श्रीनगर का अस्तित्व कहे जाने वाली ‘डल झील’ तिल-तिल कर मर रही है
धरती का स्वर्ग कहलाने वाले श्रीनगर की फिजा बारूद की गंध से हताश है और शहर का ‘अस्तित्व’ कहे जाने वाली डल झील तिल-तिल कर मर रही है। यह झील इंसानों के साथ-साथ लाखों जलचरों, परिंदों का घर हुआ करती थी, झील से हजारों हाथों को काम व लाखों पेट को रोटी मिलती थी, अपने जीवन की थकान, हताशा और एकाकीपन को दूर करने देशभर के लाखों लोग इसके दीदार को आते थे। अब यह बदबूदार नाबदान और शहर के लिए मौत के जीवाणु पैदा करने का जरिया बन गई है। सरकार का दावा है कि वह डल को बचाने के लिए कृतसंकल्पित है, लेकिन साल-दर-साल सिकुड़ती झील इसे कागजी शेर की दहाड़ निरूपित करती है। एक मोटा अनुमान है कि अभी तक इस झील को बचाने के नाम पर कोई एक हजार करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं।
होता यह है कि इसको बचाने की अधिकांश योजनाएं ऊपरी कॉस्मेटिक या सौंदर्य की होती हैं-जैसे एलईडी लाइट लगाना, फुटपाथ को नया बनाना आदि, लेकिन इन सबसे इस अनूठी जल-निधि के नैसर्गिक स्वरूप को अक्षुण्ण रखने की दिशा में कोई लाभ नहीं होता, उल्टे इस तरह के निर्माण कार्य का मलवा-अवशेष झील को गंदा जरूर करता है। लगता है इसकी अंदरूनी सेहत की परवाह किसी को नहीं है। इन दिनों राज्य शासन ने कोई 200 नाविकों को रोजगार पर लगा रखा है। वे दिनभर अपनी नाव से झील के चक्कर लगाते हैं और यदि कोई कूड़ा-मलवा तैरता दिखता है तो उसे जाली से निकाल कर नाव में एकत्र कर लेते हैं और बाद में इसे फेंक देते हैं। एकबारगी तो यह बहुत सुखद योजना लगती है, लेकिन हकीकत में नाविकों की भर्ती, उनको दिया जाने वाला पैसा, उनकी वास्तविक उपस्थिति, उनके द्वारा निकाले गए कूड़े का माकूल निस्तारण आदि अपने आप में एक बड़ा भ्रष्टाचार है।
श्रीनगर शहर में स्थित 17 किलोमीटर क्षेत्र में फैली डल झील तीन तरफ से पहाड़ों से घिरी है। इसमें चार जलाशयों का जल आकर मिलता है-गगरी बल, लोकुट डी, बोड डल और नागिन। दुर्भाग्य से ये चारों ही जल ग्रहण क्षेत्र प्रदूषण के शिकार हैं और ये अपने साथ गंदगी लाकर डल का रोग दोगुना करते हैं। वनस्पतियां डल की खूबसूरती को चार चांद लगाती हैं। कमल के फूल, पानी में बहती कुमुदनी झील का नयनाभिराम दृश्य प्रस्तुत करती हैं, लेकिन इस जल निधि में व्यावसायिक दृष्टि से होने लगी निरंकुश खेती ने इसके पानी में रासायनिक खादों व कीटनाशकों की मात्र जहर की हद तक बढ़ा दी है। इस झील का प्रमुख आकर्षण यहां के तैरते हुए बगीचे हैं। यहीं मुगलों द्वारा बनवाए गए पुष्प वाटिका की सुंदरता देखते ही बनती है।
यहां आने वाले पर्यटक शिकारे पर सवार होकर झील के तट पर बने विश्वविद्यालय, नेहरू पार्क, हजरत बल आदि का लुत्फ उठाते हैं। कहा जा सकता है कि हाउस बोट या शिकारे डल की सांस्कृतिक पहचान तो हैं ही, यहां के हजारों लोगों की रोजी-रोटी का साधन भी हैं। विडंबना है कि यही शिकारे और हाउस बोट अपने आधार डल केलिए संकट का कारक बन गए हैं। एक जनहित याचिका पर जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एमएम कुमार और जस्टिस हसनैन मसूदी ने 30 अक्टूबर, 2012 को आदेश दिए थे कि डल में स्थित 320 से अधिक हाउस बोटों को झील के पश्चिमी छोर पर भेज दिया जाए। उन्होंने डल का जीवन बचाने के लिए झील में रहने वालों के पुनर्वास तथा दो सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाने और डल की 275 कनाल भूमि पर से अवैध कब्जा हटाने के भी आदेश दिए थे। इसके साथ ही झील के किनारे वाहनों को धोने पर पाबंदी भी लगाई गई थी। दुर्भाग्य है कि इन सभी का पालन सरकारी महकमे आधे-अधूरे मन से ही करते रहे और आज भी हालात जस के तस ही हैं।1इन दिनों सारी दुनिया में ग्लोबल वार्मिग का हल्ला है और लोग इससे बेखबर हैं कि इसकी मार डल पर भी पड़ने वाली है। यदि डल का सिकुड़ना ऐसे ही जारी रहा तो इस झील का अस्तित्व बामुश्किल अगले 350 सालों तक ही बचा रहा पाएगा। यह बात रुड़की यूनिवर्सिटी के वैकल्पिक जल-ऊर्जा केंद्र द्वारा डल झील के संरक्षण और प्रबंधन के लिए तैयार एक विस्तृत प्रोजेक्ट रिपोर्ट में कही गई है। डल झील के लिए सबसे बड़ा खतरा उसके जल-क्षेत्र को निगल रही आबादी से है।