मध्यवर्गीय जन-जीवन की करुण-गाथा ‘मझधार’
पुस्तक समीक्षा
भारतीय समाज में अनेक विविधता व्याप्त है उन्हीं के बीच मध्यवर्गीय जन-जीवन अपने आपको साबित करने के प्रयास में खुद से ही सवाल करता हुआ कहता है- क्या किसी ने अपने जीवन में खुद को या अपनेइर्द-गिर्द रहने वालों में से किसी को पूर्ण तृप्त कर पाया है? ऐसा लगता है, हम जीने का अभिनय कर रहे है। वह पुन: कहता है- हम एक ऐसे बिंदु पर खड़े हैं, जहां से दोनों किनारे हमारी पहुंच से बाहर हैं। बहुत हाथ-पांव मारते हैं पर फायदा कुछ नहीं होता। इस प्रकार के जीवन और उससे जुड़ी जिजीविषा को रेखांकित करता हुआ सच्चिदानंद चतुर्वेदीजी का दूसरा महत्वपूर्ण उपन्यास हमारे सम्मुख मझधार के रूप में आता है। मझधार उपन्यास की पृष्ठभूमि मध्यवर्ग की उन तमाम ऊहापोह को उद्घाटित करने में जहां निर्मोही जीवन की गति और उसमें भी कुछ न प्राप्त हो सकने की स्थिति में आपने आपको एक अजीब बाध्यता के साथ रखने में मजबूर क्यों? कि स्थिति के साथ हमारे सम्मुख मजबूती से प्रगट होने में ज्यादे कामयाब हुआ है।
आज का समाज अनेक चुनौतियों का एक साथ मुकाबला कर रहा है। परिवर्तन और विकास के एजेंडे पर सब कुछ बड़ी तेजी से बदल रहा इसके बावजूद उपन्यास का इस पर बहुत ज्यादा ध्यान न देकर समाज के भीतर उस आईने में झांकने का प्रयास करता है जो देखने में तो एकदम चकाचक है मगर अंदर से उतना ही विद्रूप और खोखला। मध्यवर्गीय जीवन जगत के इन्हीं विद्रूपताओं खोखलेपन के मूल कारणों की तलाश में निकला यह उपन्यास मध्यवर्गीय जीवन-धारा में निर्बाध गति से बहता हुआ अपने आपको इस धारा के बीच खड़ा करके अपने जीवन को बूँद-बूँद रिसता हुआ देखने के लिए जैसे अभिशप्त हो।
उपन्यास की बनावट विश्लेषण की पृष्ठभूमि के बाद अगर देखा जाय तो इस उपन्यास का कथ्य अपने आप में कोई अनोखा प्रयोग भले ही न हो लेकिन अपने विषय एवं अपने मंतव्य को अंत तक बांधे हुए आगे बढ़ने में सक्षम है। इसके पीछे दो वजह साफ देखी जा सकती है। पहला ये कि इसके पात्र अपनी-अपनी घायल जिजीविषा का परिक्रमा करते हुए, विभिन्न ऊहापोहों में फसें हैं। जिनकी पहचान कराने की जहमत लेखक को नहीं उठानी पड़ती वो स्वत: ही जाने-पहचाने लगतें, पाठकों की जिज्ञासा उनकी जिजीविषा से सीधे जुड़ते दिख जाते हैं। दूसरी वजह है भाषा का निर्वाध गति से पाठको से सीधे मुखाबित होना, जिसकी चाल कही भी अटपटी नहीं लगती बल्कि सीधे संप्रेषित होती है। अपने कथन में लोकभाषा का प्रयोग इस उपन्यास के पात्रों को उनके देश के साथ प्रस्तुत करती है। एक कुशल उपन्यासकार अपनी भाषा और उसके संप्रेषण को लेकर हमेशा सचेत रहता है। सच्चिदानंद जी की भाषा अपने कथ्य के अनुरूप अपने वाक्य का विन्यास तय करती उपन्यास के अन्तर्वस्तु को रेखांकित करती हुई चलती है।
