दस्तक-विशेष

जन सरोकारों से दूर हुयी अर्थव्यवस्था

डॉ. रहीस सिंह

economyपिछले दिनों भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की सिरमौर अथवा अंधों में काना राजा, जैसे दो विपरीत संदेशों वाले जुमले सुनाई दिया। स्वाभाविक रूप से पहला पक्ष सरकार का है जो स्वयं अपनी पीठ ठोकना चाहती है और दूसरा एक स्वतंत्र एजेंसी यानि रिजर्व बैंक के गवर्नर का जो देशवासियों को वास्तविक स्थिति से अवगत कराना चाहते हैं और सरकार को यह संदेश भी देना चाहते हैं कि स्वप्न देखना और दिखाना दोनों ही उचित नहीं हैं। लेकिन उनका संदेश उन पर अब भारी पड़ता दिख रहा है। सरकार के लोग और उनके पैरोकार स्वस्थ समालोचना में नरेन्द्र मोदी की प्रतिष्ठा जोड़ देने का हुनर दिखाने को बेताब हैं। सवाल यह उठता है कि क्या वास्तव में मोदी सरकार ने अपने दो वर्षों के कार्यकाल में ऐसा हुनर दिखायी दिया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था पिछले स्तर से काफी ऊपर उठकर आकाश में उड़ने को बेताब है या फिर इसमें कुछ आंकड़ों की जादूगरी का बड़ा खेल है फिर चाहे वह मामला जीडीपी ग्रोथ का हो अथवा राजकोषीय घाटे का?
भारत के आर्थिक सर्वेक्षण पर ध्यान दें तो देश की गत वर्ष की आर्थिक प्रगति और सरकार की उपलब्धियों का दस्तावेज होता है, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि वास्तव में भारत ने कितनी आर्थिक प्रगति की है, उसके सामने कितनी निर्बाधता है और कितने जोखिम। समीक्षा में जिन बिंदुओं पर जोर दिया गया है उनमें पहला यह है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक माहौल में असामान्य हलचल है जिससे उपजी आशंका से बाजार डगमगा रहे हैं, द्वितीय-वैश्विक पुनरुद्धार लड़खड़ा रहा है और तृतीय- चरम घटनाओं का जोखिम बढ़ रहा है। ऐसे में भारत जिन विशेषताओं के साथ आगे बढ़ रहा है, उसे आशावादी कहा जा सकता है। इन विशेषताओं में कीमतों में नरमी की स्थिति और देश में बाह्य चालू खाते के संतोषजनक स्तर को देखते हुए अगले दो वर्षों में 8 प्रतिशत या उससे अधिक विकास दर हासिल करने की संभावना प्रमुख है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2016-17 के दौरान आर्थिक विकास दर 7 से लेकर 7.75 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया है। यह भी माना जा रहा है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत का योगदान अब और अधिक मूल्यवान हो गया है, क्योंकि चीन फिलहाल अपने को फिर से संतुलित करने में जुटा है। ध्यान रहे कि जनवरी 2016 में चीनी अर्थव्यवस्था में आए स्लोडाउन के बाद चीनी अर्थव्यवस्था के पुर्नसंयोजन की जरूरत है, जबकि भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए रास्ता अपेक्षाकृत रपटीला है। देश का विदेशी कर्ज सुरक्षित सीमा के भीतर रहा, जो देश के कुल विदेशी ऋण का 82.2 प्रतिशत है, जैसा लंबी अवधि के ऋण खाते में दर्शाया गया है, जबकि मार्च 2015 के अंत में यह 82.0 प्रतिशत था। देश की मैक्रो अर्थव्यवस्था स्थायी है और सरकार की राजकोषीय मजबूती और कम मुद्रास्फीति पर स्थापित है। और भारत एक निवेश स्थल के रूप में अंतर्राष्ट्रीय रूप से अग्रणी है और नेशनल इंवेस्टर रेटिंग्स इंडेक्स प्रदर्शित करता है कि भारत बीबीबी इंवेस्टमेंट ग्रेड में प्रतिस्पद्र्धी देशों से बेहतर स्थिति में है और लगभग ए ग्रेड के देशों के समतुल्य है। अगर राजकोषीय स्थिति पर ध्यान दें तो यहां तीन विशेषताएं दिख रही हैं। प्रथम-अनवरत राजकोषीय समेकन, द्वितीय- बेहतर अप्रत्यक्ष कर संग्रहण क्षमता, और तृतीय-सरकार के सभी स्तरों पर खर्च की गुणवत्ता में सुधार। लेकिन इन तीनों को दो कारकों के सापेक्ष देखने पर