मायावती पर दयाशंकर सिंह की अभद्र टिप्पणी के विरोध में उत्तर प्रदेश की सड़कों पर दलित समुदाय के नाराज लोगों के उतरने से BSP के पक्ष में उनके ध्रुवीकरण की संभावनाओं को बढ़ा दिया है। आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर इस घटना ने राज्य में BSP विरोधियों के राजनीतिक समीकरणों को भी उलट-पुलटकर रख दिया है।
गुजरात में दलितों की पिटाई वाले मामले और उत्तर प्रदेश में मायावती के अपमान की घटनाओं को मिलाकर देखें तो BJP के खिलाफ उमड़ी दलितों की नाराजगी के राष्ट्रीय स्तर पर गंभीर नतीजे निकल सकते हैं। खासकर पंजाब और उत्तर प्रदेश में जहां विधानसभा चुनाव आसन्न हैं। दलित मतदाताओं के लिहाज से पंजाब अहम हैं। यहां अनुसूचित जाति के मतदाताओं की संख्या 32 फीसदी है।
पंजाब में दलित समुदाय न केवल सामाजिक रूप से सशक्त है बल्कि जागरूक भी। दिलचस्प बात यह भी है कि पंजाब के दलित वहां के रसूखदार जाट-सिख के विरोध में उस तरह से लामबंद होते नहीं देखे गए हैं। यही वजह है कि कांग्रेस और अकाली-BJP का गठबंधन उन्हें रिझाने की उम्मीद कर रहा है। लेकिन अगर दलित समुदाय के बीच ये गुस्सा थमा नहीं तो भगवा खेमे के गठबंधन को गंभीर संकट का सामना कर पड़ सकता है।
अनुसूचित जाति के वोट कांग्रेस की तरफ भी खिसक सकते हैं। हालांकि अकाली-BJP का सत्तारूढ़ गठबंधन इस ‘आशंका’ से निपटने के लिए पंजाब के ‘डेरा प्रमुखों’ और ‘गुरुओं’ से मनमाफिक राजनीतिक संदेश लेने का रास्ता चुन सकते हैं। वैसे इस बार कांग्रेस के सामने पंजाब में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भी गंभीर चुनौती पेश कर रही है।
लेकिन उत्तर प्रदेश में जो कुछ हुआ है उससे सियासी तस्वीर तेजी से बदलती हुई दिख रही है। यूपी में 21 फीसदी दलित आबादी है और BSP की राजनीतिक ऊर्जा का स्रोत यही है। लोकसभा चुनावों में नतीजे BJP के पक्ष में गए थे लेकिन बदले हालात में दलित समुदाय के बीच पार्टी को छवि के संकट का सामना करना पड़ रहा है।
माना जा रहा है कि दलित तबके का BSP के पक्ष में तेजी से ध्रुवीकरण होगा और समाजवादी पार्टी के विरोधी वोट भी दलितों का रास्ता चुन सकते हैं जिनमें मुसलमान भी होंगे। पिछड़ी और अगड़ी जातियों के एक तबके के समर्थन के आधार पर आगे बढ़ने की कोशिश में लगी BJP और कांग्रेस दोनों के लिए यह धक्का हो सकता है।