दस्तक साहित्य संसारदस्तक-विशेषपुस्तक समीक्षासाहित्यसुमन सिंह

कंठ में जीने-जागने वाले गीतों का संग्रह है “इसलिए”

प्रो. वशिष्ठ अनूप

हिन्दी विभाग, बीएचयू

वाराणसी, मो. – 9415895812

वशिष्ठ अनूप का एक गीत ‘इसलिए ‘ जिसका कि रचनाकाल 1985 है, तत्कालीन जनांदोलनों का आह्वान-गान बन गया था। बक़ौल यश मालवीय- ‘यह गीत मेरे कंठ में जीने-जागने लगा था।’इसलिए’ से शुरू हुआ गीत तर्क की सघन और संश्लिष्ट चेतना के साथ छंद में ऐसा बँधा कि फिर मंत्र हो गया……सड़कों पर, दफ्तरों के गेट पर, कारखानों में, बंद मिलों के द्वार पर जनसंघर्षों के बिगुल फूँकता यह गीत आज भी शिराओं में रक्त संचार की गति तीव्रतर कर देता है।’

इस क़िताब का पहला ही गीत “इसलिए” बहुत प्रसिद्ध हुआ। ‘गीत’ अपने ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में आदिम सुवास से भीनी सामवेद की ऋचाएँ, उपनिषदों की स्तुतियाँ, बौद्धों की अमृत वाणी को सहेजे हुए मनुष्य के युगों-युगों की सृजनात्मक यात्राओं के साक्षी हैं। अनगढ़, असभ्य और अकृत्रिम कंठों में व्याप उन्हें सुमधुर और मनोहर बना देने की नैसर्गिक क्षमता लिए हुए वे युगानुरूप कलेवर बदलने में सक्षम हैं। इतिहास के पृष्ठ ‘गीत’ के ‘नवगीत’ बन जाने की ओजस्वी और क्रांतिकारी कथा कहते हैं। सत्तर के दशक में देश के तत्कालीन परिवेश से मोहभंग की अवस्था से उपजी खिन्नता और आक्रोश को उद्घाटित कर जनांदोलनों का नेतृत्व करने वाले जन-मन के मुक्ति-गान बन जाते हैं। उस दौर के गीतकारों में रमेश रंजक, नचिकेता, शांति सुमन, अश्वघोष, महेंद्र नेह, ब्रजमोहन, विजेंद्र कौशिक, गोरख पाण्डेय, शलभ श्रीराम सिंह, हरीश भदानी और वशिष्ठ अनूप जैसे गीतकार जन सरोकारों और संघर्षों के ख्यात, प्रतिबद्ध और सजग चितेरे हैं।


यश मालवीय की ये पंक्तियाँ और ‘इसलिए’ गीत में व्याप्त जन-मन की सहज किंतु दृढ़ आत्म-उपस्थिति जो आज भी जन-जन की चेतना को आंदोलित और प्रेरित करती है। जिसके कई-कई ऑडियो-वीडियो सोशल मीडिया पर उपलब्ध हैं। इस गीत ने दीर्घायु पाई है अपनी गुणवत्ता के कारण। कठिन समय में कई -कई कंठों में घुल जागरण का आह्वान किया है। कभी-कभी तो यह इतने लोगों के हृदयों से गुजरा कि यह सबका हो गया और इसका मूल रचनाकार खो गया। किसी भी रचना का इससे बड़ा सौभाग्य क्या हो सकता है कि वह सबकी अपनी हो जाय। इस अकेले गीत की लोकप्रियता ने, महत्ता ने मुझे इस संग्रह से जुड़ने के लिए प्रेरित किया। इस संग्रह से जुड़ना गीतकार के रचनाकाल की दो अवस्थाओं से जुड़ना है, पहली तरुण है और दूसरी प्रौढ़। इसलिए इस संग्रह का भावलोक कहीं बहुत ही स्वप्निल है तो कहीं बहुत ही क्रांतिकारी। कहीं देशराग है तो कहीं प्रेमराग। कहीं सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियों के विद्रूप का सजग, सतेज चित्रण है तो कहीं क्षण-क्षण छीजती प्रकृति के अपंग-असहाय होने की दारुण कथा है। इस संग्रह का शीर्षक गीत ‘इसलिए’ में महज चिताएं ही नहीं चिंतन भी है। परिस्थिति कितनी भी विकट क्यों न हो उस पर विजय पाने का साहस भरपूर है। घोर निराशा में भोर के उजास सी मधुर-मंथर किंतु अनिवार्य पंक्तियों से अनुप्राणित है यह गीत —

“इसलिए राह संघर्ष की हम चुनें
ज़िंदगी आँसुओं से नहाई न हो,
शाम सहमी न हो, रात हो ना डरी
भोर की आँख फिर डबडबाई न हो।”

