नवरात्रि में प्रकृति पूजा
नये संवत्सर का प्रारंभ आदिशक्ति दुर्गा की आराधना से होता है। बसंत नवरात्रि चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा से नवमी तक होती है ओर नवमी तिथि को राम जन्म भी होता है। महाप्राण निराला की एक प्रसिद्ध कविता है ’राम की शक्तिपूजा‘ । इसके अनुसार महाबली रावण पर विजय के लिये श्रीराम ने भी शक्ति पूजा की थी। रामकथा का वर्णन करने वाले ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख है । पुराणों में दुर्गा के रूप धारण की कथा भी यह संकेत करती है कि जब अन्याय तथा अत्याचार की प्रबलता सृष्टि में हो जाती है तब उसके प्रतिकार तथा उस पर विजय के लिये सात्विक शक्तियाँ नारी शक्ति के नेतृत्व में संघर्ष करती है अत यदि मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम ने रावण पर विजय के लिये आदिशक्ति की उपासना की तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं है।
आदिशक्ति की विभिन्न शक्तियाँ किन-किन स्वरूपों में अनाचार और अन्याय पर विजय प्राप्त करती है, देवी दुर्गा के विभिन्न रूप इसका उदाहरण है। कभी वे महाकाली बनकर रक्तबीज का संहार करती है तो कभी महिषासुर राक्षस के वध के लिये सिंह पर सवार होती है। नवरात्रि पर यही नारी शक्ति नौ रूप धारण करती है।
नवरात्रि के अवसर पर नव दुर्गा की पूजा होती है। प्रत्येक दिन दुर्गा के एक रूप की आराधना होती है। पहले दिन शैल पुत्री की पूजा से लेकर अंतिम दिन सिद्धिदात्री दुर्गा की पूजा होती है। यह क्रम रोमांचक तो है ही तार्किक रूप से भी अद्भूत है। नव रात्रि में दुर्गा के जिन नौ रूपों की आराधना होती है, वे हैं।
1. शैपुत्री, 2.ब्रम्हचारिणी, 3.चन्द्रघण्टा, 4.कूष्मांडा, 5.स्वकंदमाता, 6.कात्यायिनी, 7.कालरात्रि, 8.महागौरी, 9.सिद्धिदात्री।
दुर्गा के नौं रूपों का विकास क्रम देखें । वे हिमालय के यहां पैदा हुई अत उनका पहला स्वरूप शैलपुत्री का है। इसके बाद इस प्रखर शक्ति का दूसरा रूप ब्रम्हचारिणी का है जो संयम तथा विवक की प्रेरणा शक्ति हैं। अगले स्वरूप चन्द्रघण्टा का संबंध उनके द्वारा चंद्रमा को धारण करने से है। अगले रूप में वे पृथ्वी को धारण करती हैं और कूमाण्डा कहलाती हैं। यह भी कहा जा सकता है कि वे क्रमश चन्द्रमा और पृथ्वी की शक्तियों को धारण करती है। दुर्गा जी का पांचवा रूप स्कंद माता का है। स्कंद कार्तिकेय का दूसरा नाम है जो उनके पुत्र हैं और देवताओं के सेनापति बने। अपने इस रूप में वे अपने पुत्र को भी योग्य बनाती है कि वह दुष्प्रवृत्तियों रूपी राक्षसों को पराजित कर संघर्षजयी बने। महर्षि कात्यायन के आश्रम में उनका अवतरण होने के कारण महर्षि ने उन्हें पुत्री माना और इस कारण वे कात्यायनी कहलाती है। यह स्वरूप उनके ऋषिकुल का आशीर्वाद प्राप्त होने तथा ऋषिपुत्री के रूप में साधना का प्रतीक है।
दुर्गा जी का सातवां रूप काल रात्रि का और आठवां महा गौरी का माना गया है। काल रात्रि तथा महागौरी के रूप में वे क्रमश रौद्र तथा सौम्य आवरण धारण करती हैं। जो समय तथा युग की जरूरत के अनुसार होती है। कालरात्रि बनकर वे राक्षसों का नाश करती हैं तो महागौरी बनकर अपने सौम्य, शांत तथा सुन्दर स्वरूप में आभा बिखेरती हैं जो कि नारी की विशेषता होती है।
