बच्चों से हमेशा पक्के मित्र जैसा व्यवहार करें
गुटखा खाने से रोका तो किशोर ने लगाई फांसी, स्कूल जाने को लेकर माँ-बेटी के साथ हुई कहा-सुनी से नाराज होकर 11वीं कक्षा में पढ़ने वाली छात्रा ने पिता की पिस्टल से गोली मारकर आत्महत्या कर ली, प्रिसिपल की फटकार से आहत छात्र ने खुद को गोली से उड़ाया यह कुछ ऐसी घटनाएं हैं जो हाल ही में मीडिया की सुर्खियां बनी। सुसाइड के बढ़ते इस ट्रेंड ने समाज के माथे पर चिंता की लकीरें उकेर दी हैं। सवाल उठ खड़ा हुआ है कि पहले जिस उम्र में बच्चे खेलकूद और दोस्तों में मशगूल रहते थे वही अब ऐसे हालात क्यों बन गए कि बच्चों को नन्ही उम्र में मौत को गले लगाना पड़ रहा है। आए दिन हो रही इन अकाल मौतों का जिम्मेदार कौन है? शिक्षकों तथा प्रधानाचार्यों को समझना होगा कि आज के तकनीकी एवं वैश्विक युग में जी रहे बच्चे पहले के समय की तुलना में बड़े भावुक होते हैं उनसे कोई गलती होने पर मनोवैज्ञानिक ढंग से ही पेश आना समझदारी है। इस संबंध में तीन विशेषज्ञों के सुझाव इस प्रकार हैं:-
(1) लखनऊ के लोहिया अस्पताल के डा. देवाशीष शुक्ला का कहना है कि अगर बच्चे को स्कूल एसेम्बली में बुलाकर सभी के सामने डाटा गया तो यह उचित नहीं है। बच्चों को संयमित होने की शिक्षा नहीं मिल रही है।
(2) लखनऊ के डा. मलयकान्त सिंह, साइकियाट्रिस्ट का कहना है कि अगर बच्चा किसी की फटकार के बाद ऐसा कदम उठाता है तो आवेशशील व्यवहार (इंपल्सिव बिहेवियर) है जिसमें बच्चा अचानक ऐसा कदम उठाता है। इसमें पैरेंट्स की भी गलती है कि वे ऐसा हथियार बच्चों की पहुंच में रखते हैं। इसके अलावा यदि बच्चा चिड़चिड़ा हो रहा है तो वह डिप्रेशन का भी शिकार हो सकता है। पैरेंट्स को चाहिए वे बच्चे से दोस्ताना व्यवहार रखें और उसकी सुरक्षा के लिए केयरफुल रहें।
(3) प्रोफेसर रामगणेश यादव, पूर्व एचओडी सोशियोलॉजी डिपार्टमेन्ट, लखनऊ यूनिवर्सिटी का कहना है कि पहले परिवार संयुक्त होते थे। अब न्यूक्लियर फैमिली का दौर है। यही पारिवारिक संरचना बच्चों को पेरेंट्स से दूर कर रही है। परिवार के सदस्यों का एक-दूसरे से कम्यूनिकेशन गैप हो जाता है। पेरेन्ट्स से बच्चे परेशानियां शेयर नही करते और हिंसक हो जाते हैं। यही वजह है कि मामूली बात पर बच्चे जोखिम में डालने से बाज नहीं आते।
अभिभावकों से मेरा कहना है कि विश्वास और स्नेह ही बच्चों के मनोबल को ऊँचा कर सकता है। आपके एक बोल से बेटे-बेटी की सारी दुनिया बदल सकती है। आपका संवाद प्रेरणादायी व प्रोत्साहित करने वाला हो। प्रताड़नायुक्त तथा चिन्ता-टेन्शन देने वाला नहीं। बच्चों को प्रेमपूर्वक समझाकर अनुशासित करें उसे दण्डित व मार-पीट न करें। जिससे छात्र का मन विचलित तथा आवेशशील न होकर एकाग्रचित-ध्यानमग्न होगा। बच्चों को सकारात्मक उदाहरण दें। उसको स्वयं की उपलब्धियों का स्मरण कराकर प्रोत्साहित करें। त्रुटियों को एक बार बताना ही पर्याप्त है, उसे बार-बार दोहराना बच्चे के आत्मविश्वास तथा मनोबल को तोड़ता है। पढ़ाई के अतिरिक्त खेल व मनोरंजन आदि का भी महत्व है। प्रयत्न कितना किया, इसे महत्व दें, परिणाम को नहीं। बच्चे पर उसका जीवन ध्येय थोपें नहीं। उसे स्वयं अपने स्वभाव एवं अभिरूचि के अनुसार अपने जीवन का ध्येय तय करने दें। हम केवल एक अनुभवी मार्गदर्शक तथा संरक्षक की भूमिका निभाये।
छात्रों से मेरा कहना है कि 10वीं तथा 12वीं बोर्ड की परीक्षायें महत्वपूर्ण होती है क्योंकि इसमें स्वयं के उज्जवल भविष्य का, परिजनों-गुरूजनों, दोस्तों का आप अपने ऊपर फिजूल तथा बेमतलब दबाव-टेंशन महसूस करते हैं, किसी प्रकार का दबाव, चिन्ता, हताशा अपने मन हृदय पर न आने दे। उस दबाव को आप हंसते-खेलते सकारात्मक रूप से लें। नेगेटिव विचारों को अपने पर हावी नहीं होने दे। हमेशा सकारात्मक-आशावादी विचार ही सोचे। सकारात्मक सोच ही सफलता की चाबी है। नाविक क्यों निराश होता है, अरे क्षितिज के पार साहसी नवप्रभात होता है। यदि तू हृदय उदास करेगा जग तेरा उपहास करेगा। यदि तूने खोया साहस तो यह जग और निराश करेगा। इन लहरों से क्यों घबराना, ले चल अपनी नाव अकेला। सदा निशा के बाद साहसी नवप्रभात होता है। कोशिश करने वालों की हार नहीं होती, लहरों से डरकर नैया पार नहीं होती। हमें जीवन में होने वाली अच्छी तथा बुरी घटनाओं को पहली दृष्टि में अपने अंदर स्वीकार करना चाहिए। जब किसी घटना को हम स्वीकार कर लेते हैं। तब उसका उचित तथा सर्वमान्य समाधान खोजने में आसानी हो जाती है। ऐसा मानना चाहिए कि शरीर और चिन्तन अलग-अलग है। सोते समय शरीर सो जाता है लेकिन अन्तःकरण में सोचने की प्रक्रिया सपनों में भी जारी रहती है। हम शरीर नहीं वरन् शरीर हमारा पक्का मित्र है। हमें शरीर रूपी मित्र की हमेशा उचित देखभाल रखनी चाहिए। हमें यह शरीर रोजाना मनोयोगपूर्ण प्रयास द्वारा अपने चिन्तन को उच्चतम स्तर पर ले जाने के लिए मिला है।
हमारा जीवन तीन शब्दों, ‘‘जन्म लिया, जीवन जीए और मर गये’’ तक सीमित नहीं है वरन् इसके आगे जीवन का परम उद्देश्य है। हमारा परम उद्देश्य अपने चिन्तन को निरन्तर लोक कल्याणकारी कार्यों द्वारा उच्चतम से उच्चतम बनाना है। कुदरत में प्रत्येक व्यक्ति की खुशी के लिए भरपूर खजाना छिपा है। हम किसी होटल में जाते हैं और हमें जो खाने की चीज अच्छी लगती है उसका रिपीट आर्डर होटल के बेरे को देते हैं। यदि हम दुःख का रिपीट आर्डर देंगे तो दुःख मिलेगा और यदि इसके विपरित खुशी का रिपीट आर्डर देंगे तो खुशी मिलेगी। वर्तमान क्षण में हमें जो दुःख मिला है वह किसी पिछले गलत दुःखी आर्डर देने के कारण ही है। अब हमें होश में आ जाना चाहिए और अपने को हर क्षण खुशी का आर्डर देना चाहिए। खुशी कोई मंजिल नहीं वरन् खुशी स्वयं रास्ता है। खुशी पैसों से नहीं खरीदी जा सकती। दुःख की बीमारी की खुशी स्वयं दवा है। परिवार, विद्यालय तथा समाज में आये दिन हो रही इस तरह की दुखद घटनायें हमें इसका उचित समाधान खोजने के लिए विवश करती है। बच्चों को निर्धारित विषयों की भौतिक शिक्षा के साथ ही साथ सामाजिक तथा मानवीय शिक्षायें भी देकर उसे संतुलित व्यक्ति बनाना परम आवश्यक है। साथ ही पारिवारिक एकता को आज प्राथमिकता देने की भी आवश्यकता है। विद्यालयों को अभिभावक की मीटिंगों में मनोवैज्ञानिकों को बुलाकर उनसे अभिभावकों को बच्चों के संतुलित जीवन के सन्दर्भ में मार्गदर्शन दिलाना चाहिए। बच्चों का शरीर से स्वस्थ होने के साथ ही साथ मन से भी संतुलित होना आवश्यक है।
