गंगा में डुबकी से मिलेगा मोक्ष
अखिलेश सिंह ‘चंदेल’
भारतीय जनजीवन में देश की अन्य नदियों की अपेक्षा पापहारिणी मां गंगा का विशेष महत्व है। वैदिक वांगमय एवं धर्मग्रन्थों में गंगा की महिमा का यशोगान करते हुए उसे पापनाशिनी और मोक्षदायिनी कहा गया है। गंगा को ब्रह्मा, विष्णु, महेश की प्रतिमूर्ति एवं चारों वेदों का स्वरूप माना जाात है। मत्स्य, स्कन्द, ब्रह्म आदि पुराणों में गंगा के दैवी गुणों का मुक्त कंठ से वर्णन किया गया है। इस कलिकाल में गंगा अपनी पवित्रता और दिव्यता के लिए प्रसिद्ध हैं। इसी कारण कहा गया है कि- गंगे तव दर्शनात् मुक्ति: अर्थात गंगा का दर्शन मात्र ही मोक्षदायक है। गुरु शंकराचार्य का भी कथन है कि कलियुग के वे पाप जो यज्ञ, दान, तप तथा ज्ञान से नष्ट नहीं होते, वे गंगा की पवित्र जलधारा का दर्शन करने से विनष्ट हो जाते हैं। गंगा शिवस्वरूपिणी और हरिवल्लभा हैं। इनके दर्शक से अशिव और अमंगल का क्षय हो जाता है। तीर्थराज प्रयाग में तो गंगा मानव मात्र के लिए स्वर्गारोहण हेतु सोपान तुल्य हैं। कूर्म पुराण में तो गंगा की महिमा पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि गंगा-यमुना और अंत:सलीला सरस्वती के जल में स्नान करने वाले श्रद्धालु को स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है। उसका पुनर्जन्म नहीं होता। विष्णु पुराण में कहा गया है कि ‘सित और असित’ नदियों का जल देवताओं को भी दुर्लभ है, उनके संगम में स्नान करने वाला व्यक्ति ईश्वर को प्राप्त करता है।
गंगा की पौराणिक कथा केवल भारत तक ही सीमित नहीं है। उसकी प्रसिद्ध संसार के अनय देशों में भी फैली हुई है। वर्जिल और दान्ते जैसे प्रसिद्ध साहित्यकारों ने भी अपने साहित्य में गंगा का उल्लेख किया है। सिकन्दर महान इसके सम्मोहन में बंध गया और अमेरिका की खोज करने वाला कोलम्बस तो गंगा की तलाश में भटक ही गया। गंगा-यमुना और सरस्वती का संगम इस देश के भूगोल का अद्भुत संयोग है। वेद से लेकर पुराण्ध तक और संस्कृत कवियों से लेकर लोक साहित्य के रचयिताओं तक में संगम की महिमा का उद्घोष होता आया है। भारतीय मानचित्र में जो स्थिति पर्वतराज हिमालय की है, वही स्थिति हमारी सनातन धार्मिक परम्परा में तीर्थराज प्रयाग के संगम की है।
मां गंगा पापनाशिनी और मोक्षदायिनी हैं। गंगा दशहरा पर्व पर गंगा में डुबकी लागाने से सभी पाप धुल जाते हैं और मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होती है। वैसे तो गंगा स्नान का अपना अलग ही महत्व है, लोकिन इस दिन स्नान करने से मनुष्य सभी दु:खों से मुक्ति पा जाता है। ज्येष्ठ मास में शुक्ल पक्ष की दशमी यानी 14 जून 2016 को गंगा दशहरा मनाया जाएगा। इस अवसर पर गंगा मंदिरों सहित अन्य मंदिरों पर भी विशेष पूजा-अर्चना की जाएगी। इस दिन गंगा का स्वर्ग से धरती पर अवतरण हुआ था। गंगा दशहरा के दिन गंगा नदी में स्नान करने से दस पापों का हरण होकर अंत में मुक्ति मिलाती है। गंगा दशहरा के दिन दान पुण्य का विशेष महत्व है। इस दिन दान में सत्तू, मटका और हाथ का पंखा दान करने से दोगुना फल प्राप्त होता है।