स्थिति बदल जाएगी। पहली यह कि मोदी सरकार के बनने के समय से ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तेल की कीमतें लगातार गिरी हैं इससे एक तो करेंट एकाउंट डेफिसिट कम हुआ और दूसरी तरफ राजकोष पर अतिरिक्त दबाव नहीं पड़ा। लेकिन ये स्थितियां कब तक बनी रहेंगी। दूसरी यह सरकार ने बड़े पैमाने पर सरकारी खर्च, विशेषकर सामाजिक सुरक्षा और विकास से जुड़े, कम किए हैं, स्वाभाविक है कि राजकोष पर दबाव कम होगा। लेकिन क्या इसे सरकार की योग्यता का प्रतिमान माना जा सकता है? बाजारवादी हां कह सकते हैं लेकिन ह्यूमन और सोशल इकोनॉमिस्ट कदापि नहीं। लेकिन सफलता तो उसे ही कहा जा सकता है जो निविर्वाद हो और अपने लोगों का कल्याण कर रही हो। सामाजिक योजनाएं और सब्सिडी को केवल फिजूलखर्ची के रूप में नहीं देखा जा सकता बल्कि ये घरेलू क्षेत्र की बचतों को बढ़ाने में मदद करती हैं। यही वजह है कि जब दुनिया के सभी देशों में इकोनॉमिक स्लोडाउन आया तब भारतीय अर्थव्यवस्था इससे बची रही। कारण यह कि भारतीय उत्पादन की घरेलू खपत बनी रही जबकि चीन जैसे देशों की सकल घरेलू मांग में कमी आ गयी। लेकिन वर्तमान सरकार सम्भवत: इस अर्थशास्त्र को अनदेखा कर रही है। उसे गम्भीरता से देखना होगा कि कमजोर वैश्विक मांग के प्रभाव से बचने का यही तरीका सबसे बेहतर है।
गौर से देखें तो भारतीय अर्थव्यवस्था में तीन खतरे अथवा डाउन साइड रिस्क्स हैं। प्रथम-वैश्विक अर्थव्यवस्था में उथल-पुथल से निर्यात परिदृश्य बिगड़ सकता है। द्वितीय- उम्मीदों के विपरीत तेल कीमतों में वृद्धि होने पर खपत में कमी आ सकती है। तृतीय-उक्त दोनों कारकों के आपस में मिल जाने से सबसे ज्यादा खतरा उत्पन्न होने की आशंका है। भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण अल्पकालिक चुनौती ट्विन बैलेंस शीट की समस्या को लेकर है। यह समस्या है सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और कुछ कॉरपोरेट घरानों की बिगड़ती वित्तीय सेहत। कॉरपोरेट और बैंक बैलेंसशीट चिंता का विषय रहे हैं जिससे निजी निवेशों की संभावना पर प्रभाव पड़ा है। इस तरह से देखा जाए तो ट्विन बैलेस शीट निजी निवेश और पूर्ण रूप से आर्थिक बेहतरी के मार्ग में एक प्रमुख बाधा है। इसे दूर करने के लिए चार ‘आर’ (4 फ) की जरूरत पड़ेंगी अर्थात-रिक्गनिशन, रिकैपिटलाइजेशन, रिजोल्यूशन और रिफॉर्म। लेकिन भारत अभी इस मुकाम से काफी दूर खड़ा है।
भारतीय अर्थव्यवस्था की पूरी संभावनाओं को प्राप्त न करने पर चिंता व्यक्त की गयी। देश की दीर्घकालीन संभावना विकास दर अभी 8 से 10 प्रतिशत है और इस संभावना को प्राप्त करने के लिये कुछ मोर्चों पर तेजी से कार्य करने की जरूरत है। उद्योगोन्मुखी होना अनिवार्य रूप से प्रतिस्पद्र्धोन्मुखी होना है। भारत को चीन में एक ऐसे ही समायोजन के बाद एशिया में एक बड़ा करेंसी पुनर्समायोजन करने की योजना बनानी होगी। नीतिगत कदमों के परिणामस्वरूप जोखिम का एक और परिदृश्य उत्पन्न हो सकता है जिसके तहत बड़े उभरते बाजारों वाले देशों से बाहरी प्रवाह पर अंकुश लगाने के लिये पूंजी नियंत्रण को मजबूर होना पड़ सकता है जिसका आर्थिक विकास पर कुछ प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। किसी भी मामले में विदेशी मांग के कमजोर होने की आशंका है और विकास दर को कमजोर होने से बचाने के लिये मांग के घरेलू संसाधनों को ढूंढना होगा तथा उसे क्रियाशील बनाना होगा। लेकिन उसे कुछ मुद्दों पर संतुलन बनाना होगा, जैसे- डब्ल्यूटीओं के नियमों और कृषि सब्सिडी के मध्य, अनियमित व्यापार नीति और कृषक प्रोत्साहनों के मध्य, व्यापार वार्ताओं तथा भारत के सामने मौजूद ‘लेकिन गरीबी’ से जुड़ी दुविधाओं के बीच, बाह्य वातावरण के कारण उत्पन्न मौजूद दबावों और भारतीय नीतियों के बीच तथा व्यापार के मुद्दे और वैश्विक स्थितियों के बीच।
