भारत के लिए नुकसानदेह रहेगी ट्रंप आव्रजन नीति
सामान्य तौर पर कई विश्लेषक अमेरिका के 45वें राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी में तुलनात्मक रूप से कई समानताएं देखते हैं, इसलिए वे प्राय: इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि ट्रंप भारत के लिए काफी मुफीद रहेंगे। ऐसा हो भी सकता है लेकिन जब निगाह ट्रंप की संरक्षणवादी नीतियों और आप्रवासन के प्रति उनके रुझानों की ओर जाती है तो फिर संशय पैदा होने लगता है। ऐसे में सीधे सपाट यह मान लेना कि ट्रंप भारत के लिए हितकारी सिद्ध होंगे, अतार्किक सा लगता है। फिर सवाल यह उठता है कि उन्हें किस नजरिए से देखा जाए?
अमेरिकी मध्यमवर्गीय श्वेत लोगों को लगता है कि उन्हें उनके चारों ओर हो रहे वैश्वीकरण से फायदा नहीं हुआ है और वे अवैध विस्थापन और उच्च बेरोजगारी को लेकर चिंतित हैं। स्वाभाविक रूप से उनकी यह चिंता और ट्रंप की नीति आप्रवासन को रोकेगी और संरक्षणवादी नीतियों को प्रोत्साहित करेगी। इससे वैश्विक स्तर पर एक भिन्न प्रकार का अलगावादी व्यवस्था तो निर्मित होगी ही साथ ही आर्थिक रूप से उभरती हुयी अर्थव्यवस्थाओं, विशेषकर भारत के लिए, यह अधिक नुकसानदेह साबित हो सकती है। उल्लेखनीय है कि ट्रंप डिस्सेंट मेमो के जरिए सात मुस्लिम देशों के खिलाफ ट्रैवल प्रतिबंध का अपना पहला प्रयास कर चुके हैं। भले ही अदालती हस्तक्षेप के कारण वे सफल न रहे हों लेकिन आगे भी वे सफल नहीं हो पाएंगे, ऐसा नहीं कहा जा सकता। रही बात भारत की तो ट्रंप ने राष्ट्रपति बनने के बाद “पहले अमेरिका” का नारा दिया और अमेरिकी उत्पाद खरीदने तथा अमेरिकियों को ही नौकरी देने का आह्वान किया है। इस आह्वान ने सूचना तकनीकी से जुड़ी भारतीय कंपनियों में बेचैनी पैदा करने वाली हलचल उत्पन्न कर दी है। कारण यह है कि इन कंपनियों का पंद्रह अरब डॉलर का कारोबार दांव पर लगा है और यदि ट्रंप के कार्यकाल में अमेरिका द्वारा संरक्षणात्मक आर्थिक एवं व्यापारिक नीतियां अपनायीं गयीं तो इन कम्पनियों के कारोबार पर काफी प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। वैसे भी पिछले कुछ समय से इस क्षेत्र में विकास की गति धीमी होती जा रही है। उल्लेखनीय है कि वित्त वर्ष 2016-17 की दूसरी तिमाही (जुलाई-सितंबर) में टीसीएस की आय में अमेरिकी कारोबार का योगदान करीब 56 प्रतिशत, इंफ़ोसिस की आय में 62 प्रतिशत, विप्रो की आय में 55 प्रतिशत, एचसीएल टेक की आय में 62 प्रतिशत, टेक महिंद्रा की आय में 48 प्रतिशत और एम्फैसिस की आय में अमेरिकी कारोबार का योगदान 71 प्रतिशत रहा। यानि सूचना तकनीकी के क्षेत्र में भारत से होने वाले निर्यात का औसतन 60 प्रतिशत अकेले अमेरिका के हिस्से में आता है इसलिए ट्रंप प्रशासन की संरक्षणात्मक नीतियां भारत के लिए बेहद हानिप्रद हो सकती हैं।
