दस्तक-विशेषराजनीति

चुनाव सुधार किस खेत की मूली है?

ज्ञानेन्द्र शर्मा
चुनाव सुधारों की आस में एक और साल गया। अब नया साल क्या यह वादा करेगा कि वह कुछ करेगा, नई उम्मीदें पैदा करेगा, चुनाव की गंगा को पवित्र करेगा? क्या सालों से सरकार और राजनीतिक दलों के दरवाजों पर पड़े चुनाव आयोग के सुझावों पर कोई नजर दौड़ाएगा? या फिर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोग ऐसे ही चुनाव लड़ते और जीतते-हारते रहेंगे? सबसे पहले बात करेंगे वर्तमान सरकार के रवैए की। पिछले लोकसभा चुनाव के समय हरदोई में 22 अप्रैल 2014 को एक रैली में बोलते हुए भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने वादा किया था कि उनकी सरकार का पहला काम होगा राजनीति का शुद्धीकरण। उन्होंने कहा था: ‘मैं सुनिश्चित करूंगा कि ऐसे लोग (आपराधिक पृष्ठभूमि वाले) जेल जाएं, फिर उनकी चाहे जो राजनीतिक पृष्ठभूमि हो। मैं सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध करूंगा कि ऐसे लोगों के मामलों की सुनवाई तेजी से हो। मैं भाजपा और राजग के उम्मीदवारों को भी नहीं छोड़ूंगा’। उन्होंने यह तक कहा था कि एक साल के अंदर यह काम होगा। ‘कोई अपराधी चुनाव लड़ने का दुस्साहस नहीं कर पाएगा। मैं राजनीति को शुद्ध करने आया हूं’। लेकिन उनके इस वादे के कुछ समय बाद जब 2014 के लोकसभा चुनाव के उम्मीदवारों की सूचियां जारी हुईं तो पता लगा कि भाजपा की सूची में आपराधिक पृष्ठभूमि के 32 प्रतिशत और कांग्रेस की सूची में 26 प्रतिशत प्रत्याशी हैं। सपा ने 25 प्रतिशत और बसपा ने 20 प्रतिशत ऐसे उम्मीदवारों को अपनी सूचियों में शामिल कर लिया। मोदी जी प्रधानमंत्री बन गए और उनकी सरकार का आधा कार्यकाल भी पूरा हो गया लेकिन चुनाव सुधारों की कोई चर्चा कहीं नहीं है। हरदोई में किया गया वादा धरा का धरा रह गया। इस बात की पूरी संभावना है कि उत्तर प्रदेश व कुछ अन्य राज्यों के 2017 में होने वाले विधानसभा चुनावों में अपराधी यथावत व ससम्मान चुनाव लड़ेंगे और उन्हें रोकने के लिए कुछ नहीं होगा। वास्तव में खुद राजनीतिक नेता ही चुनाव सुधारों के सुझावों पर अमल नहीं होने देते। तमाम राजनीतिक दल और राजनीतिक लोग जब अलग-अलग बैठकर अपनी नीति-रीति का बखान करते हैं तो अपराधीकरण को लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा बताते हुए अलग-अलग तान छोड़ते हैं लेकिन जब उनका समूह गान होता है तो सारे सुर एक दूसरे से मिल जाते हैं। इसीलिए जब सुप्रीम कोर्ट ने 2 मई 2002 को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए चुनाव सुधारों की दिशा में महत्वपूर्ण कदम आगे बढ़ाया तो हाय तौबा मच गई। सारे राजनीतिक दलों ने बाहें चढ़ा लीं और उसके खिलाफ लामबंद हो गए। चुनाव आयोग को सुप्रीम कोर्ट के आदेश से नई ताकत मिल गई और उसने 28 जून 2002 को निर्देश दिए कि राज्यसभा, लोकसभा, विधान परिषद और विधानसभा के चुनाव में खड़े होने वाले सारे उम्मीदवारों के लिए 5 बिन्दुओं पर सूचनाएं अपने नामांकन पत्रों के साथ देना अनिवार्य होगा। ये बिन्दु हैं: किसी आपराधिक मामले में सजा हुई हो तो उसका विवरण, किसी आपराधिक मामले में 2 सााल से अधिक की सजा हुई हो तो उसका विवरण, अपनी तथा अपनी पत्नी व आश्रितों की चल और अचल सम्पत्ति का विवरण, देनदारियों का विवरण और शैक्षिक योग्यता। चुनाव आयोग के निर्देशों के बाद जो कोहराम मचा तो एक सर्वदलीय बैठक बुला ली गई और 8 जुलाई 2002 को हुई इस बैठक में चुनाव आयोग के सुझावों को अस्वीकार कर दिया गया। लेकिन कोर्ट और आयोग के कड़े तेवरों के चलते राजनीतिक दलों की चली नहीं और उन्हें निर्देश अंतत: मान लेने पड़े।
