उपनिषद् पूर्वाग्रह मुक्त हैं। इनमें पहले से बने बनाए विचारों का गहन विवेचन है। अंधविश्वासी कर्मकाण्ड का विरोध है। ये जिज्ञासा के जन्म और दर्शन के आदि स्रोत का साक्ष्य है। विश्वदर्शन के जन्म की मुख्य भूमि भारत है। उपनिषद् मंत्र इसके भौतिक साक्ष्य हैं।
पदार्थ ज्ञान प्रत्यक्ष है तो भी पदार्थ जगत् का बहुत कुछ जानकारी से बाहर है। लेकिन अनुभूति व्यक्तिगत है। अनुभूत ज्ञान अनंत है। अनंत की प्रीति वैदिक ऋषियों-पूर्वजों की जीवनशैली है। वे संसार, धर्म या अधर्म तक ही विचार नहीं करते। वे धर्म और अधर्म, दिक् और काल के पार विस्तृत ज्ञान के प्रति गहन जिज्ञासु हैं। भारतीय उपनिषद् साहित्य में इकाई से अनंत की प्रीति है। इकाई और अनंत के सम्बंध जानने के प्रयास हैं। उपनिषद् प्रबुद्ध आचार्य और गहन जिज्ञासु शिष्य के बीच घटित प्रश्नोत्तर हैं। प्रश्नों में प्रत्यक्ष संसार के विषय हैं लेकिन ज्ञान का ज्ञान जानने की जिज्ञासा भी है। भारतीय दर्शन के मूल स्रोत हैं उपनिषद्। इसलिए दुनिया के अधिकांश दर्शनशास्त्री उपनिषदों की ओर आकर्षित हुए थे। तिलक और राधाकृष्णन् बाद के हैं। विवेकानंद ने उपनिषद् ज्ञान का डंका समूचे विश्व में बजाया था। इतिहास के मध्यकाल में शाहजहां का पुत्र दारा शिकोह भी उपनिषद् ज्ञान के प्रति गहन जिज्ञासु था।
पंडित जवाहर लाल नेहरू बहुपठित थे। आधुनिकतावादी थे। उपनिषद् प्रेम से वे भी मुक्त नहीं थे। “डिस्कवरी आॅफ इण्डिया” के हिन्दी अनुवाद “हिन्दुस्तान की कहानी” (पृष्ठ 100) में उपनिषद् शीर्षक का एक अध्याय है। लिखते हैं, “उपनिषद् का समय ईसा से 800 वर्ष पहले से लेकर है। वे हमे भारतीय आर्यो के विचार के विकास में एक कदम आगे ले जाते हैं और यह बड़ा लम्बा कदम है।” नेहरू जी भी यूरोपीय विद्वानों की तरह पूर्वज आर्यो को विदेशी मानते थे। आगे लिखते हैं “आर्य लोगों को बसे हुए अब काफी लम्बा समय बीत चुका है और एक मजबूत खुशहाल सभ्यता जिसमें नए पुराने का मेल हो चुका है। बन गई है, इसमें आर्यो के विचार और आदर्श प्रभाव रखते हैं।” (वही पृष्ठ 100) पंडित जी उपनिषद् तत्व की सीधे स्वीकार करने में संकोची हैं। इसके दो कारण हो सकते हैं। पहला कारण उनकी राजनैतिक विचारधारा हो सकती है और दूसरा कारण स्वयं को अति आधुनिक रूप में प्रस्तुत करने का लोभ। लेकिन मैं उनके अन्तर्मन का आदर करता हूं।
उपनिषद् दर्शन का प्रभाव सर्वविदित था। इसे स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं थी लेकिन पंडित जी की संकोची वृत्ति के दर्शन आगे भी होते हैं। वे आगे लिखते हैं, “जिन प्रश्नो पर उपनिषदों में विचार किया गया है। उनके आधिभौतिक पहलुओं को समझना मेरे लिए कठिन है लेकिन इन प्रश्नों पर गौर करने का जो ढंग है उसने मुझ पर असर डाला है। यह हठवाद या अंधविश्वास का ढंग नहीं है। यह ढंग मजहबी न होकर दार्शनिक (फिलसिफियाना) है।” पंडित जी के अनुसार उपनिषद् विचारशैली मजहबी नहीं है। हठवादी अंधविश्वासी भी नहीं है। प्रश्न है कि तो भी उनके अनुसार इनके आधिभौतिक (मेटा फिजिकल) विषय को समझने में कठिनाई क्या है?