पिछले दिनों ‘द हाई स्किल्ड इंटीग्रिटी एण्ड फेयरनेस एक्ट ऑफ 2017 (उच्च कुशल निष्ठा एवं निष्पक्षता अधिनियम-2017) नाम से एक विधेयक पेश किया गया। यदि यह विधेयक पास हो जाता है तो उन कंपनियों को एच-1बी वीज़ा देने में तरजीह मिलेगी जो एच-1बी वीज़ाधारक कर्मचारियों को दोगुना वेतन देने के लिए तैयार होंगी। ऐसी कंपनियों को न्यूनतम वेतन की श्रेणी भी खत्म करनी होगी। इसके साथ ही रिपब्लिकन सीनेटर टॉम कॉटन और डेमोक्रेटिक पार्टी के सीनेटर डेविड पर्डू ने ’रेज एक्ट’ पेश किया है, जिसमें हर वर्ष जारी किए जाने वाले ग्रीन कार्डों या कानूनी स्थायी निवास की मौजूदा करीब 10 लाख की संख्या को कम करके पांच लाख करने का प्रस्ताव रखा गया है। उल्लेखनीय है कि मौजूदा समय में किसी भारतीय को ग्रीन कार्ड हासिल करने के लिए 10 से 35 वर्ष तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है और यदि प्रस्तावित विधेयक कानून बन जाता है तो यह अवधि बढ़ सकती है। कॉटन ने कहा, ’अब समय आ गया है कि हमारी आव्रजन प्रणाली अमेरिकी कर्मियों के लिए काम करना शुरू करे।’ यह प्रावधान भारतीयों पर किस प्रकार प्रभाव डालेगा इस सम्बंध में अभी समग्र कैलकुलस सम्भव नहीं है लेकिन यदि उच्च कुशल निष्ठा एवं निष्पक्षता अधिनियम-2017 के माध्यम से अथवा एक्जीक्यूटिव ऑर्डर के जरिए ट्रंप प्रशासन एच-1बी वीज़ा नियमों में बदलाव करता है तो अवश्य ही यह भारत के लिए नुकसानदेह होगा। ध्यान रहे कि भारतीय कंपनियां अमेरिकी नागरिकों से ज्यादा एच-1बी वीज़ा के जरिये भारतीयों को नौकरी देती हैं। अब कंपनियों को अमेरिकियों को नौकरी के अवसर प्रदान करने होंगे जिससे उनके मार्जिन और आय पर चोट पहुंचना तय माना जा रहा है। भारतीय आईटी उद्योग पहले से ही मंदी और तकनीकी क्षेत्र में आए ऑटोमेशन और कृत्रिम बौद्धिकता जैसे नए परिवर्तनों से जूझ रहा है। ऐसे में एच-1बी वीज़ा सम्बंधी मुद्दा और घातक साबित हो सकता है। उल्लेखनीय है कि एच-1 बी वीज़ाधारकों का अभी सालाना न्यूनतम वेतन 60 हज़ार डॉलर है जिसे नए बिल में बढ़ाकर 1 लाख 30 हज़ार डॉलर करने का प्रस्ताव रखा गया है। हालांकि अमेरिका में पिछले 15 साल में आईटी में वैसी प्रतिभाएं नहीं आई हैं, जिनकी सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री में ज़रूरत होती है। यही वजह है कि अमेरिका के कुल सॉफ्टवेयर कारोबार का करीब 65 प्रतिशत भारत पर निर्भर है। ऐसी स्थिति में भारतीय कुशल प्रोफेशनल्स अमेरिका की जरूरत हैं लेकिन फिर भी अगर बिल इसी रूप में पास हो गया तो उभरते बाज़ारों की सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री की बैलेंस शीट पर असर पड़ेगा।
