कभी एकजुट, तो कभी बिखरा हुआ दिखता विपक्ष
सियासत दिल्ली, वाया यूपी
हिन्दुस्तान की राजनीति में बड़ा परिवर्तन दिखाई दे रहा है। एक तरफ मोदी सरकार विकास की बात कर रही है तो दूसरी ओर विपक्ष मोदी को नीचा दिखाने के चक्कर में स्वयं नीचे गिरता जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और बीजेपी के तमाम आला नेताओं के बयानों में यह लगता है कि उनकी सरकार विकास की राजनीति कर रही है, जबकि विपक्ष विवाद की सियासत में जुटा है। बीजेपी देश के विकास के लिये लड़ रहा है, तो विपक्ष बीजेपी के खिलाफ लड़ रहा है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि विवाद की राजनीति विपक्ष की मजबूरी बन गई है। तीन वर्षो में मोदी सरकार पर भ्रष्टाचार का कोई दाग नहीं लगा है। मोदी सरकार के कामकाज से भी जनता संतुष्ट नजर आ रही है। यूपीए गठबंधन की मनमोहन सरकार से ही नहीं उससे पहले की केन्द्रीय सरकारों के मुकाबले भी मोदी सरकार का परफारमेंस बीस ही बैठता है। मोदी सरकार को नीचा दिखाने के लिये विपक्ष लगातार लगातार एकजुटता को प्रयासरत है। जैसा की अब राष्ट्रपति चुनाव के बहाने देखने को मिल रहा है। हाल ही में 17 दलों के 31 नेताओं ने जब दिल्ली में बैठक की तो ऐसा लगा कि ‘चूहे’ मिलकर ‘बिल्ली’ के गले में घंटी बांधना चाहते हैं। इसमें ममता बनर्जी से लेकर मायावती और अखिलेश यादव सब दिखाई दिये। इससे पूर्व ईवीएम मशीन में गड़बड़ी का आरोप लगाते हुए विपक्ष एकजुट होकर राष्ट्रपति के पास पहुंचा था। इस बैठक में बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार नहीं आये, लेकिन सबसे अधिक चर्चा उत्तर प्रदेश की सियासत के विपरीत धु्रव समझे जाने वाले माया-अखिलेश के एक मंच पर आने को लेकर हुई। मायावती ‘बाप से बैर, पूत से नाता’ की तर्ज पर लगातार नई समाजवादी पार्टी से करीबी बना रही हैं। माया-अखिलेश के करीब आने के बाद यह चर्चा आम हो गई है कि क्या 2019 में दिल्ली का रास्ता पुंन: यूपी से होकर जायेगा। क्योकि कभी-कभी भले ही ऐसा लगता हो किसी और रास्ते पर चलकर भी दिल्ली पहुंचा जा सकता है, लेकिन इसमें निश्चितता का अभाव रहता है। यूपी में जो मजबूत होता है दिल्ली उसकी स्वत: हो जाती है। कांगे्रस ने यूपी के बल पर वर्षो वर्ष तक दिल्ली की सत्ता का स्वाद चखा, जैसे अब बीजेपी चख रही है।
उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी का स्वर्णिम काल चल रहा है। उसके 73 सांसद हैं और 312 विधायक। यूपी के बल पर मोदी दिल्ली में तो योगी प्रदेश की सत्ता पर काबिज हैं। आज भले ही दिल्ली में विपक्ष मोदी सरकार के खिलाफ एकजुट दिखाई पड़ रहा हो, लेकिन लखनऊ में यह नजारा विधान सभा सत्र के दौरान पहले ही देखा जा चुका था। बसपा विधायक दल के नेता लालजी वर्मा का नेता प्रतिपक्ष और सपा विधायक दल के नेता रामगोविंद चौधरी के यहां बैठक में जाना संसदीय परंपरा का हिस्सा हो, लेकिन जिस तरह 17वीं विधान सभा के प्रथम सत्र के दौरान सदन के भीतर-बाहर भाजपा विरोधी दलों के बीच आपसी तालमेल आंैर एकजुट होकर सत्तारूढ़ दल भाजपा को घेरने की कोशिश की गई थी, उससे भविष्य के सियासी समीकरणों की आहट तो साफ सुनाई ही पड़ गई थी। वैसे, विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद से ही अखिलेश यादव और मायावती की तरफ से गठबंधन को लेकर सकारात्मक टिप्पणियां और दोनों तरफ से हाथ मिलाने में परहेज न होने की बाते सावर्जनिक हो चुकी थीं। इसके अलावा भी कई बार दोनों दलों के बीच यह स्वीकारोक्ति दिखाई देती रही थीं कि भाजपा को रोकने के लिए धर्मनिरपेक्ष ताकतें एकजुट हो सकती है। एकजुट होकर भाजपा को घेरने की विपक्षी कोशिश से साफ लगता है कि कहीं न कहीं भविष्य की चुनौतियो से पार पाने के लिए ही विपक्ष द्वारा एकता-एकता का ड्रामा खेला जा रहा है।