ज्योतिषियों के अनुसार गंगाजी को स्वर्ग से पृथ्वी पर लााने के लिए अंशुमान के पुत्र दिलीप व दिलीप के पुत्र भागीरथ ने बड़ी तपस्या की। उसकी इस तपस्या से प्रसन्न होकर माता गंगा ने उन्हें दर्शन दिए और कहा कि मैं तुम्हें वर देने आयी हूं। राजा भागीरथ ने बड़ी नम्रता से कहा कि आप मृत्युलोक में चलिए। गंगा ने कहा कि जिस समय मैं पृथ्वी तल पर गिरूं, उस समय मेरे वेग को कोई रोकने वाला होना चाहिए। ऐसा न होने पर पृथ्वी को फोड़कर रसातल में चली जाऊंगी। भागीरथ ने अपनी तपस्या से रुद्रदेव को प्रसन्न किया तथा समस्त प्राणियों की आत्मा रुद्रदेव ने गंगाजी के वेग को अपनी जटाओं में धारण किया। इन दिनों शिप्रा तट का नजारा बदला-बदला सा नजर आ रहा है। कहीं नगाड़ों की गूंज के बीच शिप्रा मैया की आरती तो कहीं गंगा दशहरा उत्सव में भक्ति का उजास छाया हुआ है। उत्तरवाहिनी शिप्रा मोक्षदायिनी कहलााती हैं। शास्त्रों में उल्लेख है कि जीवनदायिनी गंगा में स्नान, पुण्यसलिला नर्मदा के दर्शन और मोक्षदायिनी शिप्रा के स्मरणमात्र से मोक्ष मिला जाता है। शिप्रा तट पर विशेष तिथियों के साथ हर दिन ही श्रद्घालाुओं का तांता लागा रहता है। गंगा दशहरा उत्सव का उजास शिप्रा नदी के तट पर भी फैला है। श्रद्धालु शिप्रा की आरती में शामिला होने के साथ-साथ गर्मी के चलते घाटों पर भी बैठकर शीतलता और सुकून पा रहे हैं।
गंगा दशहरा व्रत कथा
एक बार महाराज सगर ने व्यापक यज्ञ किया। उस यज्ञ की रक्षा का भार उनके पौत्र अंशुमान ने संभाला। इंद्र ने सगर के यज्ञीय अश्व का अपहरण कर लिया। यह यज्ञ के लिए विघ्न था। परिणामत: अंशुमान ने सगर की साठ हजार प्रजा लेकर अश्व को खोजना शुरू कर दिया। सारा भूमंडल खोज लिया पर अश्व नहीं मिला। फिर अश्व को पाताल लोक में खोजने के लिए पृथ्वी को खोदा गया। खुदाई पर उन्होंने देखा कि साक्षात् भगवान ‘महर्षि कपिला’ के रूप में तपस्या कर रहे हैं। उन्हीं के पास महाराज सगर का अश्व घास चर रहा है। प्रजा उन्हें देखकर ‘चोर-चोर’ चिल्लाने लागी। महर्षि कपिला की समाधि टूट गई। ज्यों ही महर्षि ने अपने आग्नेय नेत्र खोले, त्यों ही सारी प्रजा भस्म हो गई। इन मृत लोगों के उद्धार के लिए ही महाराज दिलीप के पुत्र भगीरथ ने कठोर तप किया था। भगीरथ के तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उनसे वर मांगने को कहा तो भगीरथ ने ‘गंगा’ की मांग की। इस पर ब्रह्मा ने कहा- ‘राजन! तुम गंगा का पृथ्वी पर अवतरण तो चाहते हो? परंतु क्या तुमने पृथ्वी से पूछा है कि वह गंगा के भार तथा वेग को संभाल पाएगी?
