इन सवालों से तय होगा अखिलेश और मायावती का भविष्य
-नवीन जोशी
समाजवादी पार्टी के युवा राष्ट्रीय अध्यक्ष, पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव तथा बहुजन समाज पार्टी की सर्वेसर्वा मायावती अगले पांच साल में क्या भूमिका निभाते हैं, इसी पर इनका राजनैतिक भविष्य निर्भर होगा। दोनों ही के पास पर्याप्त समय है। अखिलेश की राजनैतिक पारी अभी शुरू ही हुई है जबकि राजनीति के हिसाब से मायावती सीनियर सिटीजन नहीं हुई हैं। मतलब कि उन्हें बेचैन होने या जल्दबाजी करने की कोई जरूरत नहीं।
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव नतीजों ने जहां भाजपा को तीन चौथाई बहुमत देकर पूरे पांच साल तक शासन करने का अवसर दिया है, वहीं दो बड़े दलों के दो प्रमुख नेताओं को आत्म-विश्लेषण करने, नया रास्ता चुनने अथवा अपनी राह दुरुस्त करने और जनता का विश्वास फिर से जीतने के लिए पर्याप्त समय भी दिया है। ये पांच साल उनके लिए रचनात्मक विपक्ष की भूमिका निभाने की चुनौती के भी हैं। समाजवादी पार्टी के युवा राष्ट्रीय अध्यक्ष, पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव तथा बहुजन समाज पार्टी की सर्वेसर्वा मायावती अगले पांच साल में क्या भूमिका निभाते हैं, इसी पर इनका राजनैतिक भविष्य निर्भर होगा। दोनों ही के पास पर्याप्त समय है। अखिलेश की राजनैतिक पारी अभी शुरू ही हुई है जबकि राजनीति के हिसाब से मायावती सीनियर सिटीजन नहीं हुई हैं। मतलब कि उन्हें बेचैन होने या जल्दबाजी करने की कोई जरूरत नहीं।
अखिलेश: विपक्ष की भूमिका है इम्तिहान
सवाल है कि विधान सभा चुनाव में बड़ी पराजय के बाद समाजवादी पार्टी के युवा राष्ट्रीय अध्यक्ष,अखिलेश यादव की अगले पांच साल के लिए रणनीति क्या है? वे योगी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के खिलाफ सजग विरोधी नेता की हैसियत से उत्तर प्रदेश में मोर्चा सम्भालते हुए क्या वे समाजवादी पार्टी को नया स्वरूप और तेवर देंगे? या, सत्ता छिन जाने के बाद बसपा नेत्री मायावती की तरह राज्य सभा का रास्ता पकड़ेंगे? अथवा पिता मुलायम और चाचा शिवपाल के समक्ष समर्पण कर देंगे? तय ही था कि विधान सभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद अखिलेश पर मुलायम और शिवपाल की ओर से तीखे हमले होंगे। पार्टी में पुनर्प्रतिष्ठा और अखिलेश से ‘बदला’ लेने का इससे अच्छा मौका उनके लिए और क्या हो सकता था। सबसे पहले अमर सिंह ने मोर्चा खोला कि समाजवादी पार्टी को बचाने के लिए नेता जी को पुन: पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया जाना चाहिए। कुछ समय बाद खुद मुलायम हमलावर हुए कि अखिलेश ने मेरा जितना अपमान किया उतना कभी नहीं हुआ। उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी की टिप्पणी दोहरा दी कि ‘जो अपने बाप का नहीं हुआ, वह किसी और का क्या होगा।’ फिर शिवपाल ने तंज कसे।