बहरहाल, बसपा विधानमंडल दल के नेता जी लालजी वर्मा का नेता प्रतिपक्ष रामगोविंद चौधरी द्वारा बुलाई गई बैठक में जाना संसदीय पंरपराओं के लिहाज से भले ही सामान्य घटना हो, लेकिन सपा और बसपा नेताओं के अब तक के रिश्तों के आधार पर अगर इस बैठक का विश्लेषण करें तो यह आसानी से समझ में आ जाता है कि यह सामान्य घटना या बस पंरपरा नही थी। जिन दलों के नेताओं के बीच सियासी तल्खी व्यक्तिगत कडुवाहट की सीमा से भी आगे निकल चुकी हो, जिन पर्टियों के नेताओं की कोई बात एक-दूसरे पर तल्ख टिप्पणियों के बिना पूरी ही न होती हो, जिन पार्टियों के मुखिया इस विधानसभा चुनाव नतीजे के पहले तक परस्पर सामान्य सियासी शिष्टाचार निभाने की भी जरूरत न समझते हो, अगर ऐसे नेताओं के नेतृत्व वाली पार्टियों कें नेता आपस में मिलते है, बैठक करते है, तो ये साफ है कि संसदीय परंपराओं के बहाने आगे की चुनौतियां से साझा तौर पर मुकाबला करने के लिए कोई सहमति या समीकरण बनाने की कोशिश जरूर हो रही है। लब्बोलुआब यह है कि सपा-बसपा दोनो तरफ से परस्पर सहज भाव और संवाद के पीछे इनके अपने संगठनात्मक समीकरण भी है सपा में शिवपाल यादव के से भतीजे अखिलेश यादव की तल्खी तो बसपा में नसीमुद्दीन सिद्दीकी के मायावती से दो-दो हाथ के एलान ने भी दोनो नेताओं की आपसी कड़वाहट को कम करने के लिए मजबूर करा है। कारण साफ है। दोनों पार्टियों के नेताओं को यह अहसास हो गया है कि उन्होेंने नए समीकरणों पर काम नही किया, कॉडर को अगर यह संदेश न मिला कि पार्टी भविष्य की सियासी चुनौतियों से निपटने मेें सक्षम है तो पार्टी में बिखराव बढ़ेगा।
सपा-बसपा की गाणितीय मजबूरी
2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन को 42़65 प्रतिशत,जबकि सपा कों 22़35, कांंग्रेस 7़53 और बसपा कों 19़77 प्रतिशत यानी इन सबको कुल मिलाकर 49़65 प्रतिशत वोट मिले। मतलब भाजपा की तुलना में विरोधी दलों को 7 प्रतिशत वोट ज्यादा मिले। विधानसभा चुनाव में भी यह स्थिति देखने को मिली। भाजपा को गठबंधन सहित 41़4 प्रतिशत वोट मिले। जबकि विरोधी दलों में सपा कों 21़8, बसपा को 22़2 और कांग्रेस को 6़2 यानी कुल मिलाकर 50़20 प्रतिशत वोट पड़े। मतलब विधानसभा चुनाव में इन दलों को कुल मिलाकर भाजपा की तुलना में लगभग 8़8 प्रतिशत अधिक मत मिले। 2014 के लोकसभा चुनाव की तुलना में 2017 के यूपी विधानसभा में भाजपा विरोधी दलों को 1़8 प्रतिशत ज्यादा मत मिला। जबकि,भाजपा गठबंधन का मत 1़25 प्रतिशत घटा। इसी हकीकत ने सपा, बसपा, कांग्रेस या रालोद को अहसास करा दिया है कि आपस में हाथ मिलाए बगैर भाजपा से निपटना मुश्किल होगा। इसलिए पूर्वाग्रहों को किनारे रखकर एक- दूसरे के साथ संवाद और सहयोग के माध्यम से समीकरणों पर काम शुरू हो गया है। राष्ट्रपति चुनाव के बाद इसमें और भी तेजी आ सकती है।