7वीं सदी का कुंभ
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7वीं शताब्दी में मथुरा और कन्नौज के राजा हर्षवर्धन हर पांचवें साल प्रयाग के माघ मेले में आते और अपना समस्त संचित धन दान कर देते। हर्षवर्धन अपने साथ चीनी यात्री ह्वेनसांग को 643 ईसवी में प्रयाग ले आए थे। ह्वेनसांग ने प्रयाग में मेले का विस्तार से वर्णन किया है। आज से करीब 1857 साल पहले प्रयाग में कैसा कुंभ मेला जुटता था। पेश है चीनी यात्री ह्वेनसांग की इस दिलचस्प ऐतिहासिक यात्रा वृतांत के कुछ अंश।
भारत में घूमते हुए मुझे कई साल हो चुके हैं। मेरा घर, मेरा देश मुझे वापस बुला रहा है। मैं पहले से डरा हुआ हूं क्योंकि मैं अपने शक्तिशाली सम्राट तैत्सुंग की आज्ञा लिए बिना भारत की यात्रा पर निकल आया था। मैं नहीं जानता हूं कि वापस लौटने पर मेरे सम्राट मेरे साथ कैसा सलूक करेंगे। मैं कन्नौज के राजा हर्षवर्धन के आतिथ्य को अब तक नहीं समझ पाया हूं। वे मुझे जबरदस्ती अपने साथ अपनी राजधानी कान्यकुब्ज लाए हैं। अभी कुछ दिन पहले युद्ध विजय से लौट रहे हर्ष ने कामरूप के राजा भास्कर वर्मा को संदेशा भिजवाया था कि वे उस प्रसिद्ध चीनी यात्री को लेकर उनके सैन्य ठिकाने पर पहुंचे। हर्षवर्धन शक्तिशाली राजा थे। न चाहते हुए भी राजा भास्कर वर्मा मुझे लेकर हर्ष के सैन्य शिविर में पहुंचे जहां वे अपनी विशाल सेना के साथ उनका इंतज़ार कर रहे थे। हर्ष ने मेरा गर्मजोशी से स्वागत किया और मेरे लाख इनकार करने पर भी वह मुझे एक शानदार जलूस के साथ गंगा के किनारे-किनारे चलते हुए तीन महीने की लंबी यात्रा के बाद कान्यकुब्ज ले आए।
यहां मुझे मालूम चला कि राजा हर्षवर्धन ने राजकीय उपहारों के वितरण के लिए एक पंचवर्षीय परिषद की संस्थापना की है। इसके लिए वे हर पांचवें साल दान-पुण्य करने गंगा और यमुना के संगम पर प्रयागराज आते हैं। इस आयोजन को कुछ लोग मोक्ष भी कहते हैं। किंवदंती है कि यहां एक कौड़ी दान करना अन्य स्थानों में एक सहस्र कौड़ी दान देने की अपेक्षा अधिक श्रेयस्कर है। यही वजह है कि ये स्थान ‘दान धर्म का क्षेत्र’ कहलाता है। राजा हर्ष चाहते हैं कि मैं भी उनके साथ प्रयाग चलूं और देखूं कि उस मेले में कैसे देश के कोने-कोने से लाखों लोग एक जगह जुटते हैं। मैं इस निमंत्रण को ठुकरा नहीं सकता हूं। मैंने हर्ष से कहा कि जब आपको दूसरों के कल्याण के लिए अपने कोष का लुटाना नहीं अखरता तो मुझे घर की यात्रा में थोड़ा सा विलम्ब कैसे अखर सकता है?
आखिर में घोड़े-हाथियों का एक विशाल काफिला तैयार हुआ जिस पर तमाम तरह के उपहार लादे गए। रथों पर राजा के मंत्री और दूसरे अधिकारी सवार हैं। मैं खुद को बहुत सम्मानित महसूस कर रहा हूं क्योंकि राजा हर्ष ने मुझे अपने रथ पर जगह दी है। कई दिनों की यात्रा खत्म करने पर जब हम संगम के उस मैदान में पहुंचे तो देखता हूं यहां लगभग पांच लाख लोग पहले ही से इकट्ठे हैं। लोगों की भीड़ देखकर हतप्रभ हूं। एक जगह एक साथ इतने लोग मैंने पहले कभी नहीं देखे थे। दान के अखाड़े’ के रूप में प्रसिद्ध यह लगभग पांच मील के घेरे में संगम के पश्चिम का रेतीला मैदान है। भारत के पांचों हिस्से से सर्वत्र श्रमणों, नास्तिकों, निग्र्रन्थों, दीनों, अनाथों और दु:खियों को दान के अखाड़े में आने और राजकीय दान को ग्रहण करने के लिए निमंत्रण भेजा गया था। एक वर्गाकार घेरा बनाया गया। उसके चारों ओर एक बांस की बाड़ बनाई गई है, जिसकी प्रत्येक भुजा नाप में एक हजार क़दम के करीब है। बीच में बीसियों छप्परदार घर हैं जिनमें सोना, चांदी और मोती जैसी बहुमूल्य निधियां रखी गई हैं। सोने और चांदी की मुद्राएं, रेशमी और सूती वस्त्र जैसी कम क़ीमती चीजें इसी घर के अन्दर सैकड़ों अन्य गोदामों में रखी गई हैं। बाहर भोजन जीमने के लिए स्थान बनाए गये हैं। लगभग एक सौ दीर्घाकार मकान भी बनाए गए हैं जहां एक हजार आदमी विश्राम करने के लिए बैठ सकें।