भोर की आँख के ‘फिर’ से न डबडबाने के मूल में संभवतः भावी पीढ़ी के लिए शोषणरहित, निष्कंटक, सुंदर और स्नेहिल समाज की ही कामना है। इस पूरे गीत में सामान्य जन की सहज -भोली कामनाएँ, जीवन की बुनियादी चहनाएँ और सदियों से चले आ रहे शोषण के विरुद्ध विरोध का भाव मुखर है किंतु नारे की तरह नहीं उस पूतमंत्र की तरह जिसके द्वारा आत्मबल पाया जाता है। इस गीत के लोकप्रिय और दीर्घायु होने के पीछे भी यही कारण है कि यह आज भी संघर्ष से विचलित जन-मन को दृढ़ता देता है-

” अब तमन्नाएँ फिर ना करें खुदकुशी
ख़्वाब पर खौफ़ की चौकसी ना रहे
श्रम के पाँवों में हों ना पड़ी बेड़ियाँ
शक्ति की पीठ अब ज़्यादती ना सहे।”

वशिष्ठ अनूप जी के जनवादी आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी रखने के कारण ही इस संग्रह के कई—कई गीत तत्कालीन संघर्षों की गाथा कहते हैं। ये आम जन के हक-हुकूक की बात करते हैं। कहीं ये किसानों के साथ हो लेते हैं तो कहीं मजूरों की आवाज़ बन जाते हैं। इन गीतों में समाज के दलित, शोषित तबके की व्यथा-कथा को बहुत ही सहजता से चित्रित किया गया है। इन गीतों के नायक किसान और मजूर अपनी दुःख-कथा कहते हुए भी अपने अस्तित्व को लेकर सजग हैं। अपने अधिकारों के प्रति सचेष्ट हैं और संघर्षों से जूझते हुए भी दृढ़ हैं—

” यह खेत है पुरखों की थाती
इसमें है हमारी परिपाटी
इससे ही सुबह हमारी
इससे है हमारी सँझवाती
इस खेत को जो छीने हमसे
उससे हरहाल में लड़ना है
यह खेत बचाने की खातिर
हमको जीना है, मरना है
जो इसे छीनने आयेंगे
उनके पंजों को मरोड़ेंगे
हम खेत न हरगिज छोड़ेंगे।”

“जय किसान ” के नारे और अन्नदाताओं के हित में बनी तमाम तरह की योजनाओं के सतही और कागज़ी कारोबार की कलई बहुत सरलता से खोली गई है इन गीतों में।प्रकारांतर से किसानों के पक्ष में साहस और दृढ़ता के साथ खड़े दिखाई देते हैं ये गीत। “इसलिए” संग्रह के गीतों में जहाँ एक ओर क्रांतिकारी जनपक्षधरता प्रबल है वहीं प्रेम भी अपनी कोमलता और व्यापकता के साथ उपस्थित है। कहीं वह शिशु की कोमल किलकारी से मुदित गा उठता है-

“अपनी मोहक किलकारी से गगन गुँजाते तुम
इस रीते जीवन को हो सम्पूर्ण बनाते तुम।”

तो कहीं प्रेयसी से मीठी मनुहार कर बैठता है-

” आम के बाग मह-मह महकने लगे
गंध बौराई अब तो चले आओ ना।
हर तरफ फूल ही फूल इठला रहे
चाह मुस्काई अब तो चले आओ ना।”

चाह की यह मुस्कान इस संग्रह के कई प्रेमगीतों में खिली हुई है। प्रेम छोह -बिछोह संग जीवन का अभिन्न संगी है। बिछोह में भी मिलन की आस बची है और इसी बचाव से जीवन बचा है, क़ायम है-

” बढ़ रही हैं अँधेरे की बरजोरियाँ
तुम मिलो तो पुनः कोई दीपक जले
जख़्म दिल के दिनोंदिन हरे हो रहे
जी रहा यह तुम्हारी निशानी लिए।”

“प्रेम” इस संग्रह का प्राण है। यह व्यक्ति से समष्टि तक व्याप गया है। इसी व्यापकता में हम प्रकृति से निकटता के भी कोमल-सजीव चित्रण देखते हैं इन गीतों में। प्रकृति का मनुष्यों के द्वारा निरंतर किया जा रहा दोहन चिंता का विषय है। आदिवासियों को तथाकथित आधुनिक और प्रगतिशील बनाने की नीतियों की आड़ में उन्हें बेघर किये जाने का, उनकी अस्मिता छीन लेने का षड्यंत्र किया जा रहा है। इन गीतों में उनकी व्यथा-कथा सहज ही चित्रित है-

” आज जंगल रो रहा है
बंधु! जंगल रो रहा है
माँ- पिता पुरजन सुनो !
वन होके पागल रो रहा है


