दस्तक-विशेषसाहित्य

शोध

कहानी

सोनम सिंह

जिस दिन सर चिता पर धू-धू जल रहे थे वह पाँच सितम्बर का दिन था। ऊपर आसमानों के न जाने किन खोखलों में वह धुंआ समाता जा रहा था। चिता से कुछ दूर बैठी वह, जब भी लकड़ियों के चिटकने की आवाज़ सुनती तो उसकी आँखों से बूंदे ढुलक जातीं। बूंदों में अतीत के चित्र झलकते जाते। अनायास उसे सर के साथ का पहला दिन याद हो आया जब शोध में रजिस्ट्रेशन लेने के बाद वह पहली बार सर से मिलने गई। केबिन में घुसते ही उन्होंने सवाल दागा-‘आओ बच्चा, कैसी हो? जिंदा हो?’ उसे अजीब लगा पर सर ठहाका लगाते रहे। फिर बड़ी देर तक वे शोध के टॉपिक पर बात करते रहे। इसके बाद तो वह लगभग रोज विभाग जाती, केबिन में कुछ देर बैठती और साहित्य के नए विचारों से अवगत होती।
वह एक सुंदर और मेधावी छात्रा थी, विभाग के कई गुरुजन उसे अपने अंडर में रिसर्चभी कराना चाहते थे पर उसने सबको ना करते हुए सर को ही गाइड चुना था। पर उसे पता न था कि यह विभाग के गुरुओं के मन में एक अजीब ईष्र्या का कारण बन जाएगा।
मुँह में पान की जुगाली करते कुशवाहा सर ने पहला ताना मारा था- ‘का हो गुरु, तोहार स्कॉलरवा त बहुते स्मार्ट हौ, गुलरी के फूल जईसन, पर हमहन के किस्मत में कहाँ वइसन स्कॉलर भाई।‘ इस पर मिश्रा सर ने चुटकी ली- ‘अरे भाई! बात समझिए, इनके भीतर ज्ञान के अलावे कुछ अन्य तत्त्व भी मौजूद हैं। इनकर आ हमहन क तुलनै का बा।‘
बात में छुपी कुटिलता को समझते हुए भी सर मुस्कुरा भर दिए।
सबसे बेपरवाह सर धीरे-धीरे साहित्य जगत पर भी अपनी छाप छोड़ रहे थे। प्राय: हर विधा में उनकी लेखनी सराही जाने लगी थी । इस कारण इधर विभाग में सो कॉल्ड विद्वानों की बेचैनी और भी बढ़ती जा रही थी। वे धीरे-धीरे नीचता पर उतरते गए और बाद में उसके तथा सर के बीच सम्बन्धों पर ऊंगली उठाने लगे। विभाग का यह कारगर फार्मूला भी था कि जब किसी पर कोई आरोप न लग सके तो उसके चरित्र को लांछित करो, व्यक्ति खुद डगमगा जाएगा। वैसे सर इन सब बातों की कहाँ परवाह करने वाले थे। वह जब कभी परेशान होकर इन अफवाहों के विषय में वह सर से कहती, तो वह कहते-‘लोगों का तो काम है कहना, वे कुछ कहेंगे नहीं तो जियेंगे कैसे, जीने दो उन्हें।‘
धीरे-धीरे अफवाहें विभाग के बाहर भी फैलने लगीं। लगभग हर व्यक्ति उसे एक अजीब नजरों से घूरता हुआ मिलता। सर पर भी इन अफवाहों का असर शायद पड़ने लगा था। वह चीजों को भुलने लगे थे, कभी क्लास देर से पहुँचते, तो कभी मोबाइल घर छोड़ आते, कभी कोई किताब। कभी पूछो तो कहते उम्र का असर है।
उसे याद हो आया वह दिन जब विभाग के कुछ आचार्यगण मंडली बनाकर आपस में हंसोड़ कर रहे थे और वह चुपचाप कोने में बैठी उनकी बातें सुन रही थी। एक आचार्य कह रहे थे- ‘आजकल गुरु भक्ति तो खत्म ही समझिए।