फिलहाल तो अखिलेश ने समझौते या समर्पण के संकेत नहीं दिये हैं। राम गोविंद चौधरी को विधानसभा में सपा विधायक दल का नेता नियुक्त करना बताता है कि वे अपनी राह चलेंगे। इस पद के लिए उन्होंने शिवपाल तो दूर, आजम खां के नाम पर भी विचार नहीं किया। निर्विवाद है कि मुलायम सिंह ने बहुत मेहनत और संघर्ष करके समाजवादी पार्टी को बनाया एवं मजबूत किया था। उतना ही सच यह भी है कि कालान्तर में उन्होंने सपा को समाजवादी राह से भटक कर पिछड़ों के नाम पर यादवों और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुसलमानों को किसी भी कीमत पर खुश रखने वाली पार्टी बन जाने दिया। अराजक, भ्रष्ट एवं अपराधी पृष्ठभूमि वाले नेताओं को प्रश्रय दिया। अखिलेश यादव ने सपा को इस दागदार छवि से मुक्ति दिलानी चाही। यह कोशिश उन्हें पहले शिवपाल और फिर मुलायम से बगावत की हद तक ले गयी। जब उनके सामने यह अवसर आया कि उन्हें पार्टी की बागडोर अपने हाथ में लेनी होगी तो वे चूके नहीं। तब वे चूक गये होते तो मुलायम-शिवपाल के आज्ञाकारी पिछलग्गू बन कर रह जाते।
सन 2017 की चुनावी पराजय ने उनके सामने एक और महत्वपूर्ण अवसर उपस्थित कर दिया है। रचनात्मक एवं सशक्त विपक्ष की भूमिका निभा कर अपनी राजनीति को धार देने का। शर्त यह है कि उन्हें प्रदेश भर का दौरा कर जनता से लगातार मिलना, उसकी ज्वलंत समस्याएं जानना, पार्टी का नया ढांचा तैयार कर कार्यकर्ताओं को सक्रिय बनाना और वाजिब मुद्दों पर सड़क पर संघर्ष करना होगा। चुनाव में पराजय के बावजूद जनता में उनकी छवि अच्छी है। अखिलेश यह रास्ता चुनते हैं तो दीर्घकालीन राजनीति की मजबूत सीढ़ियां वहीं से शुरू होती हैं। कभी उनके पिता इसी मार्ग से शीर्ष तक पहुंचे थे। एक अपेक्षाकृत आसान रास्ता राज्य सभा का है, लेकिन वह राजनीति की खुरदुरी जमीन से उनका पलायन माना जाएगा।
मायावती: मिशन की ओर वापसी या गठबंधन?
विधानसभा चुनाव में भारी पराजय के बाद मायावती के तीन फैसले चौंकाने वाले हैं। एक- अपने भाई आनंद कुमार को बहुजन समाज पार्टी का उपाध्यक्ष और अपने बाद पार्टी में नंबर दो बनाना। दो- पराजय के वास्तविक कारणों की तलाश करने की बजाय इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों में छेड़छाड़ की साजिश को मुद्दा ठहराया और तीसरा- भाजपा को हराने के लिए दूसरे दलों से गठबंधन को राजी होना। इसीलिए प्रश्न उठता है कि दलितों के सामाजिक-आर्थिक सशक्तीकरण के लिए कांशीराम ने सत्ता की जिस राजनीति को अनिवार्य माना था, क्या उसी राजनीति के विद्रूप ने दलित आंदोलन और बसपा को त्रासद अंत तक ला दिया है? मायावती के सामने अब सिर्फ राजनैतिक बियाबान है या उनमें सम्पूर्ण दलित समाज को एक बार फिर राजनैतिक रूप से एकजुट करने की क्षमता और दृष्टि है? या फिर उन्हें यह लगने लगा है कि गठबंधन की राजनीति से ही अब दलित आंदोलन आगे बढ़ेगा?
जो भाई बसपा का प्राथमिक सदस्य तक नहीं था और जिस पर बेहिसाब कमाई के आरोपों की जांच चल रही है, उसे बहुजन समाज पार्टी का दूसरे नंबर का मुखिया घोषित करके मायावती आखिर क्या हासिल करना चाहती हैं? क्या यह फैसला कांशीराम के ‘मिशन’ में कहीं फिट बैठता है? क्या मायावती को यह नहीं लगता कि दलित आंदोलन के मूल मिशन से भटकने के जो आरोप लगे हैं, उनमें कुछ सच्चाई हो सकती है?