दरअसल अमेरिका में रोज़गार के इच्छुक लोगों के बीच एच-1बी वीज़ा प्राप्त करना होता है। एच-1बी वीज़ा वस्तुत: ‘इमीग्रेशन एण्ड नेशनलिटी ऐक्ट’ की धारा 101(ए) और 15(एच) के अंतर्गत संयुक्त राज्य अमेरिका में रोज़गार के इच्छुक गैर-अप्रवासी (नॉन-इमिग्रेंट) नागरिकों को दिया जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो एच-1बी वीज़ा ऐसे विदेशी पेशेवरों के लिए जारी किया जाता है जो ऐसे ’खास’ कार्य में कुशल होते हैं। इसके लिए सामान्यतया उच्च शिक्षा की जरूरत होती है। कंपनी को नौकरी करने वाले की तरफ से एच-1 बी वीज़ा के लिए इमिग्रेशन विभाग में आवेदन करना होता है। अमेरिकी कंपनियां इस वीज़ा का प्रयोग उच्च स्तर पर कुशल पेशेवरों को नियुक्त करने के लिए करती हैं। हालांकि अधिकतर वीज़ा आउटसोर्सिंग फर्म को जारी किए जाते हैं। परन्तु आउटसोर्सिंग कंपनियों पर आरोप लगता रहा है कि वे इस वीज़ा का इस्तेमाल निचले स्तर की नौकरियों को भरने में करती हैं।
एक महत्वपूर्ण तथ्य जिसकी तरफ देश के लोगों का ध्यान कम गया है, यह है कि वर्क-वीज़ा प्रोग्राम को लेकर ट्रंप के इरादे अब जाहिर हुए हैं जबकि भारत ने तो पहले ही इस मुद्दे पर विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) में अमेरिका के खिलाफ शिकायत दर्ज करा रखी है। भारत ने पिछले वर्ष मार्च में एच-1 बी वीज़ा से जुड़े नियमों को लेकर डब्लूटीओ में एक आपत्ति दाखिल कराई थी। इस आपत्ति को ‘विचार विमर्श का आग्रह’ कहा जाता है और व्यापारिक विवाद के निपटारे के लिए यह पहला कदम है। उल्लेखनीय है कि भारत ने अमेरिका के साथ विचार-विमर्श का आग्रह किया था ताकि वह एल-1 और एच-1 बी वीजा की संख्या से जुड़ी अपनी चिंताओं को उठा सके। इनमें एल-1 एक नॉन इमिग्रेंट वीजा है जिसके तहत कंपनियां विदेशी ट्रेंड कर्मचारियों को अमेरिका में मौजूद अपनी सहायक कंपनियों या फिर मूल कंपनी में रख सकती है। जबकि, एच-1 बी भी एक नॉन-इमिग्रेंट वीजा है जिसमें अमेरिकी कंपनियों को विशेषज्ञता वाले पेशों में विदेशी कर्मचारियों को अस्थायी रूप से अपने यहां नौकरी पर रखने की इजाजत होती है। ध्यान रहे कि भारत ने एल-1 और एच-1 बी वीज़ा के लिए आवेदन करने वाले कुछ लोगों पर कुछ विशेष परिस्थितियों में ज्यादा वीज़ा फीस थोपने पर आपत्ति जताई है।
भारत का कहना है कि अमेरिका का ये कदम सेवा व्यापार से जुड़े जनरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड इन सर्विसेज (जीएटीएस) समझौते के कुछ अनुच्छेदों का उल्लंघन करते हैं। अंतरराष्ट्रीय सेवा व्यापार इसी समझौते के नियमों के मुताबिक होता है। भारत का यह भी कहना है कि एल-1 और एच-1 बी श्रेणियों के वीजा होल्डरों को लेकर अमेरिका के कदम व्यापार के लिए सबसे पसंदीदा देश के दर्जे (एमएफएन), पारदर्शिता के नियमों और घरेलू कानून से जुड़े कुछ नियमों का उल्लंघन करते