एक चेले से गोदान लाने को कहा, आज तक नहीं लाया। अब गुरु ही जा के किताब भी खरीदें फिर पढ़ायें भी तो यह कैसे हो सकता है। कल मिलता है तो कहता हूँ गाइड बदल लो अपना। किताब और ज्ञान दोनों हम नहीं दे सकते भाई।’ इस पर दूसरे आचार्य बोले- ‘अरे! तो आप गलत न करते हैं, हम तो तीस-चालीस किताब का एगोलिस्ट ही बना कर रख लिए हैं, जइसहीं कौनो विद्यार्थी सवाल पूछता है लिस्टवा मुंह पर चिपका देते हैं, पहिले इतना पढ़ो फिर आगे बात करना। इहे उपाय आप भी करिये फिर देखिएगा कईसे शोध जोर पकड़ता है।’ सब हँसने लगे कि तभी एक गुरु जी गंभीर वाणी में बोले- ‘मेरी समस्या का समाधान है क्या किसी के पास? मेरी एक शोध छात्रा है, पढ़ने में तो ठीक है, पर सेवा भाव नहीं है। हम यह कैसे पैदा करें उसके भीतर, ज़रा सलाह दें आप सब।’ इतना सुनते ही बगल में बैठीं आचार्या को जैसे आग लग गई- ‘इसीलिए तो हम छात्राओं को नहीं लेते हैं रिसर्च में। भईया कौन दुनिया भर के चकल्लस में फंसे।‘ तभी एक आचार्य ने इशारे से एक विद्यार्थी को बुलाया और सबसे उसका परिचय कराते हुए कहा- ‘बहुत प्रतिभवान विद्यार्थी है, अच्छी कविताएँ लिखता है, बहुत आगे जाएगा। जाओ बेटा, पाँच जगह चाय लेते आओ तो, और सुनो, गर्मा-गरम हो तभी लाना। ‘थोड़ी ही देर में वह विद्यार्थी ट्रे में चाय लिए हुए आया। प्रसन्नवदन, चाय की चुस्की लेते आचार्य ने सबको सुनाते कहा- ‘देखा! ऐसे न शिष्य होने चाहिए, आज्ञाकारी।‘
उनकी बातें सुनकर उसका मन वितृष्णा से भर गया था। उसने जाकर सर से सारी बातें बतायीं।
सोच में डूबते हुए सर ने कहा-‘व्यवस्था को बदलने के लिए व्यवस्था में घुसना जरुरी है।‘
‘जी सर, लेकिन व्यवस्था बदलती कहाँ है, व्यवस्था वही रह जाती है लोग बदल जाते हैं।‘- उसने शंका की ।
‘पूरी की पूरी व्यवस्था बदले यह जरूरी नहीं है, पर व्यक्तिगत स्तर पर इसके लिए प्रयास तो किया जा सकता है। एक-एक व्यक्ति से मिलकर ही तो पूरी व्यवस्था बनती है।‘-सर अभी भी उसी सोच में थे।
इस बार उसने तर्क किया- ‘व्यवस्था, परम्परा बन चुकी है सर… लगभग जड़.. ऐसा नहीं है की बस शिक्षकों की ही गलती है, विद्यार्थी भी इसके लिए जिम्मेदार हैं, पर अधिकांश विद्यार्थियों की मजबूरी यह है कि अगर व्यवस्था में नहीं ढले तो यहाँ से फ़ेंक दिए जाएंगे।‘
उसका यह तर्क सुन सर पहले तो उदास हो गए, पर दुबारा संयत होते हुए बोले- ‘तुम ठीक कह रही हो, पर हाथ पर हाथ रख कर बैठे रहने, व्यवस्था को कोसते रहने से तो कोई बदलाव होने वाला नहीं है। अँधेरे का विरोध करने के लिए एक चिंगारी भी बहुत है। अँधेरे और उजाले का युद्ध चलता रहता है, जरूरत होती है यह तय करने की कि हम अँधेरे के खिलाफ हैं कि उजाले के पक्ष में। ‘इतना कह सर कुछ काम से बाहर निकले। उन्हें देख एक आचार्य ने आँख मारते हुए कहा-‘का भाई! आज फोनवे पर ड्रेस डिसाइड हुआ था का?’ सर ने गुस्से में कहा-‘क्या मतलब?’ आचार्य ने फिर कुरेदा- ‘अरे गुरु मतलब इ की आज बड़ा मैचिंग-मैचिंग है।’ सर ने गुस्से में कहा-‘दिमाग खराब है क्या आपका?’ सर उसी गुस्से में केबिन में वापस आये और उससे सीधे कहा- ‘अब विभाग कम आया करो तुम ।‘वह समझ गयी थी इसके पीछे की वजह।वह बाहर निकल गई। दूसरे दिन जब सर विभाग पहुंचे, तो दो गुरुजन उन्हें सुनाते हुए ऊंची आवाज में बोल रहे थे- ‘का बात ह हो, आज कल इनकी रिसर्च स्कॉलरवा विभाग में दिख नहीं रही है। ‘तो दूसरे ने कहा-‘अरे गुरु ई कुल तू ना समझबा। अब विभाग आवे के जरूरते का ह, बहरवे सेटिंग होई जात होई।‘
यह सुनसर बस उदास नजरों से उन दोनों को देखते भर रह गए थे।
उसे याद आया चार सितम्बर का दिन जब वह आखिरी बार सर से मिली थी। उसने कहा- ‘सर मैं एक कहानी लिख रही हूँ, जिसमें एक लड़की अपनी परिस्थितियों से तंग आकर आत्महत्या कर लेती है। पर मैं यह समझना चाहती हूँ कि मन में आत्महत्या का तर्क कैसे बनता है?
उसकी बात सुन बड़ी देर तक सर अनमने खिड़की की ओर देखते रहे । फिर सहज हो बोले- ‘एक तरफ से देखो तो आत्महत्या कायरता है, आत्महत्या कई बार हत्या भी होती है, पर दूसरी तरफ से देखो तो वह बदलाव की सम्भावना भी है। आत्महत्या कभी-कभी धमाका भी बन सकती है।
सर का जवाब सुन वह सन्न रह गई, फिर बात बदलते हुए बोली- ‘सर कल पाँच सितम्बर है, शिक्षक दिवस, आपके लिए क्या गिफ्ट लूँ?’
कुछ देर सोचने के बाद सर ने उसे एक अजीब जवाब दिया- ‘देखो, ये सब दिखावा है। गुरु उरु एक सीमा के बाद कुछ नहीं होता। असली गुरु होता है अपना विवेक, वही सच्चा मार्गदर्शक है। गुरु हमेशा साथ नहीं रहता, एक समय समाज भी तुम्हारे विरुद्ध खड़ा हो जाता है, उस समय तुम्हारी खुद की समझ, विवेक ही तुम्हारा साथ देता है। किसी के आगे कभी मत झुकना, अपना गुरु स्वयं बनो, अपना शोध स्वयं करो। जब भी तुम किसी और की सुनोगी कमजोर पड़ोगी। अपना रास्ता खुद चुनो। अपने भीतर के गुरु से साक्षात्कार करो। मेरे जैसे गुरु कब साथ छोड़ कर चल दें कोई भरोसा नहीं।‘
यह कह सर उठे, उसे ‘खुश रहो’ कहा और और बिना कोई बात सुने कमरे से बाहर निकल गए। दरवाजा इतनी ज़ोर से बंद किया जैसे लगा की यह दरवाजा अब कभी नहीं खुलेगा। उस रात बड़ी देर तक उसे नींद नहीं आई। सर की ही बातें घूमती रहीं। देर सुबह जब वह उठी तो अखबार के एक कोने में छपी खबर पर उसकी आँखें टिकी रह गईं- ‘प्रसिद्ध लेखक और हिंदी के आचार्य डॉ. विक्रांत कश्यप की गंगा में डूबकर मौत।‘ खबर पढ़ उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया, उसने मोबाइल उठाया जैसे की कोई उम्मीद किसी कोने में बची रह गयी हो.. ऑन करते ही मैसेज चमका- ‘अपना शोध जारी रखना…’
(लेखिका बीएचयू के हिन्दी विभाग की शोध छात्रा हैं।)

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