारतीय विज्ञान का पुनर्जन्म हो गया और यह कालान्तर में सत्य साबित हुआ। जब डा. बसु ने नोबेल पुरस्कार से सम्मानित फ्रांसीसी लेखक और नाटककार रोमा रोलां से हुई अपनी भंेंट में भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने की इच्छा व्यक्त की तो स्वामी जी ने उन्हें न सिर्फ रोका बल्कि चेतावनी देते हुए कहा कि ‘‘विज्ञान ही आपका राष्ट्रीय संग्राम होना चाहिए।’’ स्वामी जी ने डाॅ. बसु को समझाया कि भारत के भावी संघर्ष के लिए विज्ञान में प्रगति आवश्यक है। भविष्य में बहुत कठिन प्रतियोगिता का वातावरण उत्पन्न होगा और उसमें अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए भारत को वैज्ञानिक देश बनाना आवश्यक है।
इस पुस्तक के अनुसार स्वामी जी का स्पष्ट मत था कि विज्ञान के अद्भुत विकास के साथ धर्म की सोच में भी परिवर्तन की आवश्यकता है। स्वामी जी पूरे समाज को एक स्तर पर लाना चाहते थे और यही उनका समाजवाद था। उनका समाजवाद कार्ल माक्र्स की पुस्तकों पर नहीं वरन् वेदान्त पर आधारित था। विवेकानंद के अनुसार वेदान्त में विशेषाधिकार आधारित व्यवस्था का विरोध किया गया है। विवेकानंद का मानना था कि औद्योगिक विस्तार के साथ व्यापारिक विस्तार भी आवश्यक है। स्वामी जी ने उन भारतीयों को प्रोत्साहित किया जो निजी तौर पर विदेशों से व्यापार के लिए आगे बढ़ रहे थे।
स्वामी जी ने उत्पादन व्यवस्था में श्रम के मूल्य का भी महत्व बतलाया। उनके अनुसार संसार के सभी संसाधनों में मानव संसाधन सबसे ज्यादा मूल्यवान है। उनके अनुसार एक व्यक्ति का अधिक शक्तिशाली होना, कमजोर व्यक्तियों के शोषण का कारण बनता है। दूरदर्शी विवेकानंद ने भांप लिया था कि आने वाले समय में अकुशल तथा अर्धकुशल श्रमिकों की मांग कम होती चली जायेगी। दूसरी ओर कुशल मजदूरों की मांग तेजी से बढ़ेगी। इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने भारतीय मजदूरों की तकनीकी शिक्षा पर जोर दिया।
देश के प्रसिद्ध उद्योगपति तथा औद्योगिक घराने टाटा समूह के संस्थापक जमशेदजी टाटा चाहते थे कि ऐसे दृढ़ संकल्प वाले संन्यासी तैयार किये जाएं जो भारत की प्रगति में सक्रिय योगदान करें। जब जमशेदजी ने स्वामी जी से अपने भावी व्यवसाय की चर्चा की तो स्वामी जी ने उसमें खास रूचि ली। जब जमशेदजी ने उन्हें बताया कि वे जापान से माचिस आयात करके भारत में बेचेंगे तो उन्होंने राय दी कि आयात करने के बजाय वे भारत में बेहतर निर्माण हेतु कारखाना लगाए। इसमें न सिर्फ आपको बेहतर मुनाफा होगा वरन् तमाम भारतीयों को रोजगार मिलेगा। देश का धन देश में ही रहेगा। स्वामी जी ने भारत में सिर्फ माचिस निर्माण ही नहीं वरन् हर चीज के उत्पादन करने की क्षमता विकसित करने के लिए लगातार चिंतन किया।
स्वामी विवेकानन्द के मार्गदर्शन व आशीर्वाद तथा जमशेदजी टाटा जैसे दूरद्रष्टा की कोशिशों से सन् 1909 ई. में भारतीय विज्ञान संस्थान- बंगलोर की स्थापना हो सकी। भारतीय विज्ञान संस्थान दो महान् व्यक्तियों की दूरदृष्टि (प्रकारान्तर से विज्ञान व अध्यात्म के सम्मिलित प्रयत्न से) से स्थापित हो सका। यह भौतिकी, एयरोस्पेस, प्रौद्योगिकी, ज्ञान आधारित उत्पाद, जीव विज्ञान और जैव प्रौद्योगिकी का एक विश्वस्तरीय संस्थान है। 21वीं सदी का उज्जवल भविष्य अध्यात्म एवं विज्ञान के मिलन में निर्भर है।
विज्ञान की कोशिश है कि लोगों का भौतिक जीवन बेहतर हो, जबकि अध्यात्म का प्रयास है कि प्रार्थना आदि उपायों से इन्सान सच्ची राह चले। विज्ञान और अध्यात्म के मिलन से तेजस्वी नागरिक का निर्माण होता है। तर्क और युक्ति विज्ञान व अध्यात्म के मूल तत्त्व हैं। धार्मिक व्यक्ति का लक्ष्य आध्यात्मिक अनुभूति प्राप्त करना है, जबकि वैज्ञानिक का मकसद कोई महान् खोज या अविष्कार करना होता है। यदि जीवन के ये दो पहलू आपस में मिल जाएँ तो हम चिन्तन के उस शिखर पर पहुँच जाएँगे जहाँ उद्देश्य एवं कर्म एक हो जाते हैं। इस आधार पर उच्चतम विकसित समाज का निर्माण साकार होगा।
अध्यात्म एवं विज्ञान में समन्वय एवं आर्थिक समृद्धि के प्रबल समर्थक विवेकानंद जी केवल भारत के ही गुरू नहीं वरन् वह जगत गुरू के रूप में भारत का प्रतिनिधित्व करने की उपयुक्त योग्यता रखते थे उन्होंने अपने गुरू रामकृष्ण परमहंस से विभिन्न धर्मों के सारभौतिक सत्य को आत्मसात किया था। नवयुग का नवीन दर्शन और नवीन विज्ञान है – वैज्ञानिक अध्यात्म। स्वामी जी का मानना था कि अध्यात्म एवं विज्ञान में समन्वय के विचारों में विश्व की सभी समस्याओं के समाधान निहित हैं!
लखनऊ से प्रदीप कुमार सिंह