उपन्यास के शुरुआत में ही हम पाते है कि एक मध्यवर्गीय परिवार के जीवन में कैसे घटनाएं शोक और सुख के बीच घटित होती हैं। इन्हीं घटनाओं से रूबरू कराते हुए उसकी मूल छटपटाहट और वेदना को इस प्रकार से प्रस्तुत उपन्यास में गुम्फित किया गया है कि जैसे वो हमारे आस-पास का ही या यूँ कहें हमारी निर्मिति का-ही समाज हो, जिसमें अनेक उतार-चढ़ाव देखने सुनने को मिलता है। भारतीय मध्यवर्ग को लेकर आजादी के पहले और आजादी के बाद कई उपन्यास रचे गए जिसमें अनेक मार्मिक प्रसगों/घटनाओं के माध्यम से सामाजिक चेतना और वर्ग विभेद को लेकर चिंता एवं विचार लेखकों द्वारा समय-समय पर प्रगट किया गया लेकिन परिवार जो एक इकाई है समाज की उसकी संरचना के बीच से गुजरते हुए ‘मझधार’ जैसे उपन्यास की निर्मिति शायद ही हुई हो, अगर कुछ लिखा गया है तो वर्तमान परिदृश्य को ध्यान में रखक रही लिखा गया है, कुछ कालजयी रचनाएं भी हैं जिन की चर्चा कही और की जाय तो बेहतर रहेगा। ‘मझधार’ जैसे उपन्यास की कथा बुनना, लेखक की लेखकीय परिपक्वता को उद्घाटित करता है।
एक से लेकर तैतीस उपबंधों में बंधी कथा नये-नये प्रश्न तो जरूर खड़ी करती है परन्तु इन प्रश्नों के बीच समाधान की बात न कर वह उन्हें पाठकों के विचाराधीन छोड़कर आगे बढ़ जाती है। इसमें और कहा जाय तो कथा अपने आपको सीमित दायरे से बाहर निकाल ने की पुरजोर कोशिश तो करती है लेकिन सामाजिक बेड़ियों को पूरी तरह से अतिक्रमित नहीं कर पाती और ये कहती हुई चलती है कि हम (मध्यवर्ग) कभी पूरे नहीं होते और विडम्बना यह कि अपने का आधा होना भी स्वीकार न हीं करते घर में है तो बाहर जाना चाहते हैं, बाहर हैं तो घर लौटना, और जब अंतिम बार, संयोग से, घर लौटने की बारी आती है तो जाना ही नहीं चाहते। आधे-पूरे का नाटक हम तभी तक कर पाते है, जब तक हमारी जिजीविषा हमारा साथ देती है। इन्हीं आधे-अधूरे/पूरे के बीच कथा अपने मर्म के साथ हमें अपने आपसे जोड़ते हुए आगे निकलती है। जिसमें कई हमारे जाने पहचाने पात्र सहसा हमारी आँखों के सामने दृश्यमान हो जाते है, वे हमारे ही चिर-परिचित बन बैठते है, उन्हेंअलगाना समाज को अलगाने जैसा लगने लगता है।
खैर, अपने आपको कई आयामों से जोड़ते हुए उपन्यासकार मध्यवर्गीय जीवन की दास्तां को उजागर करते हुए उसकी निरीहता को प्रस्तुत करने में पूरी तरह कामयाब होते हैं। प्रस्तुत उपन्यास में भाषा का प्रयोग प्रसंगानुकूल और सार्थक शब्दावली के साथ एक बड़े समाज की समझ को विकसित करने में समर्थ है, लेखक के विचार अपने पके/तपे अनुभव के साथ उपन्यास में पूरी मुश्तैदी के साथ मौजूद है जो उसके वजूद को मजबूती देता है। अमन प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक को मेरी तरफ से सफल उपन्यास मानने में कोई हिचकिचाहट नहीं है, इस प्रकार के उपन्यास आज के बदलते वैश्विक परिदृश्य एवम भारतीय समाज के लिए किसी वरदान से कम नहीं हैं।
समीक्षित पुस्तक- मझधार (उपन्यास), लेखक- सच्चिदानन्द चतुर्वेदी, अमन प्रकाशन, कानपुर।
(लेखक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में प्रोजेक्ट फेलो हैं।)