फिलहाल भारत के राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी के शब्दों में कहें तो भारतीय अर्थव्यवस्था 1951 से 1979 तक रही हिन्दू वृद्धि दर (औसत वृद्धि दर 3.5) से आगे निकलकर साढ़े सात प्रतिशत के आसपास है। यह भारत के लिए प्रसन्नता और संतुष्टि की बात है। लेकिन ऐसा लगता है कि इसमें कई पेंचोखम हैं जिनके चलते भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन को यह कहना पड़ गया कि अर्थव्यवस्था को लेकर ‘ज्यादा उछलने’ की जरूरत नहीं, अभी लंबा सफर तय करना है।
यही नहीं, उन्होंने एक विदेशी समाचार पत्र को दिए गये साक्षात्कार के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था की तुलना अंधों में काना राजा से की थी। उनका कहना था भारत को दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था का तमगा मिलने से उपजा ‘उन्माद’ उचित नहीं है क्योंकि तय मुकाम पर पहुंचने के लिए अभी लम्बा सफर तय करना है। हम हर भारतीय को मर्यादित आजीविका दे सकें, इसके लिए लगातार आर्थिक वृद्धि के इस प्रदर्शन को 20 साल तक बरकरार रखने की जरूरत है।’ उन्होंने यह भी कहा कि भारत की वैश्विक प्रतिष्ठा महत्वपूर्ण है, लेकिन इसे ऐसे देश के तौर पर देखा जा रहा है, जिसने अपनी क्षमता से कम प्रदर्शन किया है और उसे ढांचागत सुधार को ‘कार्यान्वित, कार्यान्वित और कार्यान्वित’ करना चाहिए। यह बात तो नीति आयोग के मुख्य कार्यपालक अधिकारी अमिताभ कांत ने भी कही है कि भारत को 2032 तक 10,000 अरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने और गरीबी पूरी तरह से समाप्त करने के लिए 10 फीसदी की दर से आर्थिक ग्रोथ की जरूरत होगी। इतनी तेज दर ही 2032 तक 17.5 करोड़ रोजगार सृजित कर सकती है। आज स्थिति यह है कि अमेरिका, यूरोप और जापान लगातार नोट छाप रहे हैं। वे ब्याज की दर शून्य स्तर पर लाने की कोशिश कर रहे हैं। चीन ने भी ब्याज दरों में भारी कटौती कर रखी है और अपनी मुद्रा (यूआन) का मूल्य भी घटा दिया है। चूंकि भारत यह सब नहीं कर सकता, इसलिए भारत का लगातार घटता हुआ निर्यात आने वाले समय में घरूल खपत पर उसकी निर्भरता को बढ़ाएगा। कच्चे तेल की कीमत घटने से महंगाई घटना चाहिए थी, पर रुपए की कीमत घट गई है, फलत: इसके कारण तेल के मूल्यों की कमी का भी भारत को फायदा नहीं मिल रहा है। रुपया पहले ही वैश्विक उथल-पुथल का शिकार हो रहा है और अब विदेशी निवेशक अपना पैसा वापस ले जा रहे हैं जिससे रुपए की कीमत पर दबाव और बढे़गा। अंत में यही कहना चाहूंगा कि चीन की आधुनिक अर्थव्यवस्था की बुनियाद डालने वाले डेंग जियांग पिंग ने आज से साढ़े तीन दशक पहले यह कहा था कि ‘बिल्ली काली है या सफेद यह मायने नहीं रखता, मायने यह रखता है कि चूहा पकड़ती है या नहीं’ तात्पर्य यह था कि अर्थव्यवस्था पूंजीवादी हो या समाजवादी यह मायने नहीं रखता, मायने यह रखता है कि देश समृद्ध हो रहा है या नहीं और अर्थव्यवस्था अपने लोगों की जेब भर पा रही है या नहीं। यह जुमला अभी भी प्रासंगिक है जब हम सब पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के वशीभूत हो चुके हैं और सिर्फ अर्थव्यवस्था की रफ्तार से जुड़े तर्क व संभावनाओं तक ही सीमित रह रहे हैं आम जन की जरूरतों और उनके अनुरूप अर्थव्यवस्था का वितरण सम्बंधी विषय कमोबेश गौण हो गया है। तो क्या अब सिर्फ ऐसी बिल्ली की जरूरत रह गयी है कि वह छलांग लम्बी लगाए, चूहा पकड़ पाए या नहीं, यह अब मायने नहीं रखता।=

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