हैं। उल्लेखनीय है कि जीएटीएस समझौते में शामिल उपबंध कहता है कि सरकार दूसरे देशों से सेवाएं और सेवा आपूर्तियों के लिए समझौता करेगी। उन्हें ऐसी सेवाएं देने वाली राष्ट्रीय कंपनियों के बराबर ही समझा जाए और वरीयता दी जाए। जीएटीएस में लोगों की आवाजाही से जुड़े उपबंध के अनुसार जीएटीएस किसी देश को अपने यहां आने वाले लोगों के प्रवेश या उनके अस्थायी निवास से जुड़े नियम बनाने से नहीं रोकता, ’बशर्ते वे नियम किसी विशेष वचनबद्धता के तहत किसी सदस्य को मिलने वाले लाभ को खत्म न करे, नुकसान न पहुंचाए’। जबकि मोस्ट फेवर्ड नेशन (एमएफएन) से जुड़ा उपबंध कहता है कि जिस देश से समझौता किया गया है, उसके साथ ‘तुरंत और बिना शर्त’ वैसा ही व्यवहार होना चाहिए जैसा उस तरह की सेवा और सेवा आपूर्तियां उपलब्ध कराने वाले अन्य साझीदार देशों के साथ होता है। जिन क्षेत्रों में किसी देश ने बाजार से जुड़ी ऐसी वचनबद्धताएं उठा रखी हों, वह ऐसे कदम नहीं उठा सकता जिनसे उसके यहां आने वाले सेवा आपूर्तिकर्ताओं की संख्या या सेवा की मात्रा पर पाबंदी लगती हो। हालांकि ये पाबंदियां निश्चित कोटा तय करने, आर्थिक जरूरतों या सर्विस अभियानों की कुछ संख्या से जुड़ी हो सकती हैं।
अब देखना यह है कि ट्रंप प्रशासन किस तरह के कदम उठाता है। लेकिन यदि अमेरिका अंतरराष्ट्रीय व्यापार प्रतिबद्धताओं पर अमल करते रहने का फैसला करता है तो ट्रंप के ’अमेरिकी सामान खरीदो, अमेरिकियों को नौकरी दो’ को लागू करना भी इतना आसान नहीं होगा। यहां दो परिस्थितियां हो सकती हैं। प्रथम: अमेरिकी प्रशासन अपनी आपूर्ति घरेलू स्रोतों से ही कर ले और उसके साथ-साथ निजी कंपनियों को भी देश के भीतर मौजूद स्रोतों से ही अपनी जरूरत पूरी करने को कहे। इन दोनों की संभावित वास्तविकताओं में सब्सिडी देने की कोई बात शामिल नहीं है (इससे डब्ल्यूटीओ के अन्य नियमों का उल्लंघन हो सकता है)। पहली परिस्थिति में अमेरिका को कुछ सुविधा होगी- सरकार गैर-व्यावसायिक इस्तेमाल या फिर अपने खुद के इस्तेमाल के लिए घरेलू स्रोतों के आपूर्ति लेने का आदेश दे सकती है। स्थानीय स्तर पर घरेलू संसाधनों का इस्तेमाल कर अमेरिका किसी नियम का उल्लंघन नहीं करेगा। लेकिन अगर अमेरिकी सरकार निजी कंपनियों को भी घरेलू संसाधनों से ही काम चलाने को कहेगी, तो फिर इससे डब्ल्यूटीओ के नियमों का उल्लंघन होगा। ’अगर दूसरी परिस्थिति में अमेरिकी सरकार निजी कंपनियों को घरेलू संसाधनों से अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए रियायत या मदद देगी ( लोकल कंटेट सब्सिडी) तो इससे डब्लूटीओ के सब्सिडी समझौते का उल्लंघन होगा। बहरहाल अब देखना है कि ट्रंप किस दिशा में कदम उठाते हैं। वे कदम जो भी उठाएं भारत को कम से कम इस मसले पर थोड़ा सतर्क रहने की जरूरत होगी।