दस्तक-विशेषराजनीतिराष्ट्रीयसंपादकीय

मेरी कलम से…

रामकुमार सिंह

भारतीय राजनीति में पहली बार जिस तरह भाजपा अपने करिश्माई नेतृत्व नरेंद्र मोदी के साथ भरपूर बहुमत में आई। जिसके बाद भारतीय राजनीति में विपक्ष नगण्य प्रतीत होने लगा था। किंतु नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता जितनी तेजी से बढ़ी थी देश के कुछ राज्यों के चुनावों और उपचुनावों के परिणामों ने उनकी लोकप्रियता में सेंध लगाने के संकेत दे दिए हैं। जो विपक्ष अभी तक नरेंद्र मोदी की काट ढूंढने में अपने को असमर्थ्य पा रहा था वही विपक्ष अब एकजुट होकर नरेंद्र मोदी से मोर्चा लेने को तैयार है। विपक्षियों में अभी तक एकजुट होने में जो हिचकिचाहट थी व भारतीय राजनीति में वर्तमान समय को मोदी काल माना जा रहा था। मोदी की अपराजित छवि को इन उपचुनावों ने कमजोर किया है। जिसके परिणामस्वरूप विपक्ष लामबंद होकर आत्मविश्वास से लबरेज है। खासकर उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के मुखिया बहन मायावती और अखिलेश यादव के गठबंधन को जो राजनीतिक विश्लेषक गंभीरता से नहीं ले रहे थे उनको गोरखपुर, फूलपुर उपचुनावों के बाद कैराना के चुनावी परिणामों ने एक साथ एकत्रित होकर भाजपा के खिलाफ बिगुल फूंकने का सुनहरा अवसर प्रदान कर दिया है। सपा-बसपा गठबंधन को भविष्य की राजनीति में एक साथ चलने का मार्ग भी प्रशस्त हो गया है। सियासी गलियारों में अक्सर इस गठबंधन को लेकर यह चर्चाएं होती थीं कि सीबीआई के दबाव में यह गठबंधन कभी भी तार-तार हो जाएगा। लेकिन जिस तरह से मायावती ने अपने भाई आनंद को पार्टी के पदाच्युत किया उससे यह साफ संकेत निकलकर आता है कि मायावती और अखिलेश अब भाजपा से दो-दो हाथ करने को कमर कस चुके हैं।
उधर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय नागपुर में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के मंच साझा करने के नए निहितार्थ तलाशे जा रहे हैं। प्रणब मुखर्जी के संघ के मंच पर उपस्थित होने से पहले ही कांग्रेस और वामपंथी दलों ने इसकी कड़ी आलोचना की थी। किंतु राजनीति में अपनी स्वच्छ और निष्पक्ष छवि के लिए जाने जाने वाले प्रणब दा ने अपने भाषण से सभी का मुंह बंद कर दिया और साथ ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिसको तथाकथित सेक्युलरवादी राजनीतिक दलों ने सांप्रदायिक घोषित कर रखा था प्रणब मुखर्जी के सधे हुए भाषण ने राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखते हुए राजनीति में अपना योगदान देने वाले दलों को यह साफ संकेत दे दिया कि भविष्य की राजनीति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की उपयोगिता और सार्थकता सर्वमान्यता प्राप्त करेगी। प्रणब मुखर्जी जैसे बड़े राष्ट्रीय नेता का अपने राजनीतिक दल की विचारधारा के विपरीत विचारधारा वाले संगठन को मार्गदर्शित करना और संघ के प्रमुख मोहन भागवत का उनकी नसीहतों का अनुसरण करने का सकारात्मक दृष्टिकोण यह दिखाता है कि भविष्य की राजनीति में विपक्षियों के एक साथ एकत्रित होने की काट के तौर पर कोई बड़ी राजनीतिक बिसात की चौसर बिछा दी गई है। देखना यह होगा कि 2019 से पहले यह किस रूप में सामने आता है।

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