किसी परिवार में जहाँ एकता है उस परिवार के सभी कार्यकलाप बहुत ही सुन्दर तरीके से चलते हैं, उस परिवार के सभी सदस्य अत्यधिक उन्नति करते हैं। संसार में वे सबसे अधिक समृद्धशाली बनते हैं। ऐसे परिवारों के आपसी सम्बन्ध व्यवस्थित होते हैं, वे सुख-शान्ति का उपभोग करते हैं, वे निर्विघ्न और उनकी स्थितियाँ सुनिश्चित होती है। वे सभी की प्रेरणा के स्रोत बन जाते हैं। ऐसा परिवार दिन-प्रतिदिन अपनी समृद्धि-सुख और अपने अटूट सम्मान में वृद्धि ही करता जाता है। परिवार तथा स्कूल मिलकर बच्चे को जीवन का उद्देश्य बताये। बच्चे अपने जीवन का परम लक्ष्य को जानकर वसुधा को कुटुम्ब बनाये। शिक्षा के परिवर्तन से ही सामाजिक परिवर्तन होगा। बच्चों तुम्हें बदलना है दुनिया को यह मत जाना भूल। शिक्षक को उत्साह से भरपूर होकर रोजाना क्लास रूम में बच्चों को जीवन के लिए तैयार करने के लिए जाये। बच्चों की जिन्दगानी बनाने के लिए सभी को स्कूल की ओर चलना है। स्कूल प्रेयर एसेम्बली प्रिन्सिपल का क्लास रूम होती है। बच्चों को प्रेयर एसेम्बली तथा घर के पूजा स्थल में बताया जाये कि ईश्वर एक है, धर्म एक है तथा मानव जाति एक है। ईश्वर को मानव सेवा में जानना और मानव मात्र से प्यार करना मेरे जीवन का उद्देश्य है!
आज विषम सामाजिक तथा शैक्षिक वातावरण की दशा तथा दिशा को बदलने के लिए सरकारी स्कूल के शिक्षक को कर्मचारी की श्रेणी में न रखकर उसे देश के बच्चों के भाग्य निर्माता की महत्वपूर्ण श्रेणी में रखा जाना चाहिए। उसे पूरे मनोयोग से केवल शिक्षण का सबसे महत्वपूर्ण कार्य करने देना चाहिए। समाज की सभी सम्भव सेवाओं में सर्वश्रेष्ठ सेवा शिक्षक की है। शिक्षक ही बालक के जीवन को विचारों से सींचकर एक अच्छा नागरिक, अच्छा राजनेता, अच्छा समाजसेवी, अच्छा मीडिया कर्मी, अच्छा अभिभावक, अच्छा सैनिक, अच्छा वैज्ञानिक, अच्छा जज, अच्छा वकील, अच्छा डाक्टर, अच्छा व्यवसायी-किसान आदि बनाते हैं। शिक्षक देश सहित सारे विश्व के असली हीरो हैं। शिक्षक को ग्रामीण तथा शहरी प्रत्येक बालक का ‘‘सीखने का स्तर’’ (लर्निंग लेविल) बढ़े इस दायित्व तथा जवाबदेही को हृदय से स्वीकारना होगा। इसे हृदय से स्वीकारने भर से बालक के ‘‘सीखने का स्तर’’ उच्चतर होने की प्रक्रिया स्वतः शुरू हो जायेगी। स्कूल, परिवार तथा मीडिया का एकजूट होकर किया गया प्रयास फूल की तरह प्यारे बच्चों को असमय समाज की आंधी से मुरझाने तथा टूटने नहीं देगा। धरती पर पलने वाले प्रत्येक बालक का जीवन अनमोल है। जैसे एक छोटे से बीज के अन्दर एक बड़ा वट वृक्ष बनने की संभावनायें छिपी होती हैं। उसी तरह एक बालक के अन्दर सारे विश्व को बदल देने की शक्ति छिपी होती है। स्कूल, परिवार तथा मीडिया को एक साथ मिलकर प्रयास करके बालक के जीवन रूपी फूल को समाज रूपी बगिया में पूरी तरह से हमेशा खिले रहने का वातावरण उपलब्ध कराने की आवश्यकता है।