वाजिब हैं यशवंत सिन्हा के सवाल
क्या हमें गम्भीरता और ईमानदारी के साथ इस बात की पड़ताल नहीं करनी चाहिए थी कि ‘द इकोनॉमिस्ट’ द्वारा उठाए गये सवाल कितने तर्कसंगत और प्रासंगिक हैं? अब तो बहुत से परिणाम सामने आ चुके हैं विशेषकर विमुद्रीकरण, जीएसटी और उससे भी पहले के मेक इन इण्डिया, स्टार्ट अप इण्डिया, स्टैंडअप इण्डिया के और हम सभी अपनी आंखों से सरकार की एजेंसियों द्वारा लिखे गये आंकड़े देख चुके हैं। हम देख चुके हैं कि अर्थव्यवस्था की विकास दर कहां पहुंच गयी है, रोजगार की स्थिति क्या है, आईआईपी इंडेक्स कितनी गिरी या उठी है, लेकिन इसके बाद भी यह स्वीकार नहीं किया जा रहा है कि सरकार की नीति या फिर उसका क्रियान्वयन अथवा दोनों गलत थे?
कुछ समय पहले ‘द इकोनॉमिस्ट’ ने ‘द चेंज इंडिया: लाइट्स, कैमरा, इन-एक्शन’ नाम से एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी। पत्रिका ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को विदेश नीति अथवा घरेलू मामलों में गम्भीरता से निपटने की बजाय ‘पॉलिटिकल थियेटर’ में दिलचस्पी लेते हुए दिखाया था। तब प्रधानमंत्री के अनुयायियों ने, जिनमें उनके राजनीतिक कार्यकर्ताओं से लेकर अर्थशास्त्रियों का वह धड़ा भी शामिल था, जिसमें से बहुत से अब या तो उदासीन हो गये हैं या विदेश वापस चले गये हैं और कुछ आलोचना के हथियार का बेअसर प्रयोग कर रहे हैं। सवाल यह उठता है कि क्या लोकतंत्र में भी अब उचित समालोचना या समीक्षा के लिए जगह शेष नहीं रह गयी? क्या विकल्प के रूप में अब सिर्फ एक ही बचा है और वह है तर्क, तथ्य एवं परिणामों को किनारे रखकर सिर्फ यह प्रदर्शित करने में अपनी मेधा खर्च करना कि लोकतंत्र और प्रशंसा एक ही विषय है और देश का चुना हुआ नेता मोनार्क का वही प्रतिरूप बन चुका है जहां वह यह कहने में समर्थ हो कि ‘मैं ही राज्य हूं’। क्या हमें गम्भीरता और ईमानदारी के साथ इस बात की पड़ताल नहीं करनी चाहिए थी कि ‘द इकोनॉमिस्ट’ द्वारा उठाए गये सवाल कितने तर्कसंगत और प्रासंगिक हैं? अब तो बहुत से परिणाम सामने आ चुके हैं विशेषकर विमुद्रीकरण, जीएसटी और उससे भी पहले के मेक इन इण्डिया, स्टार्ट अप इण्डिया, स्टैंडअप इण्डिया के और हम सभी अपनी आंखों से सरकार की एजेंसियों द्वारा लिखे गये आंकड़े देख चुके हैं। हम देख चुके हैं कि अर्थव्यवस्था की विकास दर कहां पहुंच गयी है, रोजगार की स्थिति क्या है, आईआईपी इंडेक्स कितनी गिरी या उठी है, लेकिन इसके बाद भी यह स्वीकार नहीं किया जा रहा है कि सरकार की नीति या फिर उसका क्रियान्वयन अथवा दोनों गलत थे?
नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार ने जो नीतियां बनायीं उससे अर्थव्यवस्था को कितनी पोटैंशियल मिली और प्रतिफल क्या दिखा, आज इस विषय पर एक स्वस्थ बहस की जरूरत है लेकिन ऐसा हो नहीं पाएगा। कारण यह कि अब बहस का प्रत्येक विषय नीति बनाम विकास से हटाकर राष्ट्रवाद बनाम विराष्ट्रवाद पर पहुंचा दिया जाता है और विश्लेषक को एक अध्येयता के खांचे से निकालकर कांग्रेस या कम्युनिष्टों के खांचे में डाल दिया जाता है। यही कारण है कि फुसफुसाहट के बावजूद नीतियों के मूल्यांकन एवं निष्कर्षों को लेकर स्पष्ट आवाज सुनाई नहीं दे रही जबकि अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का आकलन, भारत से रघुराम राजन और पनगढ़िया या अमत्र्यसेन जैसे अर्थविदों का पलायन यह बताता है कि सरकार की नीतियों में बुनियादी खामी है, सरकार के नेतृत्व में अहं की भावना है, नीतियों के केन्द्र में आम भारतीय नहीं बल्कि बाजार के हित एवं कार्पोरेटी फायदे हैं और नीतियों के विषय भारत की जमीनी हकीकत के सापेक्ष नहीं बल्कि कुछ आयातित एवं अनुभवहीन विशेषज्ञों, अधिकारियों व मंत्रियों की मस्तिष्कों की उपज हैं। यही कारण है कि जब भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने ‘आई नीड टू स्पीक अप नाउ’ कहा और एक अंग्रेजी समाचार पत्र में एक लेख के जरिए कुछ सवाल खड़े किए तो सरकार का कोई व्यक्ति बिंदुवार जवाब नहीं दे पाया बल्कि उनके खिलाफ उनके पुत्र जयंत को खड़ा किया गया और व्यक्तिगत हमले किए जाने लगे। इसका सीधा सा अर्थ यही हुआ कि सरकार की नीतियों में बुनियादी खामी है।
यशवंत सिन्हा ने लिखा कि अर्थव्यवस्था में पहले से ही गिरावट आ रही थी, नोटबंदी ने तो सिर्फ आग में घी का काम किया। यद्यपि इस निष्कर्ष से सरकार को इन्कार नहीं करना चाहिए था और मंथन करना चाहिए था कि आखिर खामी कहां-कहां रही, फिर भी ऐसा हुआ नहीं। आंकड़े तो यशवंत सिन्हा का ही समर्थन करते हैं। वर्ष 2013-14 में जीडीपी ग्रोथ दर 6.6 प्रतिशत और 2014-15 में 7.2 प्रतिशत थी जो वर्ष 2015-16 में 7.6 प्रतिशत पर पहुंचकर वर्ष 2016-17 में 7.1 प्रतिशत पर आ गयी और वर्ष 2017 के दूसरे क्वार्टर में 5.7 प्रतिशत पर आ गयी। सच इससे भी अधिक कड़ुवा है अर्थात यदि जीडीपी का आधार वर्ष पुराना ही रहे और इसके आकलन की तकनीक भी पुरानी रहे तो जीडीपी 3.7 प्रतिशत या उससे भी नीचे चली जाएगी। अब तर्क यह नहीं होना चाहिए कि यह सरकार का हक है कि वह आकलन का तरीका बदले या फिर आधार वर्ष को परिवर्तित करे। यह उसका अधिकार है और वह कर सकती है लेकिन ‘कलम की एक हरकत से वह जीडीपी में इजाफा कर’ शाबासी न लूटे, बल्कि सत्य से अवगत भी कराए। खास बात यह है कि यह निष्कर्ष सिर्फ सिन्हा का नहीं है बल्कि एस. गुरुमूर्ति और सुब्रमण्यम स्वामी का भी है।
यशवंत सिन्हा का दूसरा आरोप है कि एग्रीकल्चर-कांस्ट्रक्शन तथा इंडस्ट्री की हालत ठीक नहीं कही जा सकती। हालांकि कृषि क्षेत्र में ग्रोथ हुयी है लेकिन यहां दो पक्षों पर ध्यान देने की जरूरत है। पहला यह कि ग्रोथ यूपीए 2 के काल से कम है और दूसरा यह कि कृषि क्षेत्र में वैल्यू एडीशन के कारण ग्रोथ ऑटोमेटिक ही बढ़ जाती है, यानि बिना सकल उत्पादन के बढ़े हुए ही ग्रोथ बढ़ सकती है। यशवंत सिन्हा ने तीसरा आरोप लगाया है कि पहले नोटबंदी और फिर जीएसटी के कारण सर्विस सेक्टर में धीमा ग्रोथ रेट है। उल्लेखनीय है कि वित्तीय वर्ष 2013-14 में एक्सपोर्ट सेक्टर में ग्रोथ 24.8 प्रतिशत थी जबकि 2015-16 में 17.6 प्रतिशत और अगस्त 2017 में 10.29 प्रतिशत ही रह गयी। नोटबंदी और जीएसटी के बाद मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर की ग्रोथ में भी तीव्र गिरावट आयी है। ध्यान रहे कि जून 2016 में यह 5.3 प्रतिशत थी जो कि सितम्बर 2017 में 1.2 प्रतिशत ही रह गयी। एफडीआई के मामले में जरूर वृद्धि देखने को मिली है क्योंकि वर्ष 2014 में 36 बिलियन डॉलर थी जो 2017 में 60 बिलियन हो गयी। लेकिन यहां पर दो पक्षों को देखने की जरूरत होगी। पहला यह कि 2011 के बाद से यूरोपीय संघ वित्तीय संकट की ओर गया था जिसके कारण अमेरिका सहित तमाम यूरोपीय देश पहले यूरोप को बचाने को वरीयता दे रहे थे और दूसरा यह देखने की जरूरत है कि एफडीआई आई किस क्षेत्र में आया। जहां यह आया है क्या उस क्षेत्र का सम्बंध विनिर्माण, अधिसंरचना और रोजगारों के सृजन से है या नहीं?