लेकिन इन निर्देशों और उन पर अमल से भी राजनीतिक या चुनावी परिदृश्य में कोई परिवर्तन नहीं आया। उम्मीदवार अपनी आपराधिक पृष्ठभूमि बताने लग गए। वे सम्पत्ति का ब्योरा भी देने लगे और अपनी शैक्षिक योग्यता भी बताने लगे किन्तु उससे कोई फर्क नहीं पड़ा। उनकी पांच घोषणाओं को तराजू पर तौलने और फिर अपने वोट का निर्णय करने की क्षमता मतदाता में विकसित नहीं हो पाई। यह क्षमता राजनीतिक नेताओं ने विकसित ही नहीं होने दी। आपराधिक मामलों की जानकारी से उल्टे यह असर हुआ कि उम्मीदवारों का दबदबा बढ़ने लग गया। उन्हें अपने रौब दाब के प्रचार की जरूरत नहीं रह गई। उनकी घोषणाएं इसके लिए पर्याप्त थीं।
कुछ समय पहले तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त श्री कुरैशी ने कहा था कि वे लोग वोट डालने का अधिकार नहीं रखते जिन पर मुकदमे दर्ज हैं और जो जेलों में बंद हैं लेकिन ऐसे लोगों के चुनाव लड़ने पर कोई रोक नहीं है जिन पर मुकदमे चल रहे हैं और कि अभी सजा नहीं हुई है। उनका सुझाव था कि ऐसे लोगों के चुनाव लड़ने पर रोक होनी चाहिए जिन पर हत्या, बलात्कार, पैसा वसूली जैसे मुकदमे दर्ज हों और जिनमें कि उन्हें पांच साल की सजा हो सकती हो। बहुत से राजनीतिक दल इससे इत्तिफाक नहीं रखते। वे कहते हैं कि केवल उन्हीं लोगों के चुनाव लड़ने पर रोक होनी चाहिए जिन्हें बाकायदा सजा हो गई हो। इसका एक कारण यह बताया जाता है कि सरकारी मशीनरी सत्तारूढ़ दल के विरोधियों पर विद्वेशवष मुकदमे दर्ज करा देती है जिनके कि आधार पर ऐसे लोगों के भाग्य का फैसला नहीं होना चाहिए। चुनाव आयोग ने 30 जुलाई 2004 को चुनाव सुधारों सम्बंधी कई सुझाव दिए थे। कुछ सुझााव इस प्रकार थे: 1. ऐसे व्यक्ति को चुनाव मैदान से बाहर रखना जनहित में लगाई गई पाबंदी होगी, जिस पर गंभीर किस्म के अपराधों के मुकदमे दर्ज हों और अदालत उसकी संलिप्तता के बारे में आश्वस्त हो और कि उनके खिलाफ आरोप-पत्र दाखिल हो चुके हों; 2. सत्तारूढ़ दल द्वारा किसी व्यक्ति के खिलाफ प्रायोजित मुकदमों की संभावना को देखते हुए यह उचित होगा कि चुनाव के छह महीने पहले दर्ज मुकदमों को ही उक्त श्रेणी में शामिल किया जाय; 3. ऐसे व्यक्ति जिन्हें किसी जॉच आयोग ने दोषी करार दिया हो, चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित कर दिए जाने चाहिए। चुनाव आयोग ने सुझाव दिया कि इन प्रयोजनों को मूर्तरूप देने के लिए कानून में बदलाव किए जाने चाहिए। लेकिन 12 साल हो गए, न तो राजनीतिक दलों ने मिलकर इस मामले में कोई पहल की और न ही केन्द्रीय सरकार ने इस सुझावों पर अमल करने के लिए कोई कदम उठाए। राजनीतिक दल इस मामले में ‘पहले आप’ का नजरिया अपनाते हुए सामने वाले दलों से पहल करने की अपेक्षा करते हैं। वे कहते हैं कि दूसरे पहल करें तो हम भी अपराधियों को टिकट नहीं देंगे। लेकिन कोई पहल नहीं करता। नतीजा यह होता है कि सब अपनी मनमानी करते हैं और इन सुझावों की धज्जियां उड़ जाती हैं। दूसरी तरफ सरकार कोई पहल इसलिए नहीं कर पाती कि राजनीतिक दलों में आमराय नहीं बनती और चुनाव आयोग कुछ इसलिए नहीं कर पाता कि सरकार कुछ नहीं करती।