उपनिषद् साहित्य और उनकी अन्र्तवस्तु पर दुनिया के अतिविशिष्ट विद्वानों की टिप्पणियां ध्यान देने योग्य हैं प्रोफेसर एफ डब्लू टामस अपनी किताब ‘दि लीगेसी आॅव इंडिया’ में कहते हैं – “उपनिषदों का विशेष गुण निष्कपट होना है। इसीलिए उनमें मानवीय आकर्षण है, वह यह है कि उनमें निश्च्छलता है। वह इस विशेष तरह की है, मानो मित्र आपस में किसी गहरे विषय पर सोच-विचार कर रहे हैं।” चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य उनके बारे में इसी तरह उत्साह के साथ कहते हैं – “प्रशस्त कल्पना विचारों की शानदार उड़ान, जांच-पड़ताल की बेधड़क भावना, जिसके पीछे सच्चाई तक पहुंचने की गहरी प्यास है – इनसे प्रेरित होकर उपनिषदों में गुरू और शिष्य विश्व के ‘खुले हुए रहस्य में पैठते हैं, और यह बात दुनिया की इन सबसे पुरानी पवित्र पुस्तकों को सबसे आधुनिक और संतोष देने वाली बना देती है।” यहां आचार्य और विद्यार्र्थी सृष्टि रहस्यों की गहराई में पैठते हैं। पं. नेहरू के अनुसार उपनिषदों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनमें सच्चाई पर बड़ा जोर दिया गया है। लिखते हैं, “सच्चाई की सदा जीत होती है, झूठ की नहीं। सच्चाई के रास्ते से ही हम परमात्मा तक पहुंच सकते हैं।” उपनिषदों में आई हुई यह प्रार्थना मशहूर है “असत् से मुझे सत् की तरफ ले चल। अंधकार से मुझे प्रकाश की तरफ ले चल। मृत्यु से मुझे अमरत्व की तरफ ले चल।” नेहरू जी को उपनिषद् की स्तुतियां आकर्षक लगती हैं।” कहते हैं, “हमें बार-बार एक बेचैन दिमाग की झांकी मिलती है, ऐसी दिमाग की, जो जिज्ञासा और छानबीन में लगा हुआ है – “किसकी आज्ञा से मन अपने विषय पर उतरता है? किसकी आज्ञा से जीवन, जो सबसे पहली चीज है, आगे बढ़ता है? किसकी आज्ञा से मनुष्य ये वचन कहते हैं? किस देवता ने आंख और कान दिये हैं?” और फिर “वायु शांत क्यों नहीं रहती? आदमी के मन को चैन क्यों नहीं मिलता? क्यों और किसकी खोज में जल बहता रहता है और एक क्षण नहीं ठहरता?” आदमी बराबर एक साहस पूर्ण यात्रा में लगा हुआ है, उसके लिए न कहीं दम लेना है और न उसकी यात्रा का अंत है। ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ में हमारी इस अनंत यात्रा के बारे में एक मंत्र है और इसके हर श्लोक के आखीर में है – “चरैवेति, चरैवेति” – “हे यात्री, इसलिए चलते रहो, चलते रहो।” यहां नेहरू जी सजग भाव विभोर जान पड़ते हैं।
शोपेनहार ने उपनिषदों के ज्ञान पर आश्चर्यजनक टिप्पणी की थी। “उपनिषदों के हर एक शब्द से गहरे, मौलिक और ऊंचे विचार उठते हैं। इन सब पर एक ऊंची पवित्र और उत्सुक भावना छाई हुई है …. सारे संसार में कोई ऐसी रचना नहीं जिसका पढ़ना … इतना उपयोगी, इतना ऊंचा उठाने वाला हो, जितना उपनिषदों का …. (ये) सबसे ऊंचे ज्ञान की उपज है … एक-न-एक दिन सारी दुनिया का इन पर विश्वास होकर रहेगा।” वह लिखते हैं – “उपनिषदों के पढ़ने से मेरी जिंदगी को शांति मिली है, यही मेरी मौत के समय की शांति बनेगी।” शापेनहावर प्रतिष्ठित विद्वान थे। उनकी टिप्पणी पर मैक्समूलर की टिप्पणी है – “शोपेनहार ऐसे आदमी नहीं थे कि बहकी हुई बाते लिखे, या तथाकथित रहस्यवादी या अधकचरे विचारों पर वाह-वाह करने लगे। यह कहते हुए न मुझे शर्म या डर मालूम पड़ता है कि वेदांत के बारे में उनका जो उत्साह था, उसमें मैं सम्मिलित हूं। अपनी जिंदगी में बहुत-कुछ मुझे इससे मदद मिली है और मैं इसका ऋणी हूं।” वेदांत भारत का अद्वैत दर्शन है। शापेनहावर उससे प्रभावित थे। इस दर्शन का जीवन में उपयोग था। मैक्समूलर स्वयं बहुप्रतिष्ठित वैदिक विद्वान थे। वेदांत उन्हें भी प्रिय था।
भारतीय वेदान्त ने सारी दुनिया को प्रभावित किया था। वेदांत का मुख्य स्रोत उपनिषद् थे। उपनिषद् में प्रयुक्त तत्व जिज्ञासा को समेटकर ब्रह्मसूत्र रचा गया था। ब्रह्मसूत्र वेदांत का मुख्य ग्रंथ हैं। मैक्समूलर लिखते हैं – “उपनिषद् वेदांत का स्रोत है। जिसमें मानवीय सोच-विचार अपनी चोटी पर पहुंच गया जान पड़ता है।” “मेरी सबसे खुशी की घड़ियां वेदांत की किताबों के पढ़ने में बीतती हैं। मेरे लिए वे सवेरे की रोशनी और पहाड़ो की साफ हवा-जैसी है-एक बार समझ में आ जाने पर उनमें कितनी सादगी, कितनी सचाई मिलती है।” भगवद्गीता उपनिषद् दर्शन का मधु है। भगवद्गीता की प्रशंसा मुक्तकंठ से आयरिश कवि एई (जीडब्ल्यू रसेल) ने की है – “इस जमाने के लोगों में, गेटे, वर्डसूवर्थ, इमर्सन और थोरो में यह ज्ञान और जीवनी शक्ति कुछ अंशो में मिलेगी, लेकिन जो कुछ भी इन्होंने कहा है और उससे बहुत जयादा, हमें पूरब के महान और पवित्र ग्रंथों में मिलेगा। भगवद्गीता और उपनिषदों में सभी बातों के बारे में ज्ञान की ऐसी दिव्य पूर्णता मिलती है कि मुझे ख्याल होता है कि उनके रचने वालों ने हजारों भाव भरे पुराने जन्मों में पैठकर ही, उन जन्मों, जिनमें छाया के लिए और छाया के साथ संघर्ष होता रहा है – इतने अधिकार के साथ उन बातों को लिखा है, जिन्हें आत्मा निश्चित समझती है।”
हृदयनारायण दीक्षित, (रविवार पर विशेष)