दलित अध्ययेता और राजनैतिक चिंतक भी पिछले काफी समय से मायावती को सचेत करते रहे हैं। 2007 में पूर्ण बहुमत से यूपी की सत्ता में आयी बसपा जब 2009 के लोक सभा चुनाव में अपेक्षित सीटें नहीं जीत सकीं तब दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद ने सवाल उठाया था कि किसकी सलाह पर मायावती ने इतने व्यापक पैमाने पर ब्राह्मणों को उच्च पदों पर बैठा दिया? क्या दलित सरकार का कोई स्पष्ट दलित एजेंडा है? अभी हाल में प्रदेश के महाविद्यालयों में 85 प्रिंसिपल नियुक्त किये गये जिसमें एक भी दलित नहीं है। उन्होंने चेतावनी दी थी कि इन बातों पर बसपा फौरन विचार नहीं करती तो आगामी विधान सभा चुनावों में उसे विपक्ष में बैठना पड़ेगा, वह भी मुख्य विपक्षी दल के रूप में नहीं, बल्कि तीसरे या चौथे पायदान पर। आज उनकी बात सच हो गयी है।
अमेरिका की कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के राजनीति शास्त्र विभाग के प्रदीप छिब्बर और राहुल वर्मा ने 2012 में बसपा की राजनैतिक रणनीति और चुनावी प्रदर्शन का अध्ययन किया। उन्होंने लिखा था कि 2009 से विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनावों में बसपा का प्रदर्शन खतरनाक गिरावट के संकेत देता है और लगता नहीं कि वह 2007 जैसा प्रदर्शन दोहरा पाएगी। इसके कारणों की व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा था कि एक तो बसपा में बाहर से आये ऐसे नेताओं को तरजीह दी गयी जिनकी निष्ठा उसकी विचारधारा में है ही नहीं। दूसरा कारण, जो कहीं ज्यादा नुकसानदेह साबित हुआ, यह कि मायावती ने पार्टी संगठन में सत्ता-केंद्र पनपने के भय से दूसरे नेताओं को उभरने नहीं दिया। किसी पार्टी के लंबे समय तक सक्रिय रहने और विस्तार पाने के लिए दूसरे-तीसरे दर्जे के नेताओं का विकास जरूरी होता है।
ये बहुत महत्वपूर्ण सुझाव थे जिन पर मायावती ने ध्यान नहीं दिया। नतीजा यह हुआ कि दलित जातियों का, मायावती के अपने जाटवों को छोड़कर, बसपा से मोहभंग होने लगा। बसपा के कई पुराने नेता, जो कांशीराम के समय से दलित या बहुजन आंदोलन को खड़ा करने में समर्पित थे, पार्टी छोड़कर जाने लगे या मायावती ने ही उन्हें बाहर कर दिया। भाजपा ने इसका खूब फायदा उठाया। 1983 से कांशीराम के साथी रहे दलित नेता दद्दू प्रसाद को, जिन्हें डेढ़ साल पहले मायावती ने पार्टी से निकाल दिया था, चुनाव हारने के बाद बसपा में वापस लिए जाने से यह संकेत मिले थे कि मायावती आत्मचिंतन कर रही हैं, लेकिन ताजा फैसलों से लगता नहीं कि वे बदल रहीं हैं।
अगर आज बसपा बिखरने की कगार पर है तो इसकी जिम्मेदारी मायावती ही पर है। कभी मायावती ने बसपा को मजबूत बनाने के लिए कांशीराम के साथ गांव-गांव साइकिल चलाई थी। कांशीराम ने राजनैतिक सत्ता पाने का श्रेय मायावती ही को दिया था। मगर 2017 के चुनाव नतीजों ने मायावती के नेतृत्व और बसपा के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगा दिया है। क्या वे बड़े बंगलों से बाहर निकल कर अब फिर उसी तरह संघर्ष करने के लिए तैयार हैं? अन्यथा गठबंधन की राजनीति उन्हें और भी पीछे धकेल देने वाली है।