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उर्दू जबान को हिंदुस्तानियत की रूह समझते थे फिराक

firak gorakhpuriलखनऊ। अपने भीने कलम को हिन्दुस्तानी मिट्टी की महक में डुबोकर उसे गंगा-जमुनी तहजीब की रंग-ओ-बू देने वाले अजीम शायर रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी उर्दू जबान को हिन्दुस्तानियत की रूह समझते थे और उनका ख्याल था कि जदीद हिन्दुस्तान की तहजीबी तामील उर्दू के बगैर नामुमकिन है। नई सोच और तसव्वुर को अपनी गजलों में पिरोकर जदीद गजल की ईजाद करने वाले फिराक को मीर तकी मीर और मिर्जा गालिब के बाद हिन्दुस्तान में उर्दू का सबसे महान शायर भी माना जाता है। उर्दू जबान और अदब की तारीख फिराक गोरखपुरी की अजमत के रौशन तजकिरे के बगैर नामुकम्मल रहेगी। मशहूर शायर अनवर जलालपुरी ने एक अदीब के रूप में फिराक की शख्सियत पर रौशनी डालते हुए बातचीत में कहा मेरी नजर में फिराक साहब से पहले उर्दू में सिर्फ अल्लामा इकबाल ऐसी शख्यिसत हैं जो एशिया और यूरोप के उलूम पर गहरी नजर रखते थे। दोनों इलाहों के मजहबों के फलसफों पर भी उनकी गहरी नजर होती थी। फिराक दूसरी बड़ी शख्सियत हैं जो एशिया और यूरोप के मुल्कों के मजहबी फलसफों और दोनों इलाकों के साहित्य पर भी बेइंतहा गहरी नजर रखते थे। उन्होंने कहा यहां पर फिराक उर्दू के दीगर शायरों से आगे हैं। फिराक की दूसरी खूबी यह थी कि उन्होंने अपनी नजरों में और अपनी रूबाइयात में भारतीय संस्कृति को बहुत ज्यादा उजागर किया। इस तरह उन्होंने उर्दू साहित्य को हिन्दुस्तान के कदीम फलसफे की खुशबू से महकदार बना दिया था। जलालपुरी ने कहा कि फिराक साहब की तीसरी खासियत यह है कि चूंकि वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य के शिक्षक थे और अंग्रेजी के बाकी प्रोफेसर भी इस भाषा में उनके ज्ञान के कायल थे। फिराक ने अंग्रेजी अदब की गहरी जानकारी के बल पर बराहे राज और बिलवास्ता (प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष) तौर पर बहुत कुछ हासिल किया और उसे अपनी गजलों में पिरोया भी। इस तरह से उर्दू के दीगर शायरों के मुकाबले में फिराक गोरखपुरी अपनी इम्तियाजी आन-बान और शान रखते थे। उन्होंने कहा कि फिराक ने तनकीदी (आलोचनात्मक) मजामीन भी लिखे हैं जिनको पढ़कर उनकी वसीउन्नजरी (व्यापक सोच) और दानिशवरी पर यकीन ताजा हो जाता है। फिराक उर्दू के बहुत ही नुमाया वकील थे। वह उर्दू जबान को हिन्दुस्तानियत की रूह समझते थे और उनका ख्याल था कि जदीद हिन्दुस्तान की तहजीबी तामील उर्दू के बगैर नामुमकिन है। 28 अगस्त 1896 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में जन्मे फिराक साहब की जिंदगी, उनकी शायरी और उनके गुफ्तगू करने के अंदाज से उर्दू वालों को बड़ी राहत और जहनी ताकत मिलती थी। वह बड़ी बेबाकी, जुर्रत और गैरजानिबदारी के साथ उर्दू की हिमायत में गैर उर्दूदां लोगों के बीच इतनी तर्कपूर्ण तकरीर करते थे कि वे लोग भी फिराक की जहानत के साथ-साथ उर्दू जबान की कशिश के कायल हो जाते थे। पदम भूषण, साहित्य अकैडमी और ज्ञानपीठ अवॉर्ड जैसे कई सम्मान हासिल करने वाले फिराक ने खुद अपने बारे में शेर कहा है कि आने वाले नस्लें तुम पर रश्क करेंगी ऐ हमअस्रों जब उनको जान आएगा कि तुमने फिराक को देखा है। गुल-ए-नगमा, गुल-ए-राना, रूह-ए-कायनात और शबिस्तां समेत अनेक कतियों के रूप में अपनी निशानी छोड़ कर फिराक ने तीन मार्च 1982 को दुनिया से विदा ले ली। लेकिन बेशक अपनी शायरी के रूप में वह हमेशा दिलों में रहेंगे।

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