कौन हैं भगवान महावीर और कैसी हैं उनकी शिक्षा
अवसाद दूर करता है महावीर का अध्यात्म
आज हम सभी अपने-अपने लक्ष्य तो प्राप्त करने में जुटे हुए हैं, लेकिन हम तनाव या अवसाद जैसी समस्याओं से बड़ी जल्दी घिर भी जाते हैं। यदि महावीर के उपदेशों का अनुसरण किया जाए, तो इन समस्याओं को स्वयं से दूर भगाया जा सकता है। लगभग छह सौ वर्ष ईसा पूर्व भगवान महावीर का जन्म चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन वैशाली नगर में राजा सिद्धार्थ तथा रानी त्रिशला के यहां बालक वर्धमान के रूप में हुआ। भगवान महावीर ने अध्यात्म को सर्वोपरि बताया तथा उस समय मौजूद सभी चिंतन धारा को एक नई दिशा दी। उन्होंने अपनी साधना के बल पर कुछ ऐसे नवीन अनुसंधान किए, जिन्हें यदि स्वीकार कर लिया जाए तो मनुष्य अवसाद में जा ही नहीं सकता है।
अनेकांत का सिद्धांत
भगवान महावीर ने वस्तु को अनेकांतात्मक बताया। इसके अनुसार, जिस तरह किसी एक विचार के कई पहलू होते हैं, उसी तरह एक ही वस्तु के कई गुण हो सकते हैं। निराशावादी और हठधर्मी लोग प्रत्येक वस्तु, घटना या परिस्थिति को सिर्फ अपने नजरिए से देखते हैं। दूसरों के विचारों या नजरिए को विरोध भाव से देखते हैं। यदि इसे व्यावहारिक रूप में समझ लिया जाए, तो कभी दिक्कत नहीं होगी। विरोधी दिखने वाले विचार को भी वे स्वीकार करने लगेंगे। यह स्वीकारोक्ति ही व्यक्ति को आधे से अधिक तनावों से मुक्त कर देती है।
अहिंसा और अपरिग्रह का सिद्धांत
मन-वचन-कर्म से किसी जीव को दुखी करना या उसके प्राणों का हरण कर लेना ही मुख्य रूप से हिंसा है। यदि मन में लगातार हिंसा के विचार आ रहे हैं, तो व्यक्ति तनावग्रस्त हो जाता है। अहिंसा का भाव मन को शांत रखता है। भगवान महावीर ने माना कि दुखों का मूल कारण परिग्रह भी है। आसक्ति को परिग्रह कहा गया है। आवश्यकता से ज्यादा अचेतन पदार्थों का संग्रह मनुष्य को तनाव में डाल देता है। जो मनुष्य जितना कम परिग्रह रखता है उतना ही तनावमुक्त रहता है। यदि किसी व्यक्ति को किसी पदार्थ के प्रति अधिक आसक्ति है, तो उस पदार्थ का वियोग होने पर वह दुखी होता है।
कर्म का सिद्धांत
जैन दर्शन के अनुसार समय आने पर सभी जीव अपने कर्मों का फल अनुकूल या प्रतिकूल रूप में भोगते हैं। व्यक्ति अपने कर्मो के लिए स्वयं उत्तरदायी होता है। सुख और दुख स्वयं के कर्मो का फल है। दूसरे लोग मुझे सुख या दुख देते हैं, ऐसे विचार तत्वज्ञान से शून्य व्यक्ति ही करते हैं। इससे जीवन में दूसरों को दोष देने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगता है। उन्हें यह बात समझ में आ जाती है कि दूसरे लोग निमित्त मात्र हैं। ऐसा चिंतन करने से मनुष्य व्यर्थ ही तनावग्रस्त नहीं होता है।
सर्वज्ञता का सिद्धांत
जैन दर्शन सर्वज्ञता के सिद्धांत को मानता है। सर्वज्ञ पर विश्वास करने वाला कभी तनावग्रस्त नहीं हो सकता है। तत्वज्ञानी सम्यकदृष्टि रखते हैं और किसी भी घटना, परिस्थिति को लेकर आश्चर्यचकित या दुखी नहीं होते हैं। जैन दर्शन अकर्तावादी दर्शन है। इसके अनुसार जो कोई भी कर्ता है वह अपने स्वभाव का ही कर्ता है, परभाव का नहीं। परभाव का न कर्ता है और न भोक्ता। अकर्तावाद मनुष्य की पराश्रय बुद्धि में सुधार करता है तथा दूसरा मेरा कुछ भला या बुरा कर सकता है, यह मिथ्या मान्यता दूर हो जाती है। फलस्वरूप व्यर्थ के तनाव – अवसाद से मनुष्य दूर रहता है।
वैज्ञानिक तर्क हैं उनके ज्ञान में
इनके अलावा भगवान महावीर ने चित्त की निर्मलता व एकाग्रता को बढ़ाने के लिए अनेक उपायों की चर्चा की है। सस्वर पूजन, पाठ, भक्ति, स्वाध्याय, मंत्रजाप व सामायिक ध्यान-योग आदि प्रमुख रूप से एकाग्रता बढ़ाने में सहायक होते हैं। अनेक वैज्ञानिक अध्ययनों से यह बात सिद्ध हो चुकी है कि प्रात: नित्य कर्म से निवृत्त होकर किए जाने वाले सस्वर देव पूजन-भक्ति, स्तुति पाठ शरीर में कोलेस्ट्रोल व हानिकारक द्रव्यों की मात्रा में कमी करते हैं। इन क्रियाओं के माध्यम से शरीर में कषायों को बढ़ाने वाले हानिकारक हारमोंस का स्त्राव बंद हो जाता है तथा फेफड़े, हृदय व पाचन तंत्र की क्रियाशीलता में वृद्धि कर हानिकारक तत्वों को शरीर से बाहर निकलने में मदद करता है। इसी प्रकार स्वाध्याय से अर्जित ज्ञान तनाव मुक्ति के लिए उत्कृष्ट समाधान प्रस्तुत करता है तथा तनाव रहित जीवन की कला सिखाता है।