यहां केवल राजा हर्ष ही नहीं बल्कि आस पास के कई राजाओं के शिविर लगे हैं। गंगा के उत्तरी तट पर सम्राट हर्ष का शिविर लगा है। संगम के पश्चिम में वलभी के राजा का और यमुना के दक्षिणी तट पर आसाम के राजा का तम्बू लगा है। जबकि वलभी के शिविर के पश्चिम की ओर दान लेने वाले लाखों लोग इकट्ठा हैं। धर्म परिषद् की कार्यवाही सम्राट के अनुयायी-वर्ग, कुमार राज के जहाजों में बैठे हुए कर्मचारियों, ध्रुवभट्ट के हाथियों पर आरूढ़ परिचारकों तथा साथ ही अट्ठारह राजाओं के सम्मिलित फ़ौजी जुलूस से आरम्भ की गई। पहले दिन के कार्यक्रम में सभा भूमि में छप्परदार भवन के अन्दर बुद्ध की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा की गई।
इस मौके पर राजा हर्ष ने सबसे अधिक क़ीमती वस्त्रों और अन्य महंगी वस्तुओं का दान किया। दूसरे और तीसरे दिन सूर्य (आदित्य) और शिव (ईश्वर) की मूर्तियों की स्थापना हुई। इसके बाद बुद्ध के सम्मान में दी गई वस्तुओं के मूल्य का केवल आधा दान दिया गया। चौथे दिन उपहारों का वितरण 10,000 चुने हुए बौद्धों के लिए रखा गया है। हर किसी को खाने-पीने की चीजों के अलावा फूलों और सुगन्धियों के अतिरिक्त 100 सुवर्ण मुद्राएं, एक मोती और एक सूती पोशाक उपहार में दी गई। अगले बीस दिन ब्राह्मणों को दान दक्षिणा देने का कार्यक्रम चला। इसके अगले दस दिन नास्तिकों को दान दिया गया। इसमें दूर-दूर के देशों से आये हुए भिखारी भी शामिल थे। इस तरह गरीबों, अनाथों और दीनों को दान देने में एक पूरा एक महीना बीत गया। अब राजा का पांच वर्ष में किया गया संचय कोष समाप्त हो चुका है। घोड़े, हाथी और फ़ौज के लिए जरूरी खर्च को छोड़कर राजा अपना सब कुछ इस मेले में दान कर चुके हैं।
फिर अंत में राजा ने अपनी निजी चीजें दान में देनी शुरू की जिनमें गले में पहना हार, कुण्डल, कंगन, कीमती मालाएं, कण्ठमणि और देदीप्यमान शिरोमणि शामिल थे। सब उतार कर लोगों को बांट दीं। उसके पास कुछ भी शेष नहीं बचा जिसे वह अपना कह सके। राजा अपना सर्वस्व दान देकर उमंग से उल्लासित था। उसे संतोष था कि उसकी सारी संचित सम्पत्ति और कोष इस प्रकार ‘पुण्य-क्षेत्र’ में दान कर दी गई। राजसी वस्त्र बचे थे वे भी राजा ने किसी को दे दिए। अंत में उसने अपनी बहन राज्यश्री की ओर देखा। एक नई राजसी पोशाक उसकी बहन पहले से अपने साथ लाई थी। राजा ने नए वस्त्र धारण किए और सभी दिशाओं के बुद्धों की आराधना की।
संगम पर ही एक प्रसिद्ध देव मंदिर है जिसके सामने एक विशाल, विस्तृत वटवृक्ष है। मोक्ष की कामना में इस वृक्ष से कूद कर लोग आत्महत्या कर लेते हैं। वृक्ष के नीचे मानवों की हड्डियां बिखरी पड़ी हैं। कुछ लोग कहते हैं कि इस वृक्ष में एक बार एक नरभक्षी राक्षस रहता था, इसलिए वृक्ष के पास बहुत सारी हड्डियां मौजूद हैं, पर ऐसा नहीं लगता। मंदिर में आने वाले लोग, गलत शिक्षा और अलौकिक प्राणियों के प्रभाव में आकर, पुराने समय से ही लगातार हल्के-फुल्के ढंग से यहां आत्महत्या करते रहे हैं। हालांकि, हाल ही में, अच्छे परिवार के एक बहुत ही बुद्धिमान और विद्वान ब्राह्मण ने लोगों को उनके अंध विश्वास से मुक्त करने और आत्महत्या की प्रथा को रोकने की कोशिश की थी। वह मंदिर में गया और मित्रों की उपस्थिति में पेड़ पर चढ़कर नीचे छलांग लगा खुद को मारने के लिए आगे बढ़ा। पेड़ पर चढ़ते समय उसने दर्शकों को संबोधित करते हुए कहा ‘मैं मरने जा रहा हूं। पहले मैंने इस मामले को भ्रम के रूप में कहा था, अब मेरे पास सबूत है कि यह वास्तविक है। देवता अपने आकाशीय संगीत के साथ मुझसे मिलने आ रहे हैं, और मैं इस पुण्य स्थान से अपने नीच शरीर को त्यागने वाला हूं।’
जब ब्राह्मण खुद को मारने के लिए पेड़ से नीचे गिरने वाला था, तो उसके दोस्तों ने उसे ऐसा करने से रोकने की कोशिश की, लेकिन उनकी सलाह बेकार गई। फिर उन्होंने अपने कपड़े और मोटी चादरें पेड़ के नीचे बिछा दी। जब ब्राह्मण गिरा तो उसे कोई चोट नहीं लगी, लेकिन वह बेहोश हो गया। जब वह होश में आया तो उसने पास खड़े लोगों से कहा- ‘देखो मुझे कूदने के बाद स्वर्ग का कोई देवता नहीं मिला। वे दुष्ट देवता थे जो मुझसे मिलने आ रहे थे। इसमें कोई स्वर्गीय आनंद नहीं है।’