ज्योतिष : भगवान परशुराम विष्णु के छठवें अवतार हैं। ये चिरंजीवी होने से कल्पांत तक स्थायी हैं। इनका प्रादुर्भाव वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को हुआ, इसलिए उक्त तिथि अक्षय तृतीया कहलाती है। इनका जन्म समय सतयुग और त्रेता का संधिकाल माना जाता है। इस संबंध में उल्लेख है कि : –
वैशाखस्य सिते पक्षे तृतीयायां पुनर्वसौ।
निशायाः प्रथमे यामे रामाख्यः समये हरिः॥
स्वोच्चगै षड्ग्रहैर्युक्ते मिथुने राहु संस्थिते।
रेणुकायास्तु यो गर्भादवतीर्णो विभुः स्वयम्॥
अर्थात्- वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में रात्रि के प्रथम प्रहर में उच्च के छः ग्रहों से युक्त मिथुन राशि पर राहु के स्थित रहते माता रेणुका के गर्भ से भगवान विभु स्वयं अवतीर्ण हुए। इस प्रकार भगवान परशुराम का प्राकट्य काल प्रदोष काल ही है।
नरसिंह पुराण में उनके अवतीर्ण होने के कारण को स्पष्ट करते हुए कहा गया है : –
पर्शुराम इति ख्यातः सर्व लोकेषु स प्रभुः।
दुष्टानां निग्रहंकर्त्तुमवतीर्णो महीतले॥
अर्थात्- सब लोकों में परशुराम के नाम से विख्यात उन प्रभु ने दुष्टों का विनाश करने के लिए पृथ्वी पर अवतार लिया।
स्पष्ट है कि :-
‘परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥’
इसको चरितार्थ करते हुए तत्समय अन्याय, अत्याचार और अधर्म के प्रतीक बने राजा कार्त्तवीर्य सहस्त्रार्जुन के दुष्कर्मों से आतंकित धर्मशील प्रजा का उद्घार करने के लिए ही ईश्वर ने मनुष्य रूप में अवतार धारण किया था। वर्तमान मध्यप्रदेश के महू कस्बे के पास स्थित जानापाव गाँव को उनका जन्म स्थान माना जाता है। ब्रम्हाजी के सात मानस पुत्रों में प्रमुख महर्षि भृगु के चार पुत्र धाता, विधाता, च्यवन और शुक्राचार्य तथा एक पुत्री लक्ष्मी हुईं। च्यवन के पुत्र मौर्य तथा मौर्य के पुत्र ऋचीक हुए। महर्षि जमदग्नि इन्हीं ऋचीक के पुत्र थे। वे अत्यंत तेजस्वी एवं धर्मपरायण ऋषि थे। इनका विवाह महाराजा प्रसेन्नजित (जिन्हें महाराज रेणु भी कहा जाता था) की पुत्री रेणुका से हुआ। पति परायणा माता रेणुका ने पाँच पुत्रों को जन्म दिया, जिनके नाम क्रमशः वसुमान, वसुषेण, वसु, विश्वावसु तथा राम रखे गए। राम सबसे छोटे होने पर भी बाल्यकाल में ही अत्यंत तेजस्वी प्रतीत होते थे। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि पुत्रोत्पत्ति के निमित्त इनकी माता और विश्वामित्र जी की माता को प्रसाद मिला था, जो दैववशात् आपस में बदल गया था। इस कारण रेणुका सुत परशुराम ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय स्वभाव के थे, जबकि विश्वामित्र जी क्षत्रिय कुलोत्पन्न होते हुए भी ब्रह्मर्षि हो गए। बाल्यावस्था में ही राम ने कैलाश पर्वत पर जाकर भगवान शिव की आराधना की, जिससे प्रसन्न होकर भोलेनाथ ने इन्हें कभी कुंठित न होने वाला अमोघ परशु (फरसा) प्रदान किया। फरसा कंधे पर रखकर विचरण करने के कारण इनका नाम परशुराम हो गया। बालक परशुराम न केवल मातृभक्त थे, अपितु पिता के भी परम आज्ञाकारी थे। इनकी बुद्घि की परीक्षा इनकी किशोरावस्था में ही हुई, जिसमें इन्होंने अपनी विलक्षणता सिद्घ की। एक बार जब माता रेणुका जल लेकर देर से लौटीं और महर्षि जमदग्नि का हवन काल बीत गया, तो उन्होंने क्रोधावेश में आकर वहाँ उपस्थित चारों पुत्रों को अपनी माता रेणुका का वध करने की आज्ञा दे डाली। जब उन्होंने पिता की इस निदारूण आज्ञा का पालन नहीं किया, तो उनकी क्रोधाग्नि और भड़क उठी। जैसे ही राम वन से समिधा लेकर लौटे ऋषि जमदग्नि ने उन्हें भी माता सहित अपने चारों सहोदरों के वध की आज्ञा दी। परशुराम तो अपने पिता के सामर्थ्य से परिचित थे, अतः उनके क्रोध को शांत करने के लिए उन्होंने उनकी आज्ञा का अक्षरशः पालन करते हुए चारों भाइयों सहित प्रिय माता का भी वध कर दिया। महर्षि जमदग्नि का क्रोध इससे शांत हुआ। उन्होंने पुत्र से मनचाहा वर मांगने को कहा तो राम ने निःसंकोच भाव से कहा- पिताजी! आपकी प्रसन्नता ही मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ वर है, तथापि यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो कृपाकर मेरी जन्मदात्री माता और चारों सहोदरों को पुनः जीवित करने और उन्हें इस घटना की स्मृति न रहने का वर दें। पुत्र की बुद्घिमत्ता से संतुष्ट होकर महर्षि ने तुरंत अपनी मंत्र शक्ति के प्रभाव से अपनी पत्नी और पुत्रों को जीवित कर दिया और उन्हें इस प्रसंग का स्मरण भी नहीं रहा। यह भी अद्भुत संयोग है कि पिता के क्रोध को शांत करने में अप्रतिम चातुर्य दिखाने वाले परशुराम आगे चलकर स्वयं क्रोधावतार के रूप में जाने गए। यह स्वाभाविक ही था कि एक धर्म परायण मनस्वी कतिपय प्रभुता संपन्न मदांध राजाओं के विरुद्घ विद्रोह करता, अन्यथा उनके अवतरित होने का प्रयोजन ही व्यर्थ हो जाता।
अन्यायों-अत्याचारों का, वह सबल सशक्त विरोधी हो।
होगा दुष्टों का काल वही, जो कायर ना हो, क्रोधी हो॥
भगवान परशुराम का क्रोध अकारण नहीं था। हैहय सम्राट सहस्त्रार्जुन के अत्याचार व अनाचार अपनी चरम सीमा लाँघ चुके थे। ऋषियों के आश्रम नष्ट करना, अकारण उनका वध कर देना, निरीह प्रजा को परेशान करना, अपने मद में अंधा होकर स्त्रियों का सतीत्व नष्ट करना उसके लिए मनोरंजन के साधन थे। अपने मद में अंधा होकर एक बार वह महर्षि जमदग्नि के आश्रम में आया और उनकी कामधेनु छीन कर पर्णकुटियों में आग लगाकर चला गया, जिसके कारण जमदग्नि को प्राण गंवाने पड़े। वन से लौटकर आने पर परशुराम को माता रेणुका ने इक्कीस बार छाती पीटकर रुदन करते हुए सारा वृतांत सुनाया। तब परशुराम ने पृथ्वी को दुष्ट क्षत्रियों से रहित करने का प्रण किया और तुरंत अपना फरसा, ढाल, तरकश और धनुष्य बाण लेकर दुष्टों पर टूट पड़े और सहस्त्रार्जुन की अक्षौहिणी सेना व उसके सौ पुत्रों के साथ ही उसका भी वध कर दिया। उन्होंने इक्कीस बार घूम-घूमकर दुष्ट क्षत्रियों का विनाश किया। तब जाकर उन्होंने तप एवं यज्ञ के बल से पिता जगदग्नि को संकल्पमय शरीर की प्राप्ति करा दी। महर्षि ने उनके कृत्य को अनुचित बताते हुए तीर्थों की सेवा कर निर्दोंषों की हत्या के अपने पापों का प्रायश्चित करने की आज्ञा दी। तब एक वर्ष तक तीर्थाटन कर उन्होंने प्रायश्चित किया। यही नहीं उन्होंने क्षत्रियों से जीती समस्त पृथ्वी गुरु कश्यप को अर्पित करके स्वयं मंदराचल जाकर तपस्या करने लगे। अपने उत्तरार्ध में उन्होंने उग्रता को रचनात्मकता का रूप देकर आदिवासियों को स्वच्छ आचार-विचार व उपचार की शिक्षा देकर उन्हें ब्राह्मणत्व प्रदान किया तथा वृक्षारोपण द्वारा सह्याद्रि वन लगाया।