पूरी तरह से दूषित, प्रदूषित और विद्रूप हो चुकी चुनाव व्यवस्था के चलते देश में एक स्वस्थ राजनीतिक माहौल नहीं बन सकता। धनबल और बाहुबल ने चुनाव प्रक्रिया को पटरी से उतारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आम तौर पर यह महसूस किया जाता है कि:-
1. किसी तरह कोई राजनीतिक कवच भ्रष्टाचार, अपराध और अपयशकारक कामों में संलिप्त लोगों को न बचा पाए, इसकी पुख्ता व्यवस्था होनी चाहिए।
2. अपराधियों को चुनाव लड़ने से रोकने के लिए अविलम्ब कदम उठाए जाने चाहिए। प्रधानमंत्री को चुनाव पूर्व अपने वादे के मुताबिक कार्यवाही करनी चाहिए। यदि राजनीतिक दलों में आमराय नहीं बनती तो चुनाव आयोग को कानून बनाने व बदलने के अधिकार खुद-ब-खुद प्रदान कर दिए जाने चाहिए।
3. जब तक और कोई व्यवस्था नहीं होती, हत्या, बलात्कार, डकैती, पैसा वसूली, धार्मिक उन्माद फैलाने या चुनाव सम्बंधी अपराध करने वाले जो व्यक्ति जेलों में बंद हों, उनके चुनाव लड़ने पर रोक होनी चाहिए। इसके लिए चार्जशीट का दाखिल किया जाना पर्याप्त आधार मान लिया जाना चाहिए। ऐसे लोगों के चुनाव लड़ने पर तब तक के लिए तो प्रतिबंध होने ही चाहिए जब तक मुकदमे का अंतिम निस्तारण न हो जाय।
4. राजनीतिक दलों के लिए अनिवार्य होना चाहिए कि वे बताएं कि उन्होंने किससे कितना चंदा लिया है। चुनाव आयोग का यह सुझाव तुरंत मान लिया जाना चाहिए कि दो हजार से अधिक का चंदा नकद नहीं लिया जा सकता। राजनीतिक दलों के लिए यह भी अनिवार्य होना चाहिए कि वे बताएं कि जिन व्यक्तियों से उन्होंने एक लाख रुपए से अधिक का चंदा लिया है, उन पर उन्होंने क्या कोई उपकार किया है, सरकार के बनने की स्थिति में और न बनने की स्थिति में भी।
5. सभी राजनीतिक दलों को सूचना का अधिकार अधिनियम के दायरे में लाने के लिए आवश्यकतानुसार आरटीआई कानून में संशोधन होना चाहिए।
6. सभी राजनीतिक दलों के लिए यह अनिवार्य होना चाहिए कि वे दो हजार रुपए से अधिक के प्राप्त चंदे का पूरा विवरण अपनी वेबसाइट पर डालें। साथ ही उनके आयकर रिटर्न भी वैबसाइट पर डाले जाने चाहिए।
7. उन सभी नेताओं के आयकर रिटर्न भी सार्वजनिक होने चाहिए जिन्होंने 5 वर्ष पूर्व और इतनी ही अधिक तक बाद में कोई भी चुनाव लड़ा हो।
8. चुनाव में उम्मीदवारों द्वारा पैसा बांटकर वोट खरीदने को संगीन अपराध घोषित कर दिया जाना चाहिए।
9. आचार संहिता के उल्लंघन पर बाकायदा मुकदमा चलना चाहिए और इसकी निगरानी चुनाव आयोग द्वारा होनी चाहिए।
10. चुनाव आयोग चुनाव के दौरान जिन सरकारी अधिकारियों को उनकी ड्यूटी से हटाए, उन्हें चुनाव समाप्ति के कम से कम छह महीने तक उनके पुराने पद पर वापस नहीं भेजा जाना चाहिए।
लेकिन एक बड़ा सवाल यह जरूर है कि इसे करेगा कौन? आखिर इस सबको रोकेगा कौन? अपने देश में विशिष्ट व्यक्तियों की सूची रोज लम्बी होती जा रही है और इनमें आपराधिक तत्व भी बाकायदा विराजमान हैं। ताजे आंकड़े बताते हैं कि ब्रिटेन में 84 विशिष्ट व्यक्ति यानी वीआईपी हैं। फ्रांस में 109, जापान में 125, जर्मनी में 142, अमेरिका में 252, रूस में 312 और चीन में 435 वीआईपी हैं। लेकिन अपने भारत महान में इनकी संख्या है 5 लाख 79 हजार! इनमें कई ऐसे हैं जिन पर अदालतों में मुकदमे दर्ज हैं जिसकी घोषणा उन्होंने खुद की हुई है। वे क्या कोई चुनाव सुधार होने देंगे? ल्ल

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