महिलाओं के लिए प्रेरणास्रोत वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई
वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई के राष्ट्रप्रेम, साहस, बलिदान की अमर कहानी बुन्देलखण्ड के इतिहास को गौरान्वित कर महिलाओं के लिए आज भी प्रेरणा का स्रोत बनी हुई है। वीरागंनाओं के पारस्परिक सहयोग, त्याग और आत्मविश्वास दलित सवर्ण का अमिट प्रेम भी राष्ट्रीय एकता, सामाजिक सद्भाव का प्रतीक बना हुआ है। देश की आजादी के लिए वर्ष 1857 की पहली लडाई में जहां राजाओं, नवाबों, देशभक्त साधन सम्पन्न साहसिक नागरिकों ने संघर्ष किया वहीं रानी लक्ष्मीबाई का राष्ट्र प्रेम संघर्ष आज भी यादगार बना हुआ है। 19 नवम्बर 1828 को काशी के सुप्रसिद्ध महाविद्वान ब्राह्मण परिवार में जन्मी रानी लक्ष्मीबाई का पालन पोषण, शिक्षा-दीक्षा, बिठूर, कानपुर में हुई। बिठूर में वह मनु और छबीली के नाम से विख्यात थी। उन्होंने युद्ध कौशल की शिक्षा बिठूर में ही ली। झांसी के गंगाधर राव से विवाहोपरान्त वह लक्ष्मीबाई के नाम से विख्यात हुई। उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया लेकिन कुछ माह उपरांत उसकी मृत्यु हो गई। पुत्र के गम में राजा भी चल बसे।
राजा गंगाधर राव ने अपने जीवनकाल में ही अपने परिवार के बालक दामोदर राव को दत्तक पुत्र मानकर अंग्रेजी सरकार को सूचना दे दी थी परंतु ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार ने दत्तक पुत्र को अस्वीकार कर दिया। रानी ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध का बिगुल बजा दिया और घोषणा कर दी कि मैं अपनी झांसी अंग्रेजों को नही दूंगी। यहीं से पहले प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का आरंभ हुआ। भारत देश की इस विरांगना ने 17 जून 1858 को ग्वालियर में सदा के लिए आंखें बंद कर ली थी। अल्प आयु में ही उन्होंने सेनापति के साथ-साथ कुशल प्रशासक की अमिट छाप छोड़ी है।
– ‘बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।’