दस्तक-विशेषसाहित्य

गजलें

के. पी. अनमोल

(1)
फ़रेबो-झूठ मक्कारी के आगे
चली है किसकी अय्यारी के आगे।
मुझे भी चाल चलने दे री कि़स्मत!
खड़ी क्यूँ है मेरी बारी के आगे।
किए लाखों हुनर मैंने निछावर
तुम्हारी इक समझदारी के आगे।
जो अक्सर मेरे आँसू पोंछता था
वही इक पेड़ है आरी के आगे।
कंवारी लाडली, बेटा निकम्मा
पिता ख़ामोश बीमारी के आगे।

(2)
तुम्हें जिस भरोसे का सर काटना था
हमें उसके दम पे सफ़र काटना था।
सफ़र ज़िन्दगी का था मुश्किल बहुत ही
था मुश्किल बहुत ही मगर काटना था।
कफ़स से, निशाने से क्या लेना देना
उन्हें बस परिंदे का पर काटना था।
निगाहों में जिसकी बला का था जादू
हमें उस बला का असर काटना था।
मनाते भी दिल को तो कैसे मनाते
बिना तेरे पूरा पहर काटना था।
सहन, नीड़, पक्षी सभी थे रुआँसे
उधर उनकी ज़िद थी शजर काटना था।
मकड़जाल दुनिया की इन बंदिशों का
समझ पाये कब, किस क़दर काटना था
भला क्यूँ न यादों को अनमोल करते
यहाँ वक़्त जब मुख़्तसर काटना था।

(3)
समंदर में समाने जा रही है
नदी ख़ुद को डुबाने जा रही है।
बिलखते छोड़कर दोनों किनारे
किसे अपना बनाने जा रही है।
बगल में डालकर थैला ये बच्ची
नहीं पढ़ने, कमाने जा रही है।
लहू में तर-ब-तर फिर एक सरहद
जहाँ से गिड़गिड़ाने जा रही है।
तुम्हारी याद दिल को हैक करके
मुझे फिर से सताने जा रही है।
मेरी उम्मीद बंजर हौसलों पर
नये सपने उगाने जा रही है।
परेशां आदमी से ज़ात मेरी
ख़ुदा को कुछ सुनाने जा रही है।
यहाँ अनमोल इतना शोर सुनकर
ख़मोशी बड़बड़ाने जा रही है। ल्ल

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