मेरा विचार है कि गंगा के वेग को संभालाने की शक्ति केवल भगवान शंकर में है, इसलिाए उचित यह होगा कि गंगा का भार एवं वेग संभालाने के लिए भगवान शिव का अनुग्रह प्राप्त कर लिाया जाए।’ महाराज भगीरथ ने वैसे ही किया। उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने गंगा की धारा को अपने कमंडल से छोड़ा। तब भगवान शिव ने गंगा की धारा को अपनी जटाओं में समेटकर जटाएं बांध लीं। इसका परिणाम यह हुआ कि गंगा को जटाओं से बााहर निकलने का पथ नहीं मिला सका। अब महाराज भगीरथ को और भी अधिक चिंता हुई। उन्होंने एक बार फिर भगवान शिव की आराधना में घोर तप शुरू किया। तब कहीं भगवान शिव ने गंगा की धारा को मुक्त करने का वरदान दिया। इस प्रकार शिवजी की जटाओं से छूटकर गंगाजी हिमालाय की घाटियों में कल-कल निनाद करके मैदान की ओर मुड़ी। इस प्रकार भगीरथ पृथ्वी पर गंगा का वरण करके बड़े भाग्यशाली हुए। उन्होंने जनमानस को अपने पुण्य से उपकृत कर दिया। युगों-युगों तक बहने वाली गंगा की धारा महाराज भगीरथ की कष्टमयी साधना की गाथा कहती है। गंगा प्राणीमात्र को जीवनदान ही नहीं देती, मुक्ति भी देती है। इसी कारण भारत तथा विदेशों तक में गंगा की महिमा गायी जाती है।
गंगा केवल हिन्दू धर्मावलम्बियों के लिए ही श्रद्धा की पात्र नहीं रही हैं अपितु उनकी गुणवत्ता से वशीभूत होकर दिल्ली के अनेक बादशाह भी उनके आदर की दृष्टि से देखते थे। इतिहास इस बात का गवाह है कि सुल्तान मुहम्मद तुगलक अपने निजी उपयोग के लिए प्रतिदिन गंगा जल का एक भरा कलश दौलताबाद मंगाता था। हालांकि उसके वहां पहुंचने में 40 दिन का समय लग जाता था। अबुल फजल ने ‘आईने अकबरी’ में लिखा है कि मुगल सम्राट अकबर गंगा जल को अमृत समझते थे और सदैव गंगा जल का ही उपयोग करते थे। बादशाह औरंगजेब नियमित रूप से गंगा जल का प्रयोग करता था। विजयनगर के विख्यात शासक कृष्णदेव राय को 1525 ई. में मरणासन्न अवस्था में गंगा जल का सेवन करने से स्वास्थ्य लाभ हुआ था। बौद्ध परम्परा भी गंगा को पवित्र मानती है। चिकित्सकों का मत है कि गंगा जल में ऐसे तत्वों का सम्मिश्रण है कि उसके सेवन से अनेक प्रकार की शारीरिक व्याधियों का शमन हो जाता है। गंगा जल को हर दृष्टि से पवित्र एवं स्वच्छ रखने के लिए ब्रह्माण्ड और स्कन्द पुराण में स्नानार्थियों के लिए कुछ ऐसे नियम बताये गये हैं जिनका परिचालन करने से गंगा विषमय रासायनिक प्रदूषण से सर्वथा मुक्त रह सकती हैं। गंगा स्नान के लिए निर्धारित शास्त्रोक्त विधान का उल्लंघन करने वाले मनुष्य घोर पाप के भागी होते हैं। गंगा स्वयं कहती हैं- ‘मैं पास रहते हुए भी बहुत दूर हूं, उनके लिए जो कर्म विक्षिप्त चित्त वाले हैं।’
(लेखक संत अतुलानंद आवासीय विद्यालय, होलापुर-वाराणसी में लाइब्रेरी विभागाध्यक्ष और स्वतंत्र पत्रकार हैं।)