जानिए युधिष्ठिर ने स्वर्ग को छोड़कर भाइयों और द्रौपदी के साथ नर्क में क्यों रहना चाहा था
धर्मराज युधिष्ठिर सत्यवादी, धर्ममूर्ति, सरल, विनयी, मद-मान-मोहवर्जित, दंभ-काम-क्रोध रहित, दयालु, गो-ब्राह्मण प्रतिपालक, महान विद्वान, ज्ञानी, धैर्यसम्पन्न, क्षमाशील, तपस्वी, प्रजावत्सल, मातृ-पितृ-गुरुभक्त और श्रीकृष्ण भगवान के परम भक्त थे।
धर्म के अंश से उत्पन्न होने के कारण वह धर्म के गूढ़ तत्व को खूब समझते थे। धर्म और सत्य की सूक्ष्मतर भावनाओं का यदि पांडवों में किसी के अंदर पूरा विकास था, तो वह पांडवों में सबसे बड़े धर्मराज युधिष्ठिर में ही था। सत्य और क्षमा तो इनके सहजात सद्गुण थे। बड़े से बड़े विकट प्रसंगों में इन्होंने सत्य और क्षमा को खूब निभाया। द्रौपदी का वस्त्र उतर रहा था।
भीम-अर्जुन सरीखे योद्धा भाई इशारा पाते ही सारे कुरुकुल का नाश करने को तैयार थे।
भीम वाक्य प्रहार करते हुए भी बड़े भाई के संकोच से मन मसोस रहे थे
परंतु धर्मराज धर्म के लिए चुपचाप सब सुन और सह रहे थे दुर्योधन अपना ऐश्वर्य दिखलाकर पांडवों का दिल जलाने के लिए द्वैतवन में पहुंचा था।
अर्जुन के मित्र चित्रसेन गंधर्व ने कौरवों की बुरी नीयत जानकर उन सबको जीतकर स्त्रियों सहित कैद कर लिया।
युद्ध से भागे हुए कौरवों के अमात्य युधिष्ठिर की शरण में आए और दुर्योधन तथा कुरुकुल की स्त्रियों को छुड़ाने के लिए अनुरोध किया।
भीम ने प्रसन्न होकर कहा, अच्छा हुआ, हमारे करने का काम दूसरों ने ही कर डाला।
परंतु धर्मराज दूसरी ही धुन में थे, उन्हें भीम के वचन नहीं सुहाए। वह बोले, भाई यह समय कठोर वचन कहने का नहीं है। प्रथम तो ये लोग हमारी शरण में आए हैं, भयभीत आश्रितों की रक्षा करना क्षत्रियों का कर्तव्य है, दूसरे अपने परिवार में आपस में चाहे जितनी कलह हो, जब कोई बाहर का दूसरा आकर सताए या अपमान करे, तब उसका हम सबको अवश्य प्रतिकार करना चाहिए। हमारे भाइयों और पवित्र कुरुकुल की स्त्रियों को गंधर्व कैद करें और हम बैठे रहें, यह सर्वथा अनुचित है। आपस में विवाद होने पर वे सौ भाई और हम पांच भाई हैं परंतु दूसरों का सामना करने के लिए तो हमें मिलकर एक सौ पांच होना चाहिए।
युधिष्ठिर ने फिर कहा, भाइयो पुरुष सिंहो! उठो! जाओ! शरणागत की रक्षा और कुल के उद्धार के लिए चारों भाई जाओ और शीघ्र कुल की स्त्रियों सहित दुर्योधन को छुड़ाकर लाओ।कैसी अजातशत्रुता, धर्मप्रियता और नीतिज्ञता है। अजातशत्रु धर्मराज के वचन सुनकर अर्जुन ने प्रतिज्ञा की, यदि दुर्योधन को उन लोगों ने शांति और प्रेम से नहीं छोड़ा, तो आज गंधर्वराज के तप्त रुधिर से पृथ्वी की प्यास बुझाई जाएगी।
वन में द्रौपदी और भीम युद्ध के लिए धर्मराज युधिष्ठिर को बेतरह उत्तेजित करते रहते और मुंह आई सुनाते, पर धर्मराज सत्य पर अटल रहे। उन्होंने साफ-साफ कह दिया, बारह वर्ष के वनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास की मैंने जो शर्त स्वीकार की है, उसे मैं नहीं तोड़ सकता। मेरी सत्य प्रतिज्ञा को सुनो, मैं धर्म को अमरता और जीवन से श्रेष्ठ मानता हूं। सत्य के सामने राज्य, पुत्र, यश और धन आदि का कोई मूल्य नहीं है।
महाराज युधिष्ठिर निष्काम धर्मात्मा थे। एक बार उन्होंने अपने भाइयों और द्रौपदी से कहा, मैं धर्म का पालन इसलिए नहीं करता कि मुझे उसका फल मिले, शास्त्रों की आज्ञा है, इसलिए वैसा आचरण करता हूं। फल के लिए धर्माचरण करने वाले सच्चे धार्मिक नहीं हैं, परंतु धर्म और उसके फल का लेन-देन करने वाले व्यापारी हैं।
वन में यक्षरूप धर्म के प्रश्रों का यथार्थ उत्तर देने पर जब धर्म युधिष्ठिर से कहने लगे कि तुम्हारे इन भाइयों में से तुम कहो उस एक को जीवित कर दूं, तब युधिष्ठिर ने कहा, नकुल को जीवित कर दीजिए।
यक्ष ने कहा, तुम्हें कौरवों से लडऩा है, भीम और अर्जुन अत्यंत बलवान हैं, तुम उनमें से एक को न जिलाकर नकुल के लिए क्यों प्रार्थना करते हो युधिष्ठिर ने कहा, मेरी दो माताएं थीं कुंती और माद्री। कुंती का तो मैं एक पुत्र जीवित हूं, माद्री का भी एक रहना चाहिए। मुझे राज्य की परवाह नहीं है।
युधिष्ठिर की समबुद्धि देखकर धर्म ने अपना असली स्वरूप प्रकट कर सभी भाइयों को जीवित कर दिया। भगवान श्रीकृष्ण ने जब वन में उपदेश दिया, तब हाथ जोड़कर युधिष्ठिर बोले, केशव! नि:संदेह पांडवों की आप ही गति हैं। हम सब आपकी ही शरण हैं, हमारे जीवन के अवलंबन आप ही हैं। द्रौपदी सहित पांचों पांडव हिमालय गए। एक कुत्ता साथ था। द्रौपदी और चारों भाई गिर पड़े, देवराज इंद्र रथ लेकर आए और बोले, ‘‘महाराज! रथ पर सवार होकर सदेह स्वर्ग पधारिए।