भारतीय नेतृत्व डेमोग्राफिक डिविडेंड का सपना संजो भी रहा है और बांट भी रहा है लेकिन यदि ऐसा ही चलता रहा तो डिविडेंड की बजाय डिजास्टर का सामना करना पड़ेगा और इसमें किसी को भी किसी भी प्रकार संशय नहीं होना चाहिए। सच्चाई यह है कि यूपीए का काल जॉबलेश ग्रोथ का था और मोदी का काल भी, बल्कि मोदी सरकार में रोजगार की स्थिति और भी कमजोर हुयी है। जीएसटी के गलत तरीके से लागू किये जाने और उससे पहले नोटबंदी ने लाखों लोगों को बेरोजगार किया है, इसका प्रमाण स्वयं आर्थिक समीक्षा एवं सरकारी आंकड़े दे रहे हैं। सामान्य आकलन के हिसाब से मार्च 2014 में सभी सेक्टर्स में 3.29 लाख लोगों को रोजगार मिला था वहीं अगस्त 2017 में इसके आधे से भी कम को रोजगार मिल पाया। नोटबंदी जैसे बदलाव ने लगभग 8 सेक्टरों से नौकरियां छीन लीं, विशेषकर मैन्यूफैक्चरिंग, मोटर वेहिकल एण्ड पाट्र्स, फैब्रिकेटेड मेटल प्रोडक्ट्स, कम्प्यूटर एंड इलेक्ट्रॉनिक, बिजनेस एण्ड प्रोफेशनल सर्विस, एजुकेशन एंड हेल्थ, माइनिंग और कांस्ट्रक्शन सेक्टर से। यद्यपि हम वह नहीं कह सकते जो अरुण शौरी ने कहा है कि लेकिन सच तो यह है कि विमुद्रीकरण करते समय सरकार ने इस बात का आकलन ही नहीं किया कि देश की 86.4 प्रतिशत नकदी को सोख लेने का असर कहां-कहां और किस तरह से पड़ेगा। उसने इस बात का आकलन भी नहीं किया कि भारत का नकदी आधारित बाजार कितना बड़ा है और उसे एकाएक मुद्राविहीन करने का परिणाम क्या होगा? उसने इस बात का आकलन भी नहीं किया कि भारत का ग्रामीण एवं कस्बाई बाजार कितना बड़ा है विशेषकर विनिर्माण और सेवा की मांग के लिए। उसने इस बात का भी अध्ययन नहीं किया कि मध्यम वर्ग विमुद्रीकरण के तुगलकी निर्णय के नीचे किस तरह से पिसेगा और किस तरह से यह शहरी औद्योगिक अर्थव्यवस्था कोे ग्रामीण कृषि-कुटीर अर्थव्यवस्था से जोड़ने सेतु की भूमिका में कमजोर पड़ जाएगा। इसे देखते हुए कभी-कभी यह विचार तो आता ही है कि अरुण शौरी इसे लेकर जो सवाल खड़े कर रहे हैं, वह सही है। किसानों और कृषि को विमुद्रीकरण का निर्णय किस कदर प्रभावित करेगा, यह भी देखने की कोशिश नहीं की गयी। रही बात इण्डस्ट्री की तो फर्टिलाइजर्स इंडस्ट्री की ग्रोथ रेट पिछले वित्त वर्ष के मुकाबले गिरी है, कोयला इण्डस्ट्री गिरी है, क्रूड ऑयल इण्डस्ट्री की ग्रोथ -3.2 प्रतिशत रही है और नेचुरल गैस इण्डस्ट्री की -3.3 प्रतिशत।
सरकार अब तक सही तरीके से अपना आकलन नहीं कर रही है और सच को स्वीकार करने का साहस नहीं जुटा पा रही है। चूंकि आंशिक रूप से स्वीकार कर पा रही है इसलिए अल्पकालिक उपायों को अपना रही है। हालांकि अल्पकालिक उपाय सफल हो सकते हैं लेकिन शर्त यह है कि इससे मांग पैदा हो और निजी क्षेत्र सक्रिय हो जाएं परन्तु इसके अपने जोखिम हैं। इसे देखते हुए रिजर्व बैंक मुद्रास्फीति को लेकर सशंकित हो सकता है और अगर ऐसा हुआ तो मौद्रिक नीति को और कठोर कर देगा। यदि ब्याज दरें बढ़ीं तो निजी क्षेत्र की गतिविधियां ठप पड़ सकती हैं। यानि अल्पावधि हल विसंगतियों को जन्म दे सकता है और सरकार ऐसा ही कुछ करती जा रही है। अमेरिकी फेड रिजर्व में बदलाव की सम्भावना है। हो सकता है कि वह अपने बांड खरीद कार्यक्रम को बंद करे, ऐसे में भारत जैसे देश के लिए राजकोषीय स्थिति के सामने एक और चुनौती पेश हो जाएगी। इसका मतलब तो यही हुआ कि राजकोष दबाव में है, नोटबंदी ने सामाजिक चरित्र को सुधारने की बजाय विकृत करने का कार्य तो किया ही है साथ ही गरीब को और गरीब बना दिया जबकि मध्यम वर्ग को गरीब जबकि जीएसटी ने अनिश्चितता का वातावरण निर्मित कर दिया है।