क्या बिहार की राह पर चलेगा उत्तराखंड
दस्तक ब्यूरो, देहरादून
बिहार की नीतिश सरकार ने पिछले दिनों ऐतिहासिक कदम उठाते हुए राज्य में पूर्ण शराबबंदी लागू कर दी। यह उस बिहार में नीतिश ने किया है, जहां की राजनीति आज भी बाहुबल और धनबल के लिए कुख्यात मानी जाती है। एक ओर जहां हत्या के जुर्म में जेल की सजा काट रहे शहाबुद्दीन जैसे बाहुबलियों को लालू यादव की आरजेडी ने दो रोज पहले ही राष्ट्रीय कार्यकारिणी में जगह दी गई है, वहीं दूसरी ओर इन अंतरविरोधों के बावजूद आरजेडी के साथ सरकार चला रहे नीतिश कुमार ने बिहार में शराब बंदी कर बिहार को नये रास्ते में ले जाने की दिशा में कदम उठाया है। हालांकि इसमें वह कितना सफल हो सकेंगे, यह देखना होगा, लेकिन शराब बंदी का यह फैसला लेना बताया है कि नीतिश बिहार को नई दिशा देने के लिए कितने उत्सुक हैं। अब एक बार फिर से राज्य में हरीश रावत की सरकार लौटी है और जिस प्रकार से उन पर शराब माफिया को संरक्षण देने के आरोप लग रहे हैं, वहां पर अब सवाल उठ रहा है कि क्या कुछ ऐसा ही फैसला हरीश रावत ले सकेंगे। हालांकि यह तय है कि ऐसा कुछ हुआ तो राज्य में भी एक नए युग की शुरुआत हो सकती है।
दरअसल हम राज्य बनने से पहले की बात करें तो प्रदेश में शराब के ठेकों का पहाड़ में काफी विरोध हुआ। 1997 में शराब के ठेकों के विरोध में राजकीय महाविद्यालय के छात्र नेता निर्मल कुमार जोशी ने जिलाधिकारी कार्यालय परिसर में आत्मदाह तक कर दिया। वह कई माह तक दिल्ली के एम्स में उपचार कराते रहे, लेकिन बाद में वहीं उनकी मौत हो गई। इस दौर में राज्य में शराब आंदोलन और अधिक उग्र हुआ और यह फिर पृथक राज्य की मांग में बदल गया। उन दिनों जनता को उम्मीद थी कि अलग राज्य में शराब पर पाबंदी लग जाएगी, हालांकि नौ नंवबर 2000 को राज्य तो मिला, लेकिन शराब बंदी के बजाय शराब का प्रचलन अधिक बढ़ गया। इसके बाद तो कस्बों तक में शराब की दुकानें देखी जा सकती हैं। खैर प्रदेश सरकारों की ओर से समय-समय में शराब बेचने के लिए नीति बनायी गईं। खास बात यह रही कि शराब की नीति को लेकर यहां तभी से काफी हल्ला मचता है। हालात यह हैं कि शराब माफिया का यहां पूरा वर्चस्व रहा। सरकार की ओर से वर्ष 2001-02 से 2005-06 तक प्रदेश में शराब बेचने के लिए दो एफएलटू बनाए। तब प्रदेश सरकार की ओर से शराब बेचने की जिम्मेदार कुमायूं मंडल विकास निगम व गढ़वाल मंडल विकास निगम को सौंपी गई थी। यहीं से प्रदेश भर के शराब की दुकानों में शराब पहुंचती थी। इसके बाद वर्ष 2006 में सरकार की ओर से नीति में बड़ा बदलाव करते हुए शराब कंपनियों को अपने-अपने एफएलटू की जिम्मेदारी दी गई। इसके बाद वर्ष 2015 तक यही नीति चलती रही। इससे बाजार में सभी ब्रांडों की शराब आसानी से मिलने लगी थी। हालांकि हरीश रावत सरकार की ओर से वर्ष 2015 में एक मई से अचानक शराब नीति बदल दी। इसमें तय कि मंडी परिषद को सुपर एफएलटू का दर्जा देते शराब बेचने की जिम्मेदारी दी गई। इसका नुकसान यह हुआ कि बाजार में कुछ ब्रांड का कब्जा हो गया। अधिकतर ब्रांड गायब हो गई। इसके बाद शराब के शौकीनों को भी दिक्कतें होने लगी। खैर शराब की नीति बदलने का सबसे बड़ा झटका देहरादून के शराब कारोबारी रामेश्वर हवेलिया को लगा है। अब तक नीति में प्रदेश की शराब की दुकानों में दस फीसद स्थानीय कंपनियों की बियर बेचनी अनिवार्य की गई थी। नीति बदलते ही