राम के वनवास के साथी
उजाड़े जा रहे हैं
आदिवासी आज अपने
घर में मारे जा रहे हैं

मिट रहे वनवासियों—पशुओं का आश्रय रो रहा है। कितनी सहजता से कितने बड़े और गहरे दुख को यहाँ उद्घाटित कर दिया गया है। ऐसी ही अनगिन चिन्ताएँ, पीड़ाएँ इस संग्रह के तमाम पृष्ठों पर दर्ज़ हैं। इन चिंताओं में हमारे गाँव विशेष रूप से चिन्हित हैं। गाँव, जहां से पीढ़ियों से पलायन जारी है। पुराने छायादार वृक्षों के साथ ही साथ पुरानिया नेही-छोही काल कवलित हो गए हैं। गाँव के मोह में डूबे लोगों के लिए गाँव विक्षिप्त कर देने वाले बेगानेपन और सुन्न कर देने वाले सन्नाटे से भर गया है।
इस गीत की कुछ पंक्तियाँ देखिये—
” क्या करें अब गाँव में
गाँव में अम्मा नहीं,
चाची नहीं, भौजी नहीं हैं।

अब न होली और कजरी
का मधुर स्वर आ रहा है
अब न ढोलक बज रहे
कोई न चैता गा रहा है
नहीं सुबहें गुनगुनातीं
शाम इठलाती नहीं है।”

खेती-किसानी, गाँव-जवार को काल की कुदृष्टि लग गई। हतभाग्य कि हम निरंतर ही पतन की ओर जा रहे। क्षरण जारी है… मनुष्यता का, अस्मिता का और सबसे अधिक कहें तो भाषा का। हमारे बहुभाषी देश में हमारी पहचान हमारी विविध वर्णी बोलियों और भाषाओं से है। शहर की ओर रुख करते गाँव अपनी बोली-बानी बिसारते जा रहे। भाषाएँ दिनोंदिन अशक्त और अप्रभावी होती जा रही हैं क्योंकि अंतराष्ट्रीय बाज़ार के लिए ये अनुपयोगी मानी जाती हैं। ऐसे में जबकि बोली और भाषा का अस्तित्व खतरे में है उसको बचाने की कुछ मुट्ठीभर कोशिशें भी कम नहीं। ऐसी ही कोशिश इस संग्रह में भोजपुरी के लिए की गई है। भोजपुरी का प्रसार विश्वव्यापी है। आजादी की लड़ाई से लेकर अनेक जनांदोलनों के इतिहास में भोजपुरी की जयगाथा गुंजायमान है लेकिन यदि वर्तमान परिदृश्य में देखें तो अश्लीलता का पर्याय बनती जा रही है यह बोली, जो किसी भी बोली-भाषा की अस्मिता के लिए खतरा है। ऐसे में भोजपुरी के संरक्षण और संवर्धन केे लिए कई व्यक्तिगत और संस्थागत प्रयास किए जा रहे हैं।
भोजपुरी का साहित्यिक इतिहास तो गौरवशाली है ही वर्तमान में भी नित नूतन सर्जनाएँ इसके सहित्यिक भंडार को समृद्ध कर रही हैं। इस संग्रह में भी भोजपुरी की रचनाएँ गीतकार के भावसंसार की समृद्धि की द्योतक हैं। वे अपने जन की बात अपनी मातृबोली में सहज-सुघरई से कहते हैं। किसानों, मजूरों से लेकर दहेज के दानव से सताई आग की लपटों में झोंक दी गई फूल सी सुकुमार देह की झुलस-राख होने की कातर कथा कहते हैं—

“फूल जइसन बदन से लपटिया उठे,
आगि ई कहियो आखिर बुताई कि ना।
रोज हुंकार एकर बढ़ल जात बा,
ई दहेजवा क दानव मराई कि ना।”

आश्चर्य की बात है कि हमारा धर्मप्राण देश हर साल रावण दहन का आयोजन एकजुट हो धूमधाम से करता है लेकिन दहेज के दानव के खात्मे के लिए यह एकजुटता कहीं नजर नहीं आती वरन लोलुपता और नृशंसता दिनोदिन बढ़ती ही जा रही है। बुनकरों, किसानों, मजूरों और स्त्रियों की दुर्दशा का मार्मिक वर्णन इन भोजपुरी गीतों में सहज ही व्याप गया है। यही सहजता ही इस संग्रह को उल्लेखनीय और पठनीय बनाती है। समग्र रूप से कहें तो जीवन-जगत के इंद्रधनुषी रंग अपने नैसर्गिक रूप में इस संग्रह में विद्यमान हैं जिनकी छटा सहज ही मोहती है।

गीत संग्रह समीक्षा

डॉ. सुमन सिंह

साहित्य संपादक 

दस्तक टाइम्स

 

 

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