नवरात्रि की दुर्गापूजा को प्रकृति से जोड़ने वाला एक अन्य उल्लेखनीय तथ्य नवदुर्गा के स्वरूपों से है। उनका उल्लेख पूर्व में भी किया गया है। नवरात्रि में जिन नवदुर्गाओं की पूजा होती है वे क्रमश इस प्रकार है- शैलपुत्री, ब्रम्हचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री । यह माना जाता है कि दुर्गा के ये नौ रूप प्रकृति के नौ तत्वों की विशिष्ट उपयोगिता के सूचक है। शैलपुत्री को पृथ्वी तत्व, ब्रम्हचारिणी को जल तत्व, चंद्रघंटा को अग्नि तत्व, कूष्मांडा को वायु तत्व, स्कंदमाता को आकाश तत्व, कात्यायनी को मन तत्व, कालरात्रि को बुद्धि तत्व, महागौरी को चित्त तत्व, और सिद्धिदात्री की अहंकार तत्व की अधिष्ठात्री देवी के रूप में आराधना की जाती है। यहाँ अहंकार का अर्थ घमण्ड से नहीं है अपितु यह भाव कामनासिद्धि की मनोदशा का प्रतीक है। इन नौ तत्वों से ही प्रकृति का निर्माण होता है। इन नव दुर्गा की पूजा एक प्रकार से प्रकृति के नौ तत्वों से होने वाले लाभों की उपलब्धता के लिए पूजा होती है।
भगवती दुर्गा का नौवां रूप सिद्धिदात्री का है, जिसमें वे मातृवत सबके लिए आशीर्वाद प्रदाता बनकर प्रगट होती है। नवरात्रि के इन नौ दिनों में देवी दुर्गा के जो नौ रूप बताए गए हैं, वे क्रमश नारी जीवन की नौ भूमिकाओं का महत्व अभियुक्त करते हैं। पुत्री से लेकर सिद्धिदात्री मां तक नारी जीवन की यही गाथा भी है। इसीलिए उनको सर्व स्वरूपे कहकर पूजा की जाती है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि अनेक ऐसे मंदिर पाये जाते हैं जहां यह लोक विश्वास है कि दुर्गा प्रतिमा सुबह किशोरी प्रतीत होती हैं तो शाम को वह प्रौढ़ माता के रूप में अनुभव की जाती है। इस प्रकार दिन के विभिन्न कालखण्डों में आयु के अनुसार छवि परिवर्तन का आभास मिलता है। यह लोक विश्वास भले ही मनौविज्ञानिक कारणों से बताया जाय लेकिन यह इस जन आस्था का प्रतीक है कि हमारे यहां नारी शक्ति के सभी स्वरूपों की पूजा होती है।
इन नौ रूपों के अतिरिक्त आदि शक्ति के अन्य रूपों की मान्यता तथा उपासना भी होती है। पुराणों के अनुसार वे दस महाविद्याओं की अधिष्ठात्री है। देश के विभिन्न भागों में स्थित शक्ति पीठों में इन महाविद्याओं की प्रतिमायें स्थापित हैं जिनकी युगों से पूजा हो रही है। यह दस महाविद्यायें है- काली, तारा, षडशी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, त्रिपुर भैरवी, धूमावती,बगलामुखी, मातंगी तथा कमला । इन दस महाविद्याओं में व्यक्ति की दस इंद्रियों- पांच कर्मेंद्रियों तथा पांच ज्ञानेन्द्रियों के विशेष गुणों और उनकी प्राकृतिक आवश्यकताओं की अभिव्यक्ति होती है।
यह लोकविश्वास है कि नवरात्रि के ये पर्व प्रकृति के साथ मनुष्य के समन्वय के पर्व हैं। उस संदर्भ में दुर्गा सप्तशती का यह श्लोक भी उल्लेखनीय है:
नम प्रकृत्यै भद्रायै, नियता प्रणता: स्म ताम्।