यह व्यवस्था खत्म कर दी गई है। इसके साथ ही बताते चलें कि रावत सरकार की ओर से हवेलिया को प्रदेश जनपद में बिना लॉटरी के एक-एक दुकान खोलने की अनुमति दी थी। इसके साथ ही कृषि उत्पाद आलू, मंडुवा, झंगोरा, के साथ ही फलों से बीयर बनाने पर प्रत्येक दुकानदार को दस फीसद बीयर बेचना अनिवार्य कर दिया था। इस व्यवस्था से हवेलिया को ही लाभ हो रहा था। मंडुवा झंगोरा के नाम पर जबरन घटिया माल दुकानों में दिया जा रहा था। इससे बीयर के शौकीनों को भी अच्छी बीयर नहीं मिल पा रही थी। गौर करने वाली बात यह है कि वर्ष 14-15 में प्रदेश में 28 लाख बीयर की पेटियां बिकी थी, जिनमें हवेलिया की कंपनी की मात्र 2145 पेटियां थीं। शराब नीति बदलते ही 15-16 में उनकी कंपनी की करीब छह लाख पेटियां बिकीं। अब शासन की ओर से दस फीसद बीयर अनिवार्य रूप से बेचने की शर्त भी खत्म कर दी है। इसके अलावा हवेलिया को प्रत्येक जिले में एक एक दुकान खोलने की अनुमति पर भी रोक लगा दी है। हरीश रावत सरकार में शराब कारोबारी हवेलिया का एक छत्र राज था। देहरादून के कुअांवाला व सहारनुपर के बिहारीगढ़ में उनकी बीयर की फैक्ट्रियां हैं। हवेलिया को निवर्तमान सीएम हरीश रावत के औद्योगिक सलाहकार रणजीत रावत का करीबी बताया जाता है। उधर, दूसरी ओर देखा जाए तो शराब की नीति बदलने के फैसले पर विपक्ष ने काफी हो हल्ला मचाया था। गैरसैंण में एक सत्र तो शराब नीति की भेंट चढ़ गया था। इस नीति को लेकर बताया जाता है कि निवर्तमान सीएम की ओर नौकरशाही को भी नहीं सुना। बताया जा रहा है कि एक फरवरी 2014 को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही हरीश रावत ने आबकारी नीति बदलने की कवायद शुरू कर दी। फाइल बनी। तत्कालीन प्रमुख सचिव सुखबीर सिंह संधू व तत्कालीन आबकारी आयुक्त विनय शंकर पांडेय ने लिखा कि यह संभव नहीं है, लेकिन नौकरशाही की तर्कसंगत मनाही के बावजूद नीति का शासनादेश जारी कर दिया।
यही कारण रहा कि विपक्ष ने इस मुद्दे पर लगातार सरकार का विरोध किया। इससे शराब के कारोबार में लगे सैकड़ों लोग हाशिए पर चले गए। हरीश रावत की इस नीति से शराब का कारोबार कुछ हाथों तक सीमित हो गया। पहले की नीति में प्रदेश में शराब की करीब 35 कंपनियों के सभी जिलों में शराब के गोदाम थे। नीति बदलने से गोदाम बंद हो गए और करीब ढाई हजार लोग बेरोजगार हो गए। अब एक बार फिर इन लोगों को रोजगार मिलने के आसार हैं।
अब नीति बदलने पर भाजपा खुश है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट कहते हैं कि वह इस मामले में राज्यपाल का धन्यवाद करना चाहते हैं। कहा कि हरीश रावत कहते थे कि भाजपा ने शराब के क्षेत्र में पीएचडी की है, मैं आज सबूत के तौर पर कह रहा हूं कि एफएल टू को लागू करने बाद राज्य को करीब 300 करोड़ के राजस्व का नुकसान हुआ और यह सारा पैसा दूसरे रास्ते से हरीश रावत एंड कंपनी के खाते में गया, जो कि पुरानी नीति होती तो राज्य सरकार के कोष में आता। हमने इसके लिए सड़क से सदन तक लड़ाई लड़ी। हम अब भी इस नीति को लागू केरने के लिए सीबीआई जांच की मांग पर अडिग हैं। कांग्रेस के निवर्तमान मुख्यमंत्री हरीश रावत के मीडिया सलाहकार सुरेंद्र कुमार ने कहा कि आबकारी नीति बदलकर राज्य की बागवानी और कृषि विकास पर चोट की गई है। उन्होंने आरोप लगाया कि भाजपा नेताओ व शराब सिंडिकेट को लाभ पहुंचाने के लिए पालिसी बदली गई है। =