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2014-15 से अब तक 7.196 करोड़ शौचालय बनाने का दावा, मोदी सरकार की बड़ी उपलब्धि

नई दिल्ली : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत अक्टूबर 2014 में की थी। यह इस बात का संकेत था कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार किस तरह अपनी सामाजिक योजनाओं को महत्त्वाकांक्षी लक्ष्यों के साथ अत्यंत बड़े पैमाने पर शुरू करने और क्रियान्वित करने का इरादा रखती है। मिशन के दो हिस्से हैं शहरी और ग्रामीण।
जब इसकी शुरुआत हुई तो केवल 38.70 फीसदी घरों में शौचालय थे। सरकार का दावा है कि अब इनकी तादाद बढ़कर 83.71 फीसदी घरों तक हो गई है। वर्ष 2014-15 से अब तक 7.196 करोड़ शौचालय बनाने का दावा किया गया है। यह बहुत बड़ी उपलब्धि है। रोचक बात यह है कि सरकार ने यह लक्ष्य तयशुदा के मुकाबले बहुत कम फंड के साथ हासिल कर लिया है। विश्व बैंक से ऋण लेने के बाद सरकार ने अनुमान लगाया था कि गांवों में शौचालय बनाने के लिए 22 अरब डॉलर की राशि चाहिए जो करीब 1,474 अरब रुपये बैठती है। वर्ष 2017-18 तक सरकार ने केवल 370 अरब रुपये व्यय किए हैं, जबकि वर्ष 2018-19 के लिए 154 अरब रुपये का आवंटन है। यानी कुल अनुमानित व्यय का बामुश्किल आधा। पहले आई रिपोर्ट में इन लक्ष्यों को हासिल करने के प्रति संदेह जताया गया था, क्योंकि सरकार द्वारा निर्धारित सब्सिडी तयशुदा स्तर पर बरकरार रही। परंतु केवल पैसा ही एकमात्र चुनौती नहीं है। बल्कि, लक्ष्य आधारित रुख के चलते आलोचकों ने चुनौती दी कि आगे चलकर वही समस्या सामने आ सकती है जो ऐसी अन्य योजनाओं में आती है। यानी शौचालयों का इस्तेमाल न होना और ढहना। सरकार ने मार्च 2018 में अपने आंकड़ों का पहली बार स्वतंत्र प्रमाणन किया। सरकार ने दावा किया कि आंकड़ों के मुताबिक 77 फीसदी परिवारों की शौचालय तक पहुंच थी और इनमें से 93.4 फीसदी लोग शौचालयों का इस्तेमाल कर रहे थे। यह अध्ययन 6,136 गांवों में प्रत्येक के 15 घरों के नमूने पर आधारित था। वर्ष 2016 में सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के किंबरली एम नोरोन्हा और शुभगत दासगुप्ता ने ऐसे नमूना आधारित अध्ययनों की कमियों पर शोध किया था ताकि शौचालयों के इस्तेमाल की उचित जानकारी सामने आ सके। अपने अध्ययन में उन्होंने कहा था, ‘सर्वेक्षण के उपाय शौचालयों की मौजूदगी का आकलन करते हैं, न कि उनके इस्तेमाल और इसके पीछे के कारण का। जो शौचालय बने भी थे, उनमें भी 36 फीसदी को सर्वेक्षण में शामिल घरों के लोग ही इस्तेमाल करने लायक नहीं मानते थे। ग्रामीण विकास पर संसद की स्थायी समिति जो इस कार्यक्रम की समीक्षा कर रही है, उसने भी बने हुए शौचालयों के इस्तेमाल के लिए बुनियादी ढांचे और संसाधनों की उपलब्धता को लेकर चिंता जताई। घरों में बनने वाले शौचालय राजग सरकार द्वारा उठाई गई व्यापक चुनौती का केवल एक हिस्सा है। समूचे देश में जलापूर्ति के साथ-साथ तरल और ठोस कचरे के प्रबंधन की सुविधा तैयार करना खासा जटिल काम है और सरकार को इससे निपटने के लिए मौजूदा की तुलना में कहीं अधिक प्रभावी तरीके अपनाने होंगे। सबसे बढ़कर यह व्यवहारगत बदलाव की चुनौती है जिसमें आसानी से तब्दीली नहीं लाई जा सकती। केंद्र सरकार अपने बजट का तीन फीसदी हिस्सा शिक्षा और पहुंच बनाने पर व्यय करती है। वह राज्यों से इससे अधिक की अपेक्षा रखती है। जाहिर है यह किसी मंत्रालय या कार्यक्रम के बस की बात नहीं है कि वह उन लोगों के सामाजिक नजरिये को बदले जो मानव मल के निस्तारण को अभी भी निचली जातियों से जोड़कर देखते हैं। जब तक राजनीतिक नेतृत्व सामने नहीं आता है तब तक यह नहीं होगा।

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