“इस श्लोक में प्रकृति के उसी लोक कल्याणकारी भद्र रूप की वन्दना है। इस श्लोक में देवी दुगा को प्रकृति की शक्ति का रूप मानकर वन्दना की गई ह। यह देवी वन्दना अकारण नहीं हैं दुर्गा सप्तशती में ही यह उल्लेख है कि जब पृथ्वी पर लम्बे अकाल की छाया पड़ेगी और मनुष्य के भोजन के लिये खाद्य पदार्थ नहीं होंगे तो दुर्गा अपने शांकंभरी स्वरूप में सामने आयेंगी तथा मनुष्यों को शाकाहारी खाद्य पदार्थ उपलब्ध करायेंगी। जगदम्बा दुगा का यह शांकंभरी स्वरूप कुछ लोगों को आम धारणा से भिन्न प्रतीत हो सकता है, लेकिन वास्तव में नवरात्रि की उपासना में प्रकृति का विशेष महत्व है।
यह ध्यान देने योग्य बात है कि इन पर्वों के दौरान प्रकृति अपने सौम्य स्वरूप में रहती है। ये चारों नवरात्रियाँ इस कारण यथार्थ में व्यक्ति के तन-मन मे नवीन ऊर्जा का संचार कर सकती है, यदि इस दौरान हम प्रकृति के साथ समन्वय बनाकर परिवर्तन के अनुरूप आहार-विहार का ध्यान रखें।
इस संदर्भ में यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि नवरात्रियों में जवारे रखे जान का विशेष महत्व यह है कि जवारे के साथ पूजा में पूर्ण घट रखा जाता है जिसमें पांच प्रकार के अन्न तथा मिट्टी रखी जाती ह। जवारे, पर्ण घट स्थापना आदि हमारी कृषि प्रधान संस्कृति में खाद्यान्न की महत्ता और पूजा भाव के प्रतीक होते हैं इन नवरात्रियों का संबंध अनेक लोग खरीफ तथा रबी की पैदावार के फसल चक्र से जोड़ते हैं।
नवरात्रि का पर्व अपार लोक आस्था का समय हाता है। पूरे वर्ष लोग कैसा भी आचरण-व्यवहार करें लेकिन नवरात्रि के समय यथासंभव संयम रखने की कोशिश करते हैं। देवी दुर्गा के आराधक या तो नौ दिन उपवास रखते हैं और यथाशक्ति निर्जल व्रत, फलाहार व्रत या एकान्न व्रत पर रहने की कोशिश करते है। इन नौ दिनों में जो लोग उपवास नहीं कर पाते वे भी शुद्ध शाकाहारी रहने की भावना रखते हैं। उनकी यह आस्था तथा आराधना उनको कहीं न कहीं प्रकृति से जोड़ती है।
भारतीय दर्शन ने प्रकृति को नारी शक्ति का प्रतीक भी माना है। नवरात्रि में दुर्गा पूजा इस कारण प्रकृति की पूजा का पर्व भी बन गया है।
नवरात्रि पर शक्ति की देवी दुर्गा की पूजा की प्राचीन परम्परा है। नवरात्रि का पर्व यों तो जन साधारण वर्ष में दो बार मनाता है। नवर्ष और आश्विन (क्वांर) माह की शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा से नवमी तक शारदेय नवरात्रि पर जगदम्बा दुर्गा की उपासना की प्रथा सैकड़ों हजारों वर्षों से प्रचलित है। लेकिन, शक्ति के आराध्य शाक्त मत तथा वाममार्गी उपासक तथा अन्य अनेक भक्त वर्ष में दो नवरात्रियों पर और निष्ठापूर्वक शक्ति की देवी दुर्गा की पूजा करते है। ये दो नवरात्रियों पर और निष्ठापूर्वक शक्ति की देवी दुर्गा की पूजा करते है। ये दो नवरात्रियाँ आषाढ़ तथा माघ माह के शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा से नवमी तक मनाई जाती हैं। चूंकि जनसाधारण में इन दो पर्वों पर आराधना का विशेष प्रचलन नहीं है। अत आम बोलचाल में इनको गुप्त नवरात्रि कहा जाता है। यद्यपि यह तथ्य गोपनीय नहीं है।